वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 124
From जैनकोष
नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु संपश्यतोऽंत: । स्फारस्फारै: स्वरसविसरै: प्लावयत्सर्वभावा- नालोकांतादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत् ॥124॥
998- रागादिविगम से आस्रवविगम, अंतर्दर्शन, सर्वविज्ञान होकर ज्ञान का अनुपम विकास- जहाँ रागादिक दूर हुए राग दूर हो ही जायेंगे ज्ञान में। राग में रहते हुए भी राग फिर न कहलायेगा। जहाँ यह जाना कि मेरा तो मात्र ज्ञानस्वरूप है, यह राग जो है वह कर्मछाया है, मेरा स्वरूप नहीं है, यह तो अँधेरे का प्रतिफलन है, इसमें मेरे को क्या है? मैं अपने स्वरूप में ही मग्न होऊँ, यहाँ ही चलूँ ऐसा जिसने भाव बनाया है उसके राग आये तो भी राग नहीं। तो रागादिक शीघ्रता से जब दूर होते हैं, सब ओर से, जब इस आस्रव का प्रलय होता है तो अपने आपमें अनादिकाल से अंत: प्रकाशमान जो परमार्थ वस्तु है वह अपने अनुभव में आने लगती है। यह विकार ही तो बाधक है जो हम अपने अंदर बसे हुए भगवान के दर्शन नहीं कर पाते। और विकार मिटाने के लिए यह ही ज्ञान चाहिए कि शरीर भी जब मेरा नहीं और यह विकार जो कर्म का उदय पाकर आया है वह भी मेरा नहीं तो मेरा फिर जगत में क्या रहा? केवल मेरा ज्ञानस्वरूप, वही रहा। थोड़ी यह बात भी तो चित्त में बसा लें कि किस किस को अभी तक मौत के प्रसंग नहीं आये? किसी के बीमारी में मुश्किल से प्राण बचे, किसी के दंगा में, किसी के किसी प्रसंग में, अनेक मौके पर आये होंगे जबकि इस जीवन का कुछ भरोसा न था। बड़ी मुश्किल में प्राण बचे। मान लो उस मौके में आपके प्राण चले गए होते तो फिर क्या था आपका यहाँ कुछ? यहाँ से मरकर न जाने कहाँ किस गति में जन्म लेते। यहाँ का कुछ भी समागम साथ तो नहीं जाता, मेरा यहाँ बाहर में कुछ है भी तो नहीं। मेरा तो मात्र मेरा आत्मवैभव है। वही मेरे साथ जायगा, दूसरा और कुछ मेरे साथ न जायगा तो जब रागादिक आस्रव वेगपूर्वक हो रहे हैं तो अपने आपमें निर्वाध नित्य अंत: प्रकाशमान् कोई परमवस्तु नजर आती है। फिर अपने स्वरस के फैलाव से सर्व पदार्थों पर तैरता हुआ लोक और अलोक त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को जानता हुआ यह अनुपम ज्ञान प्रकट होता है। विकारों से लगाव को छोड़े। केवलज्ञान क्यों नहीं प्रकट होता और विकारों में और छोटी-छोटी धन वैभव आदिक की जो छाया है उसमें मोह रखेंगे तो कौनसा कल्याण पा लिया जायगा, तो अपना विचार कर लो। कोई मेरा सार नहीं है। मेरा सार मेरे में मेरा अंतस्तत्त्व ही है।
अथ संवराधिकार: