वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 15
From जैनकोष
एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभि: ।
साध्यसाधकभावेन द्विधैक: समुपास्यताम् ॥15॥
172―आत्मा की साध्यसाधकभाव से दो प्रकार में एक आत्मा की उपासना―जो पुरुष आत्मस्वरूप की सिद्धि चाहते हैं, आत्मस्वरूप तो है ही, जो सहज आत्मस्वरूप है वह अपने ज्ञान में निरंतर बसा रहे, यह कहलाती है आत्मसिद्धि, जो पुरुष आत्मोपलब्धि चाहते हैं उनको क्या करना चाहिए? यह ज्ञानघन, यह आत्मतत्त्व साध्य और साधक इन दो भावों से उपासित करना चाहिए । इस आत्मा को साधना करके पाया गया है आत्मा का जो शुद्ध पूर्ण विकास, वह क्या आत्मा नहीं है? आत्मा ही तो है । जो साध्य है वह आत्मा है, जो साधन कर रहा है वह आत्मा है । यही ज्ञानघन आत्मा साधक है यही साध्य । आत्मा ही सिद्ध होता है । देखिये―यह एक निश्चयदृष्टि से कथन है । सो यहाँ अन्य की बात न आयेगी? करना क्या है? उपादानप्रधानदृष्टि से बात सुनना है । पाया क्या गया? यह आत्मतत्त्व, पूर्ण आत्मतत्त्व और पाया किसने? इस आत्मा ने । अपना यह ही आत्मा साध्य है और यह ही आत्मा साधन है, इस प्रकार साध्य और साधन इन भावों से इस आत्मा की उपासना की । अब किस प्रकार का साधन हुआ, किस तरह से उपासना करना चाहिए, आत्मतत्त्व की? तो शुद्धनय के आश्रय से भूतार्थ का आश्रय करना चाहिए । भूतार्थ का भाव क्या-? सब तरह समझ लेने के बाद अखंड आत्मतत्त्व का आश्रय लिया जिसमें गुणभेद पर्यायभेद से समझे तो सब, मगर जब गुणभेद भी न रहे, पर्यायभेद भी न रहे, मात्र जैसा यह आत्मा है, जैसा यह चैतन्यस्वरूप है, इसमें गुण गुणी का भी भेद न रहे, गुण का भेद न हो, पर्याय का भेद न हो, और जानें यह वस्तु ही पूरा, जो भूतार्थ से, परमशुद्धनिश्चयनय से जाना गया वह एक अखंड अंतस्तत्त्व उसकी दृष्टि में आता है, इसे कहते हैं भूतार्थ का आश्रय । इसे कहते हैं शुद्धनय का आश्रय । इसके अतिरिक्त जितने भी और समझाने के प्रकार हैं वे शुद्धनय नहीं हैं । शुद्धनय नहीं हैं तो क्या हैं? यदि किसी आत्मा की शुद्धपर्यायों का अभेद विधि से परिचय किया जा रहा है, यह आत्मा केवलज्ञानी है, यह आत्मा अनंत सुखी है तो वह कहलाया शुद्धनिश्चयनय । यह भी शुद्धनय याने अखंडनय नहीं । जहाँ यह दृष्टि बनाया कि यह जीव रागी है, द्वेषी है यह कहलाया अशुद्धनय, क्योंकि निमित्त पर ध्यान नहीं दिया, अखंड का ग्रहण नहीं हुआ । निमित्त का यहाँ अभी संबंध जोड़कर नहीं कहा, केवल एक द्रव्य को देखकर अशुद्ध की बात कह रहे हैं । अत: यह हुआ अशुद्धनिश्चयनय, फिर इसके आगे और बढ़े, व्यवहार में गुणों का भेद किया या गुण गुणी का भेद किया तो यह हुआ शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय । फिर आगे और पर्यायों का भेद किया, भेद विधि से जाना । जितने गुणभेद किये वैसे विभावों का ग्रहण हुआ तो हुआ असद्भूत व्यवहार और जहाँ पदार्थ कोई ही नहीं उन शब्दों में, मगर है प्रयोजन मात्र, तो