वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 123
From जैनकोष
त्याज्य: शुद्धनयो न जातु कृतिभि: सर्वंकष: कर्मणाम् । तत्रस्था: स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य निर्यद्बहि: पूर्णं ज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यंति शांतं मह: ॥123॥
993- संसारी प्राणियों की दु:खमयता-
अपने आपका कल्याण किस स्थिति में है, ध्यानपूर्वक सुनो- एक बार भी अगर अपना यह ज्ञान इस निज ज्ञानस्वरूप में रम गया तो समझ लीजिए सदा के लिए संसार का संकट टल गया- अन्यथा यह बतलाओ, जन्मे मरे, फिर दूसरी जगह जन्मे फिर मरे तो ऐसा जन्म मरण का ताँता लेकर कौनसा कल्याण पा लिया जायगा? दु:ख ही दु:ख है, जन्म का दु:ख, मरण का दु:ख, और जन्म मरण के बीच की जो जिंदगी है उसमें भी दु:ख। जैसे बाँस का पोर होता है उस पौर के भीतर कीड़ा फंसा हो और बाँस के दोनों तरफ लग जाय आग तो कीड़े की दशा क्या होती है? ऐसे ही समझ लो कि हमारा जीवन है मध्य तथा उसके दोनों तरफ लगी है जन्ममरण की आग, तो एक तरफ जन्म की आग, एक तरफ मरण की आग, और इसके बीच की जो जिंदगी है वह महाकष्ट से भरी हुई है। तो ऐसे इस जीवन से कौनसा हित पा लिया जायगा? इसलिए उचित तो यह है कि एक ही बार में पूर्ण श्रद्धा के साथ यह स्वीकार कर लो कि मेरा तो ज्ञानस्वरूप के सिवाय अन्य कुछ नहीं है। मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ, अन्य मेरा कुछ नहीं।
994- आत्मज्ञान से ही शांति की संभवता- अपने आपमें आने के लिए क्या करना? देखो निरखो अपने ज्ञानस्वरूप को। यह ज्ञानस्वरूप धीर है, उदार है, महिमा वाला है। मेरे लिए महान मेरा यह सम्यग्ज्ञान है। हाँ जब यह सम्यग्ज्ञान अपने आपके स्वरूप में नहीं रहता है और रागद्वेष की तृष्णा में कोई तरंग चलती है तो यह जीवन दु:खमय हो जाता है। सो थोड़ा भेदविज्ञान की बात रहेगी चित्त में तो शांति रहेगी और भेदविज्ञान की बात चित्त में न रहेगी तो कुछ भी कमा लें, राज्य पा लें।करोड़ों का वैभव पा लें, शांति उसको नहीं मिल सकती। शांति देने वाला वैभव नहीं है। शांति देने वाला तो आत्मज्ञान है। चाहे आज शांति पाने का उपाय बना लें चाहे कुछ भव बाद, मगर शांति पाने का उपाय तो केवल आत्मज्ञान है, केवल आत्मवैभव है। सो धीर, उदार, महिमा वाला यह अनादि अनंत मेरा ज्ञानस्वरूप है। उसमें मैं अपने को लगाऊँ। उसमें मैं धीरता बाँधू याने मेरी दृष्टि अपने आपके उस ज्ञान प्रकाश पर रहे और फिर यह बोध, यह शुद्धनय यह कभी त्याज्य न रहे, हेय न रहे, दृष्टि में रहे, प्रतीति में रहे। यह संसार बड़ा दु:खमय है, और रंच दु:ख भी नहीं है। जहाँ बाहर देखा वहाँ दु:ख हो गया, जहाँ भीतर निरखा, बस सारे दु:ख शांत हो गए। जिन भगवान की हम पूजा करते हैं वे पूर्ण आनंदमय हैं। और, इन्होंने क्या किया? बाहर की दृष्टि त्यागी, अपने आत्मा में दृष्टि लगायी, उसके प्रताप से केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ, अब सारे लोकालोक को वे युगपत् जान रहे हैं और अपने आनंद में निरंतर लीन रहते हैं। यह है प्रभु का स्वरूप, और ऐसा ही मेरा स्वरूप स्वभाव है। जैसा उपाय प्रभु ने किया वही उपाय हम आप कर सकते। तो मेरे को भी यह आनंद प्राप्त हो सकता है। सदा के लिए संकट मिट जायेंगे। इस ओर उमंग क्यों नहीं लायी जाती? मुझे तो अपने आत्मा में बसे हुए सहज परमात्मतत्त्व की उपलब्धि करना है। 995- शुद्धनय की सर्वकषता-
