वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 14
From जैनकोष
अखंडितमनाकुलं ज्वलदनंतमंतर्बहि-
र्मह: परममस्तु न: सहजमुद्विलासं सदा ।
चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालंबते
यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम् ॥14॥
164―शुद्धनय और अशुद्धनय का विश्लेषण―शुद्धनय और अशुद्धनय का अर्थ क्या है? शुद्धनय-जहाँ केवल एक द्रव्य ज्ञान में जाना जा रहा हो और वह इसी विधि से कि उसमें गुण और पर्यायों का भेद भी न समझा जा रहा हो याने गुण और पर्यायें जहाँ निष्पीत हो चुकी हो, जिस प्रकार एक विशुद्ध याने सबसे वियुक्त द्रव्य का निहारना, इसे कहते हैं शुद्धनय और पदार्थ के गुणों का परिचय करना इसमें ज्ञानगुण है, दर्शनगुण है, चारित्रगुण है, यह बन गया अशुद्धनय । शुद्ध अशुद्ध का अर्थ यहाँ पर्याय की मलिनता और निर्मलता न करना किंतु एक अखंड अंतस्तत्त्व की दृष्टि कराये उसे कहते हैं शुद्धनय । और उस द्रव्य का भेदपूर्वक परिचय कराये उसे कहते हैं अशुद्धनय । अशुद्धनय कितने प्रकार के होते हैं? अब देखो जीव में चैतन्यस्वभाव है, इस तरह का जो निरख किया तो आप समझ रहे होंगे कि यह तो बिल्कुल शुद्ध वर्णन है अनादि अनंत चैतन्य स्वभावी इस जीव को कहा जा रहा, लेकिन यहाँ गुण-गुणी का भेद बनाया । अभेद में चैतन्यस्वभावमात्र है, और गुण गुणी के भेद से कहा हुआ जो नय है वह अशुद्धनय है । शुद्धनय की महिमा जानने के लिए अशुद्धनय का जिक्र कर रहे, अशुद्धनय का अर्थ पर्याय की मलिनता नहीं है । अशुद्धनय का विस्तार बहुत है, शुद्धपर्याय का वर्णन करना यह भी अशुद्धनय है अशुद्धपर्याय का वर्णन वह भी अशुद्धनय है । जैसे कहा―जीव के दर्शनगुण है, चारित्रगुण है? बताओ यह अशुद्धनय का वर्णन है कि शुद्धनय का? अशुद्धनय का, इसे सद्भूतव्यवहार कहते । बतायी जा तो रही शक्ति वह सहजभाव में, लेकिन भेद करके बताया―कहीं जीव में ये अलग-अलग नहीं पड़े हैं, वे एक ही हैं मगर आचार्य संतों की दृष्टियाँ और और सब जैनशासन का कथन कितना प्रमाणभूत है कि भेद करके जो बात कही गई वह-वह उसी ढंग से जानने में आ रही । लेकिन भेद करके कथन होने से अशुद्धनय कहलाया । जीव में केवलज्ञान है । सिद्धभगवान में केवलज्ञान है, यह बात तो अच्छी कही जा रही ना और उनकी तो हम रोज पूजा करते हैं । भगवान के ऐसे ही गुणानुवाद करके पूजा करते हैं । जीव में केवलज्ञान है, यह किस नय से कहा जाता है? यह बार-बार ध्यान में रखना कि मलिनता का नाम यहाँ अशुद्ध नहीं, भेदरहित सिर्फ एक अखंड तत्त्व को ग्रहण करने का नाम शुद्धनय है । और भेदकथन है वह अशुद्धनय है ।