उपचार हुआ । उपचार कब मिथ्या है कि उपचार जिस भाषा में कहा गया है उस भाषा में उपादान बुद्धि से देखा तो वह मिथ्या है । मगर उपचार प्रयोजन की बात कहे तो वह कहाँ झूठा है? जैसे किसी ने कहा घी का घड़ा, अब उसे कोई यों समझे कि जैसे मिट्टी, लोहा, ताँबा आदि के घड़े होते ऐसे ही घी का घड़ा, तो यह उपचार मिथ्या हो जायेगा, मगर उसका प्रयोजन जान लें कि जिसमें घी रखा है सो घी का घड़ा तो यहाँ उपचार में प्रयोजन झूठा तो नहीं है । प्रयोजन समझना चाहिए । ये नयों के प्रकार कहे, पर अनुभव के निकट शुद्धनय है, जिसका आश्रय करके अनुभव में उतरते हैं, सब नयों का परिचय पाकर, सब नयों से आगे बढ़ कर शुद्धनय के भावों में आकर आत्मानुभव में प्रवेश होता है ।
173―खंडनयों में स्वयं सहजभूत अर्थत्व का अभाव―शुद्धनय का विषय केवल एक अखंड आत्मतत्त्व है । इसके अतिरिक्त जो कुछ तत्त्व है शुद्धनय याने अखंडनय नहीं है । शुद्धनिश्चयनय अशुद्धनिश्चयनय, सद्भूत व्यवहारनय असद्भूत व्यवहारनय ये अखंडनय याने भूतार्थ नहीं । शुद्धनिश्चयनय क्यों भूतार्थ नहीं? यों नहीं कि वह खंड का ज्ञान करता है, वह परिणति का ज्ञान करता है । यहाँ यह नहीं कि अशुद्धनय मिथ्या है । अशुद्धनय के मायने पर्याय की बात कही, सो ऐसा गुजर ही रहा, असत्य कैसे, किंतु जो शुद्धनय नहीं है वे सभी अशुद्धनय कहलाते । अशुद्धनय भी ऐसे अनेक हैं जो सच्चाई की ओर ले जाने वाले हैं । जैसे दूध में देखो, अब दूध दो तरह का शुद्ध कहलाता । एक तो वह शुद्ध दूध जो त्यागी व्रतियों के लिए शुद्धविधि से दुहकर आये और एक शुद्ध दूध वह कहलाता कि जिसमें शुद्धविधि से दुहने की कोई बात नहीं, चाहे किसी ने भी कैसे भी दुहा हो, पर दूध केवल दूध हो, जिसमें पानी वगैरह दूसरी चीज का मिलावट न हो और उस दूध में से क्रीम आदि न निकाला हो वह शुद्ध दूध कहलाता । जब वस्तु की ओर से देखते हैं तो शुद्ध दूध का अर्थ है खालिस दूध जिसमें कोई दूसरी चीज नहीं मिली है । स्वयं वह परिपूर्ण है, तो यह हुआ वस्तु की ओर से शुद्ध दूध की बात । अब आत्मा की ओर से शुद्ध आत्मा की बात कह रहे कि जिस आत्मा में से न कुछ निकाला गया याने गुणभेद नहीं किया गया, न कुछ जोड़ा गया याने उपाधि व औपाधिक भावों को जोड़ा नहीं, ऐसा जोड़ तोड़ से रहित आत्मतत्त्व की बात जो दर्शाये उसे कहते हैं शुद्धनय, इसके अतिरिक्त जो नय हैं वे कुछ सत्य भी हैं कुछ मिथ्या भी । और कुछ सद᳭भूत कुछ असद᳭भूत । तो ऐसे शुद्धनय का आश्रय करके यह जीव एकदम अंतस्तत्त्व की ओर आता है अपने को ऐसी ही तो उपासना करना है । देखिये―ज्यादा कोई झंझट की बात नहीं । जिसे करना है उसके लिए रास्ता साफ है, जिसे नहीं करना है उसके लिए रास्ता ही साफ नहीं है । कभी-कभी ऐसा होता कि सही रास्ते पर तो खड़े हैं और मन ही मन कुछ ऐसा ख्याल बना लिया कि हम तो मार्ग भूल गए तो फिर उस मार्ग से लौट आते हैं । एक कल्पना में ही तो आ गया कि रास्ता भूल गए, भूले तो नहीं, पर उस भूल पर ही अधिक जोर दे दिया तो लौट