यह शुद्धनय, आत्मदर्शन, बाहर के विकल्प त्यागकर अपने को केवलज्ञानस्वरूप निरखना यह समस्त कर्मों का सर्व कष है। मायने परविकल्पों का यह सर्वप्रकार से करने वाला है, विनाश करने वाला है, प्रलय कर देगा, जो विभाव हैं, जो कर्म हैं उनका प्रलय कर देगा। अपने को ऐसा निरखना कि मैं मात्र ज्ञानस्वरूप हूँ, ज्ञान ही मेरा वैभव है, ज्ञान के सिवाय परमाणुमात्र भी मेरा कुछ नहीं हैं, ऐसा दृढ़ निर्णय बनाये बिना शांति का मार्ग तो पा नहीं सकते, बाकी जैसी जिंदगी चलती है चलती रहेगी। जिंदगी पार हो जायगी, फायदा क्या पा लिया जायगा? इसके बाद जीवन, फिर वही पाटी, फिर वही मरण। और, कहाँ कहाँ जीवन, कहाँ कहाँ मरण, कहाँ बुद्धि लग रही है। सर्व ओर से अपनी बुद्धि को संहृत करके अपने आपमें निरखें कि मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ, ऐसी दृष्टि दृढ़ तो बनायें, उसमें नुकसान कुछ नहीं होने का। क्योंकि धन वैभव की कमाई यह कोई आपके हाथ से नहीं हुई, आपके दिमाग से नहीं हुई। जिन जिनके उपभोग में वह वैभवआता है उनके पुण्य का उदय है जिससे आपको आपकी सेवा करनी पड़ती है, और काम बन जाता है। अपने आपके स्वरूप की ओर अभिमुख होने का काम रहेगा तो पुण्यकर्म बढ़ेगा, घटने की बात नहीं है, और जितने भवशेष हैं इस जगत में उन भवों में आराम से रहेंगे। और फिर देखना होगा कि जो जीव मुक्त हुए हैं उनमें प्राय: सभी जीव उत्सव सहित मुक्त हुए हैं। कुछ मुनिजन ऐसे जरूर हैं जिन पर उपसर्ग आये, उपद्रव आये और फिर उनको मुक्ति मिली। मगर ऐसे बिरले हैं। बाकी तो किसी का निर्वाण कल्याणक मनाया गया, किसी का कुछ उत्सव मनाया गया। इस तरह मुक्त होने वाले बहुत हैं, क्योंकि है ही ऐसा। आपके घर का बच्चा विलायत जा रहा हो तो आप उसे बड़ा उत्सव समारोह मानकर भेजते हैं और फिर इस संसार में रहने वाला कोई एक जीव इस संसार घर से सदा के लिए बिदा हो रहा है तो यहाँ रहने वाले लोग मन भर उसका समारोह करते हैं। यही तो निर्वाणकल्याणक समारोह हुआ।
996- वीतरागता का सर्वोत्कृष्ट वैभव- वीतरागता सबसे बड़ा वैभव है, सम्यग्दर्शन ही एक मात्र विभूति है, बाकी पौद्गलिक रंग ढंग ये सब बातें कौन क्या हैं उनमें बुद्धि लगे तो उससे अपना अनर्थ ही है, कुछ उससे अपनी निर्मलता नहीं बनती है। भाई ज्ञान अगर ठीक है तो जितना उसमें ज्ञान है, जितने अंश में वीतराग भाव है उतने अंश में उसको शांति प्राप्त होती है। करने का काम यह है बलपूर्वक, सारे आग्रहपूर्वक एक जिसे कहते हैं दमदार, पहले पार। कोई नदी बह रही है एक साहस न बनाया, लो गिर गया, बल लगाया, किनारे पहुंच गया, इसी तरह से एक साहस ऐसा बनायें कि चेतन अचेतन सभी पदार्थों से ममत्व छूट जाय और एक बार तो अपने अंत: में बसे हुए उस परमात्मतत्त्व का आनंद आ जाय। यह अपने स्वरूप का दर्शन, स्वरूप का आश्रय, अपने स्वभाव में ही रहना, देखना यह एक इतना ऊँचा अलौकिक काम है कि समस्त पापों का सर्व कष हो जाता है। तब क्या करना? बस आत्मस्वरूप में स्थित होकर ध्वस्त कर दें मरीचिका चक्र को याने मरीचि तृष्णा के रंग को। जैसे उदाहरण है कि कोई हिरण नदी के किनारे रेत पर था। उसेप्यास लगी थी। वह नदी के रेत दूर से पानी जैसी चमक रही थी। उसने दौड़ लगाया, वहाँ पहुंचा तो पानी का नाम नहीं, फिर आगे दृष्टि डाला तो दूर की चमकती रेत पानी जैसी दिखी, दौड़ लगाया, वहाँ पहुंचा तो क्या देखा कि पानी का नाम नहीं।