165―व्यवहारनय से वस्तुपरिचय की प्राक् आवश्यकता―आत्मा का परिचय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों से होता है । सभी वस्तुओं का परिचय द्रव्य क्षेत्र काल भाव से होता है । जैसे आत्मा द्रव्यदृष्टि से कैसा है? गुण पर्याय का पुंज । क्षेत्रदृष्टि से कहा है असंख्यात प्रदेशी है, इतना लंबा चौड़ा जितना वर्तमान में है उस दृष्टि से आत्मा का परिचय मिला, उसकी दृष्टि किया, परिचय मिला । उस समय आत्मा की जो परिणति चल रही हो उसका परिचय करना वह कालदृष्टि से परिचय है । जैसे आत्मा क्रोधी है, निर्मल है, ज्ञानी है । और भाव दृष्टि से आत्मा का परिचय करेंगे तो वर्णन दो तरह से करेंगे, कुछ भेद रूप से कुछ अभेद रूप से । इस जीव में ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, आनंद है, शक्ति है, यह वर्णन हुआ भेद विधि से, गुणों की कथन पद्धति से । और अभेद भाव चित्स्वरूप, जीव में चैतन्य है, इसमें भी भेद किया गया, इतना भी भेद मिटाकर यह चैतन्यस्वभाव मात्र है, यों अखंड केवल चित्स्वरूप का जहाँ शुद्ध दर्शन है वहाँ है शुद्धनय का विषय । और यहाँ देखो आत्मानुभव की बात में क्या हम आत्मा को इस तरह देख रहे कि यह अनंत गुणों का धारी गुणपर्यायों का पिंड है । यह आत्मा त्रैकालिक अनंत गुणात्मक है, इस तरह का मनन आत्मानुभव में सहयोगी तो है मगर साक्षात् आत्मानुभव नहीं है, और साक्षात् साधकतम भी नहीं है, उससे तुरंत आत्मानुभव तो नहीं होता, मगर आत्मपरिचय हो जाता है, आत्मा असंख्यातप्रदेशी है, इतना लंबा चौड़ा है ऐसा ज्ञान है, तो है सही बात, मगर क्षेत्रदृष्टि से आत्मा का जब मनन किया जा रहा है तो उसके अनंतर ही आत्मानुभव की सुध नहीं हो पाती । यद्यपि ऐसा जाने बिना आत्मा की समझ नहीं बनती, मगर यहाँ उस विधान को देखो-जो आत्मानुभूति की पद्धति में होता है उसकी बात कही जा रही है । कालदृष्टि से देखा तो जीव केवलज्ञानी है, मनःपर्ययज्ञानी है, क्रोधी है, मानी है । इसी तरह भेदरूप गुणों की परिणतियों का भेद करके उसमें कोई-कोई मनन करके जब आत्मा का परिचय किया जा रहा है वहाँ भी परिचय तो ठीक है, मगर इस परिचय के अनंतर आत्मानुभव नहीं बनता । इसी प्रकार जीव के कितने गुण हैं? अनेक गुण हैं, ज्ञान है, दर्शन है, इस प्रकार भेद विधि से जो शक्तियों का वर्णन है वह आत्मानुभूति की साक्षात् साधक नहीं, परिचायक व सहयोगी अवश्य है । तो आत्मानुभूति की स्थिति की क्या बात है कि विकल्प भी नहीं है ऐसे निज चैतन्यस्वभाव की दृष्टि हो । जो ज्ञान बने, ज्ञानमात्र शुद्ध चैतन्यमात्र शुद्धनयात्मक जो आत्मा का अनुभव चले वहाँ आत्मानुभव है । तो आत्मानुभव हुआ किसका? ज्ञानस्वभाव का, इसी कारण इससे पहले कलश में कहा गया था कि आत्मानुभूति जो है वह ज्ञानानुभूति है ।
166―सामान्यविशेषात्मक आत्मा का सामान्यविधि से उपयोग होने पर ज्ञानानुभूति की संभवता―उक्त ज्ञानानुभूति की बात चलने पर एक प्रश्न होता है, समस्या होती है, बात तो सीधी है, ठीक है, सुगम है, निज घर की बात है, ऐसा हो जाना चाहिए सहज बात है, मगर यहाँ तो अंधेर मच रहा, ऐसा तो कोई अनुभव नहीं कर रहा, इसका कारण क्या है? इसका कारण यह है कि देखिये―द्रव्य जितने होते हैं वे सब सामान्य विशेषात्मक होते हैं । द्रव्य की अपने आपकी एक खासियत है, और सामान्य विशेषात्मक द्रव्य का जो परिचय बनता है वह कभी सामान्य विधि से, कभी विशेष विधि से होता है । जब सामान्य का परिचय हो रहा तब विशेष