भी आये, ऐसे ही आत्मा कहीं बाहर नहीं है । मार्ग अपने आपमें है, उसे निःसंशय पूर्ण निर्णय के साथ जानें । देखो एक बात और होती है । वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक होता है, गुण तो उस स्वभाव को समझाने के लिए एक दृष्टि से कथित है और पर्याय अनिवारित है, मगर पर्याय में जो भेद डाला―यह ज्ञान पर्याय, दर्शन पर्याय, चारित्र पर्याय वह भी भेददृष्टि से कथित है, पर वहाँ मूल में अखंड द्रव्य, अखंड पर्याय है । अखंड पर्याय के मायने एक समय की जो अवस्था हुई है । वह क्या? अगर उसे एक-एक भेद करके बताया जाये तो पूरी अवस्था जो एक समय में होती है वह बतायी नहीं जा सकती । भेद करके बतायेंगे तो खंड ही तो किया, वह पूरा पदार्थ नहीं आया । एक समय में वस्तु जिस रूप परिणम रहा है उसको बताने के लिए शब्द हैं क्या? जैसे द्रव्यस्वरूप अवक्तव्य है ऐसे ही पर्यायस्वरूप अवक्तव्य है । जैसे स्वभाव को भेदकर, गुणरूप से वचनगोचर बनाते हैं ऐसे ही एक समय के पर्याय को भेद करके हम वचनगोचर बनाते हैं ।
174―वस्तुधर्मों के विवरण का आधार द्रव्यदृष्टि व पर्यायदृष्टि―अर्थ में द्रव्यत्व व पर्याय होना अनिवारित है । इसी आधार पर जब वस्तु में द्रव्य और पर्याय ये दोनों अनिवारित हैं तो अपने आप जो कुछ भी उसमें बात कहेंगे, जानेंगे द्रव्यदृष्टि से व पर्यायदृष्टि से । जैसे प्रश्न आया कि जीव नित्य है या अनित्य ? उत्तर कैसा आया? द्रव्यदृष्टि से नित्य है, पर्यायदृष्टि से नित्य नहीं है । नित्य में नहीं न बोलकर आदि में ‘अ’ भी लगा सकते हैं नित्य नहीं है याने अनित्य है, अच्छा और कोई ऐसा कह बैठे कि जीव नित्य है, अनित्य नहीं हैं सो लो-है और न में जोर देने से स्याद्वाद बन गया । एक में है जोड़ दिया और एक में न, तो स्याद्वाद बन गया क्या? इस तरह स्याद्वाद नहीं बना क्योंकि उसमें दो धर्म कहाँ कहे गए हैं नित्य है अनित्य नहीं, ऐसा कहने में तो एक ही धर्म आया, एकांत ही रहा । ऐसा तो सांख्य भी कहते, वेदांत भी कहते, ऐसा तो ब्रह्माद्वैतवादी भी कहते । उनकी ही बात क्या, सभी यही कहते जो हमने कहा है सो सत्य है असत्य नहीं, इसके अतिरिक्त जो है वह असत्य है ऐसा तो सभी कहते हैं । वह स्याद्वाद नहीं है, वे है और न में फिदा है तो चलो यहाँ से भी आपत्ति हटाओ जो बौद्ध लोग कहते कि जीव अनित्य है, नित्य नहीं है बस मान लो स्याद्वाद हो गया । अगर ऐसा स्याद्वाद हो तब तो एकांतवाद कुछ रहता ही नहीं, क्योंकि एकांतवाद यह कहता कि जो हम कहें सो सो सत्य है, अन्य कुछ सत्य नहीं है, ऐसे ही नित्य है, अनित्य नहीं है, हर एक कोई अपना-अपना मंतव्य बताता है जो जिस स्वरूप की मान्यता लिए हुए है । तो जहाँ द्रव्यदृष्टि से बात आये और पर्याय दृष्टि से बात आये वह स्याद्वाद है और वहाँ ही निर्णय होता है ।