दौड़ लगाते-लगाते प्यास की वेदना बढ़ गई। यों ही दौड़ लगा-लगाकर वह हिरण अपनी प्यास की वेदना को बढ़ाता जाता है, अंत में गिरकर अपने प्राणपखेरू उड़ा देता है। तो ऐसे ही कुछ सुख की आशा में ये संसारी प्राणी दौड़ लगा रहे हैं, मैं इस धन वैभव से सुखी होऊँगा, स्त्री-पुत्रादिक से सुखी होऊँगा, इज्जत पोजीशन आदि से सुखी होऊँगा।...योंसोच-सोचकर सुख की आशा कर करके ये अपनी आशा तृष्णा की वेदना की और अधिक बढ़ते रहते हैं, अंत में निराश होकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर जाते हैं। बताओ इन बाह्य पदार्थों की आशा करके, इनके पीछे दौड़ लगाकर पाया क्या? केवल कष्ट ही पाया। और अंत में दुर्गति हुई। ऐसे उदाहरण जीते जागते मिलेंगे। तो संसार के इन वैभवों में इनमें विश्वास न करना कि इनसे मेरा हित होगा। 997- सम्यग्ज्ञान की हितमूलता- मेरा हित होगा तोसम्यग्ज्ञान से होगा। हमारे भीतर के नेत्र भीतर में खुल जायें, अपने ज्ञानस्वरूप का अनुभव हो जाय तो समझो कि सदा के लिए हमने समस्त दु:खों से छुटकारा पाया।यहाँ की थोड़ी-थोड़ी बातों का क्या सोचना कि इसमें यह सुविधा मिलेगी इसमें यह मिलेगी। वे सब दुविधायें हैं। जितने भी बाह्य अंधकार हैं वे सब दुविधा हैं सुविधा नहीं। सुविधा उसमें है कि अपने आत्मा के स्वरूप में रमो, अपने इस मरीचि समूह को बहुत जल्दी मिटाकर देखो तो सही ज्ञानीजन क्या निरखते हैं, ज्ञानघन का पिंड, याने ज्ञान ही ज्ञान रस से पूरा भरा हुआ, इसे कहते हैं ज्ञानघन। मेरे स्वरूप में और चीज है क्या? ज्ञान ही ज्ञानमात्र तो उस अचल को, अविचल को जो शांत पुरुष हैं, ज्ञानीपुरुष हैं वे शांति तेज के रूप में निरखते हैं अपने को कैसा निरखना? बस इस ही में बंधन, मुक्ति, दु:ख, सुख, आनंद सब कुछ इस पर निर्भर है। और, दूसरी बात का उत्तर नहीं।केवल एक बात। मैं अपने को कैसा परखूँ कि मैं क्या हूँ। बस इस पर ही सारे कष्ट और सारा आनंद निर्भर है। जिसने अपने को यों निरखा कि मैं मकान का मालिक हूँ, धनी हूँ, वैभव वाला हूँ, स्त्रीसहित हूँ, परिवार सहित हूँ, इज्जत वाला हूँ। समाज वाला हूँ- इस प्रकार कोई अपने को निरखे तो उसका फल है कष्ट भोगना और जो अपने को इस तरह निरखे कि उन समस्त विभावों से निराला, शरीर से भी निराला केवल ज्ञानमात्र, ज्ञानप्रकाश एक मैं ही मात्र हूँ, वहाँ ऐसा देखें तो उसके मोक्ष का द्वार खुल जाता है। तो प्रोग्राम बनावें तो मोक्ष का बनावें। बंधन का प्रोग्राम मन में मत सोचें। है बंधन, घर है, परिवार है, मगर मुख्यता किसको देना चाहिए? मोक्ष की ओर,बंधन की ओरनहीं। तो ऐसे जो ज्ञानी पुरुष हैं वे इस शांत तेज को निरंतर निरखते रहते हैं। यह दृष्टि देना है सबको। किसी की भलाई किसी दूसरे से न होगी। अपने काम से अपने आत्मा का भला होगा। अपने में ज्ञानस्वरूप की दृष्टि का काम करें उसका भला होगा। किसी का कोई दूसरा भला नहीं कर सकता। इससे अपना मुख मोड़ लें। मेरे को और कुछ न चाहिए। मेरा जो एक सहज परमात्मतत्त्व भगवान आत्मा है वह मेरी नजर में रहे, मेरी दृष्टि में रहे। मात्र यही मैं चाहता हूँ।