का तिरोभाव है, वस्तु जो है सो है । उस वस्तु का जब सामान्य विधि से मनन है तो वहाँ विशेष का तिरोभाव है, सामान्य का आविर्भाव । और जिस समय वस्तु का गुणों का पर्याय का विशेष का ज्ञान है, चिंतन है, मनन है तब विशेष का आविर्भाव है, सामान्य का तिरोभाव है । बस ये दो बातें हैं । जब सामान्य का आविर्भाव, विशेष का तिरोभाव हो ऐसे अनुभव में आये आत्मतत्त्व तो वह है आत्मानुभव की स्थिति । कहीं यह बात न समझना कि आत्मा में जो चीज है सामान्य विशेष उसमें विशेष छूट जायेगा क्योंकि सामान्य को जाना जा रहा है । ऐसी शं का नहीं रखना । कारण कि सामान्य विशेषात्मक पदार्थ को ही अगर सामान्य पद्धति से जाना जा रहा है तो वहाँ विशेष ओझल हो गया, उपयोग से तिरोहित हो गया, विशेष का विकल्प ही नहीं हैं है, इस तरह का अनुभव की जाने वाली बात होती है । यहाँ देखो महिमा किसकी जानी गई? सामान्य की । और विशेष की दृष्टि में क्या प्रभाव बना? विशेष-विशेष की ही जहाँ दृष्टि हो वह तो विडंबना बनाने का स्थान हुआ, विकल्प का स्थान हुआ । तो सामान्यविशेषात्मक आत्मा में सामान्य बुद्धि बने, अंतस्तत्त्व ज्ञेय बने । यह विशेष को तिरोहित कर सामान्य के आविर्भाव का उपाय है ।
167―सामान्यभाव की दृष्टि का महत्त्व―इस जमाने में आदर सामान्य का है कि विशेष का? विशेष का । सामान्य को कौन पूछता यह बहुत विशिष्ट पुरुष है, लोक में विशेष की इज्जत है सामान्य की नहीं, मगर अध्यात्म के प्रसंग में सामान्य का आदर है और जरा इसको इस दृष्टांत से समझें नमक की डली के चरित्र की तरह । जैसे पकौड़ी बनाई गई तो उन पकौड़ियों में नमक पड़ता है ना । अब उस पकौड़ी को कोई खायेगा उसको नमक का भी स्वाद आयेगा कि नहीं? अरे स्वाद तो नमक का आयेगा मगर वह नमक कहीं आंखों से तो नहीं दिखता, इन आँखों से तो वहाँ दाल की पकौड़ियां दिखती तो वह यही कहेगा कि पकौड़ियां बड़ी अच्छी लग रहीं । अच्छा अब कोई पकौड़ियां बेसन की जरा ऐसी भी बनवाओ जिसमें नमक बिल्कुल न पड़ा हो, वह भी देखने में साफ वैसी ही होगी जैसी कि और पकौड़ियाँ । उसे खिलाओ, तो उसे खाने पर तो वह यह कह देगा कि यह तो बढ़िया नहीं है ।....अरे क्यों बढ़िया नहीं है । फर्क क्या आ गया? तो बस यह फर्क रहा नमक के मिलने और न मिलने का । तो जिस नमक की इतनी बड़ी महिमा है कि नमक डल गया तो बड़ा स्वाद आ रहा और नमक न डला तो स्वाद का नाम नहीं, तो ऐसे उस उपकारी नमक की कुछ याद भी नहीं करता पकोड़ियों का आसक्त । याद तो तब आया जब दूसरी पकौड़ियाँ बिना नमक की सामने धर दी गई । तो जिस नमक के प्रताप से वे पपड़ियाँ पकौड़ियां अच्छी लगती उसका कुछ याद भी नहीं करता और परिचय भी नहीं कर रहा, क्यों नहीं कर रहा? यों कि उसकी दृष्टि तो उस पकौड़ी पर है और बेसन है, दाल है, उस पर दृष्टि है, नमक पर दृष्टि नहीं । इसलिए नमक की बात उसके चित्त में नहीं है । क्या वह नमक का स्वाद भी नहीं ले रहा? स्वाद तो ले रहा मगर पकौड़ी के खाने में वह इतना आसक्त है कि वह नमक के स्वाद को अलग से समझ नहीं पाता । और उस प्रसंग में समझना जरा कठिन भी हो रहा । कोई बहुत ज्ञानदृष्टि करके समझे तो वहाँ अंदाज कर सकता ।
168―सामान्यविधि से अनुभवने का महत्त्व―अच्छा एक और घटना ले लो । नमक की छोटी डली अलग जीभ पर रख लिया तो आपको नमक के स्वाद का स्पष्ट परिचय हो जायेगा कि यह है नमक । तो हुआ क्या? नमक तो सामान्य विषयक दृष्टांत की बात है क्योंकि वह थोड़ा था, उस पर कोई वजन नहीं, कुछ नहीं, सामान्य याने थोड़ा सा जुड़ गया था । और, विशेष क्या था? वे पकौड़ी जो दिख रहीं । तो विशेष रूप से अनुभव करने पर नमक की समझ नहीं और जब केवल नमक को जिह्वा पर रखते हैं तो उसे नमक का स्वाद आता । ऐसे ही सामान्य और विशेष आत्मा में देखो सामान्य क्या है? सामान्य रीति से क्या जाना जाता है? वह चैतन्यस्वभाव अखंड चित्प्रकाश । विकल्प न करें, जब कभी विकल्प न बनें और उस चैतन्य प्रकाश को निरखने का पौरुष करें तो वहाँ समझ में आ जायेगा कि यह हैं परमार्थ । और विशेष क्या-नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, देव, गृहस्थ व्यापारी, अमुक, तमुक आदि ये सब विशेष हैं । तो जब विशेष रूप से अनुभव कर रहा है यह जीव, यह मित्र है, यह शत्रु हैं, यह विरोधी है, यह गैर है आदि, तो उसे अंतस्तत्त्व का स्वाद कहीं से आये? जब विशेष की उपेक्षा करके केवल एक निजस्वभाव की दृष्टि बने तब वह आत्मानुभूति होती है कैसा है यह आत्मतत्त्व? अखंड । आत्मा ही क्यों अखंड है? जितने भी पदार्थ हैं वे सब अखंड हैं । पदार्थ कभी खंड रूप होता ही नहीं । आप नाम लेते जाइये । आत्मा को तो अखंड कह रहे । बताओ-पुद्गल भी अखंड है कि नही? अखंड है तभी तो अनेक पुद्गल की मिलकर स्कंध पर्यायें बनी । इसे तो अनेक दार्शनिक संवृति कहते हैं, कल्पना है । ये अवस्था विशेष माने तो जाते हैं, मगर मायारूप हैं, अनेक पदार्थों का मिलकर बना है, परमार्थ नहीं है परमार्थत: पुद्गल क्या है? अणु है? क्या अणु का भी खंड बनता? अणु के खंड नहीं बनते । विशेष का वर्णन करने में एक के विशेष-विशेष खंड बनाकर वर्णन किया जाता है मगर वर्णन करने से अगर चीज वैसी बन जाये तब तो आपका अच्छा सौदा हो जायेगा, क्योंकि आप सिर्फ भोजन का वर्णन कर लें तब तो पेट भर जाना चाहिए, फिर तो भोजन करने की जरूरत न रहनी चाहिए । अरे वर्णन करने से कहीं पेट भरता । प्रत्येक पदार्थ अखंड है । अच्छा अधर्म व धर्मद्रव्य अखंड है कि नहीं, अधर्म धर्म अखंड है । आकाश द्रव्य अखंड है कि नहीं, कालद्रव्य अखंड है कि नहीं? अरै प्रत्येक द्रव्य अखंड है, खंड-खंड सत् नहीं होते ।
169―खंड के बोध से अखंड बोध में प्रवेश―अब देखो स्याद्वाद एक अपेक्षावाद है, उसे कोई समझे तो सही । किसी पर्याय को देखें और कहे कि यह तो स्वतंत्र चीज है, यहाँ कोई संबंध पर्याय का किसी द्रव्य गुण से नहीं । सो भैया, यह तत्त्वचर्चण अज्ञानी के नेतृत्व में नहीं कि जो मन में आया सो कह दिया । अरे स्वतंत्र सत् का पहले मतलब जाने कि किसे कहते हैं स्वतंत्र सत् । स्वतंत्र सत् उसे कहते हैं जो गुण पर्याय वाला हो, जिसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य हो, जो अलग प्रदेश रखता हो उसे कहते हैं स्वतंत्र सत् । कोई भी गुण लो, वह क्या गुणपर्याय वाला है? निर्गुणा: गुणा: । क्या गुण में पर्याय है? गुण तो गुण है । क्या इसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य है? ध्रौव्य भले ही कह लो, मगर उत्पाद व्यय रूपता संभव नहीं है । अब तीसरी बात सुनो यदि गुण को पर्याय को स्वतंत्र सत् कहा तो इसके मायने है कि दर्शन चारित्र आनंद आदिक गुण और पर्याय ये सब अन्य-अन्य हो गए, उनके परस्पर भिन्न प्रदेश हो बैठे, पर ऐसा है कहाँ? इसलिए गुण पर्याय की स्वतंत्रता की बात जरा भी नहीं बनती । जैनशासन का आगम ज्ञान इतना विशाल व प्रमाणभूत व दृढ़ चिना हुआ है कि जिससे कोई गलत बोले तो पता पड़ जाता है कि यह वचन ठीक नहीं रहा । इस प्रकार जैनशासन का जो ज्ञान रखते हैं वे कोई जरा भी यहाँ वहाँ चले, भंग हो, खंड हो, सब समझ में आ जाता । मगर जैसे जिस गोष्ठी में मानो बड़ा तो एक है, जैसे एक चलावाला नेता है और बाकी छोटे लोग हैं, मान लो 9 लोग तो छोटे हैं और एक बड़ा है उनमें हाहा हूहू किसका समझा जायेगा? उसका, एक का, बड़े का । बाकि 9 को कहा जायेगा कि हाँ ठीक भी हो सकता है । तो तत्त्वज्ञान यह कोई 10-15 दिनों में पड़ लेने की चीज नहीं । इसके लिए तो जीवन भर गुरुचरणों में अपने को अर्पित कर, उनके चरणों में सारा जीवन लगायें और परिश्रम से अध्ययन करें तो उस तत्त्वज्ञान को हासिल कर सकते हैं । यह आत्मा अखंड है । यह समझा शुद्धनय से । आत्मा में ज्ञानादि अनेक गुण हैं यह समझा व्यवहारनय से । शुद्धनय गुण पर्यायों का भेद नहीं देखता । देखो गुण का, पर्याय का भेद व्यवहार से किया और उसी को मान लें परमार्थ सत् स्वरूप तो कितनी बड़ी एक बेतुकी बात बन जाती है ।
170―अनाकुलविधि से अनाकुल अखंड अंतस्तत्त्व के अनुभव में आनंदमयता―आत्मा है अनाकुल स्वरूप । सो अखंड अंतस्तत्त्व को जब निरखा गया तो निराकुलता की स्थिति को लेकर ही निरखा जा सकता है, आकुलता की स्थिति में वह अखंड आत्मतत्त्व निरखा ही नहीं जा सकता । स्वभावत: यह अंदर बाहर सब जगह चकचकायमान है, जाज्वल्यमान है । भीतर में सहजस्वरूप देखो चित्प्रकाश का । ऐसा यह एक स्वरूप अंतस्तत्त्व है, जहाँ सहज ही आनंद का विलास चल रहा है, एक ही अपने आपमें देखो और अपने आपको अपना जिम्मेदार समझ लो, मेरा दूसरा कोई जिम्मेदार है क्या? जिसको हमने स्त्री पुत्र मान रखा वे कुछ हमारी मदद कर देंगे क्या? कभी नहीं, त्रिकाल नहीं, वे अपनी कल्पना और योग्यता के अनुसार अपनी बात बना पायेंगे । दूसरा कोई मददगार नहीं । तो अब आप समझें कि यह मोह कितना विकट अंधकार है, यह मोह कितना विकट विशाल है पिशाच । इस भगवान आत्मा में मोह पिशाच लगा है तो ऐसा मथ रहा है कि इसे चैन नहीं पड़ती । कौन मथ रहा? मोह, पिशाच । जरा भीतर में निर्णय करके इतना भी सोच लें कि अपना कल जो दिन बीत गया उसमें अगर मृत्यु हो गई होती तो फिर क्या था हमारे लिये यहाँ का यह संग प्रसंग? क्या ऐसा दिन न आयेगा जो दिन यह कहलायेगा कि लो थे, मर गए । जो बात कुछ दिन बाद होने की है उस बात का जरा अभी से अंदाज कर लें । अपने को मान लें कि मैं तो मनुष्य ही नहीं हूँ तो फिर यहाँ की बात मेरे लिए क्या है? और यह समय आयेगा ना और यह बात बनेगी ना, मगर चैन इसको कहते हैं कि पहले से सही बात समझकर रहें । बाह्य पदार्थों से विकल्प हटाना, मोह हटाना अपने आपके अंदर अभिमुख बनना इसी में हित है । जब अभिमुखता स्व में आती है तो वहाँ सहज आनंद का विलास होता है । जो चैतन्य से निर्भर है, व्याप्त है, जहाँ उत्पाद व्यय ध्रौव्य के स्वभाव के कारण विशुद्ध उच्छ᳭वलन निरंतर चल रहा है, उससे व्याप्त भीतर की बात हमारे सहज आनंद को लिए हुए है, ऐसे इस अंतस्तत्त्व को देखिये । जो भव्य निज स्वभाव की भावना रखे इस उपयोग में ऐसा सहज चैतन्यप्रकाश रखे, जिसके ऐसा सहज चैतन्यप्रकाश अनुभव में रहे जिसको दृष्टांत द्वारा सिद्ध किया था कि एकरस है और नमक की डली की तरह लीलायित है मायने केवल एक आत्मतत्त्व अखंड जिसके प्रति जोड़ तोड़ परिणाम न करें, जोड़ तोड़ किए बिना जो मूल बात है उसको अनुभव में लें ऐसा भव्य आनंदमय होता है ।
171―व्यवहार से आत्मा की परख बनाकर व्यवहार से अतीत होकर अंतस्तत्त्व के अनुभवने का संदेश―जोड़ के मायने जोड़ना, तोड़ के मायने तोड़ देना, निकाल देना । अच्छा बताओ जोड़ अच्छा है कि तोड़? तो आपके लिए क्या जोड़ ही बढ़िया होगा, क्योंकि जोड़ से ही तो धन जुड़ेगा तोड़ से नहीं । (हंसी) यह तो जोड़ तोड़ हुआ बाह्य में । अब यह जोड़ तोड़ अपने आत्मा में घटाकर देखो आत्मा को जब ऐसा निरखा जाता है कि आत्मा में राग है, द्वेष है, क्रोध है, मान है, माया है, लोभ है, कर्म से बँधा है, देह में बँधा है तो यह सब आत्मा में एक जोड़ की बात है । अब तोड़ की बात देखो―आत्मा में ज्ञान गुण है, दर्शन है, चारित्र है, आनंद है, शक्ति है, इस तरह से वर्णन करने का नाम तोड़ कहलाता है । देखो अखंड में जोड़ और तोड़ दोनों आत्मानुभव की स्थितियाँ नहीं हैं । यह जोड़ तोड़ की स्थिति मिटे और जो एक अखंड चैतन्यस्वरूप है उसका, उसका अनुभव जगे । जोड़ बिना भी परिचय नहीं मिलता, तोड़ बिना भी परिचय नहीं मिलता तो भी परिचय परिचय में ही रहें, समझने समझाने के लिए अन्य-अन्य बातों में ही दृष्टि रहे, जोड़ तोड़ में ही उल्झे रहे तो फिर उस अखंड चैतन्यस्वरूप का अनुभव कहाँ पा सके । बस वहाँ दृष्टि करना है आत्मानुभव की । आत्मानुभव ही एक मात्र सार है । जरा हिम्मत बना लो, परिवार तो कुछ काम आयेगा नहीं, जरा हिम्मत बना लो, क्योंकि कायरता-कायरता में ही अनंत भव व्यतीत कर डाला । जिस-जिस भव में गए उस उसमें ही रचे पचे रहे । अब भी अगर परिजनों में ही रचे पचे रहे तो उसका परिणाम बहुत बुरा होगा । इसलिए किसी भी क्षण एक बहुत बड़ा साहस बनाकर एकदम इस संधि को तोड़ दें । अपने में एक पात्रता बने, जिसे कहते हैं कि धर्म का आदर किया गया है । उस तरह का आचार विचार बने तो अपने में वह पात्रता बनेगी कि किसी क्षण अपने आत्मतत्त्व का अनुभव कर लेंगे ।