175―आत्मा के साध्यसाधकभाव का विश्लेषण―साध्य कौन है? यह पूर्ण आत्मद्रव्य, मगर जब साध्य कहा तो पर्यायनय से साधन कहना पड़ेगा, नहीं तो साध्य नहीं समझ सकते । अगर पर्यायनय की बात साध्य में न हो तो अंतस्तत्त्व तो अनादिकाल से है ही, फिर साध्य की क्या जरूरत? ज्ञानघन आत्मा अनादिकाल से है । कभी से इसकी सत्ता बनी हो ऐसा नहीं है । फिर साध्य की क्या जरूरत? जब साध्य देखते हैं तो पर्यायनय से विचार करें, जो अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद, अनंत शक्तिमय आत्मा है, वह ज्ञानमय आत्मा साध्य है और साधन क्या? साधक में भी पर्यायनय की दृष्टि रखनी होगी, उससे निर्णय करना होगा । पर्यायनय का या पर्यायदृष्टि का अर्थ यहाँ यह नहीं है कि पर्याय को आत्मा मानें, लोग कहते हैं कि पर्यायदृष्टि करना बुरा, अरे पर्यायदृष्टि से पर्याय को पर्याय जानना यह बुरा है क्या? परंतु पर्याय को ही द्रव्य सर्वस्व माने, आत्मसर्वस्व माने वह मिथ्यात्व है, अन्यथा कुछ निर्णय ही नहीं बन सकता । अब जरा पर्याय अवस्था से देखना होगा कि साधक कौन? जो अनादि अनंत अहेतुक अंतस्तत्त्व विज्ञानघन की उपासना करने की परिणति है बस ऐसी स्थिति वाला आत्मा साधक कहलाता है । साधक और साध्य ये दो भेद पर्यायविवक्षा से हैं । द्रव्यदृष्टि से वह एक ज्ञानघन है । साधक में भी वही द्रव्यदृष्टि का लक्ष्य है, साध्य में भी वही द्रव्यदृष्टि का लक्ष्य है, वहाँ तो अंतर नहीं, मगर साध्य साधन कहाँ? वहाँ उपासक आत्मा है साधक, आत्मा की ही पूर्ण अवस्था साध्य है । साधक का अर्थ है साधने वाला और साध्य का अर्थ हैं साधन किए जाने योग्य है, मायने वह सिद्ध हो जायेगा । इस प्रकार यह जो अंतस्तत्त्व याने स्वभाव जो स्वसमय में है, परसमय में है, सम्यग्दृष्टि में है, मिथ्यादृष्टि में है;सर्वत्र है, उसका जहाँ लक्ष्य है, आश्रय है वह स्वसमय है ।
176―ओघ कारणसमयसार व समुचित कारणसमयसार―कारणसमयसार को दो प्रकार से देखना होगा―द्रव्यदृष्टि से और पर्यायदृष्टि से । पर्यायदृष्टि से कारणसमयसार है, क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती जीव । वह है कारणसमयसार । उसके अनंतर कार्य समयसार होता है । द्रव्यदृष्टि से, उपादान दृष्टि से कारणसमयसार का निर्णय करने के लिये वहाँ उपादान दो रूप में परखें, ओघ और समुचित । ओघ दृष्टि से देखने पर कारणसमयसार क्या हुआ? वह अनादि अनंत एकस्वरूप अंतस्तत्त्व वह है, कारणसमयसार । अब देखिये―इन बातों से कैसे काम पड़ता? कुम्हार घड़ा बनाना चाहता है तो घड़ा बनाने के लिए वह मिट्टी ही क्यों लाता? कोयला क्यों नहीं लाता? वह जानता है कि मिट्टी में ही यह खासियत है कि उस पर प्रयोग करे तो घड़ा बन जायेगा । तो सामान्य मिट्टी ओघ उपादान है और समुचित कारण है चाक पर सजी पिंडरूप मिट्टी । जैसे-अरहंत होने का कारण है 12वाँ गुणस्थान । यद्यपि घट का कारण नहीं है छर्रा मिट्टी, घट का कारण है जिस पिंडरूप अवस्था के बाद तुरंत घट पर्याय कुछ बनता है लेकिन वह मिट्टी ही से तो बनता है अन्य से तो नहीं, इसी कारण कुम्हार मिट्टी ही लाता अन्य कुछ इकट्ठा नहीं करता । तो मिट्टी को ही समझिये कि यह तो ओघ उपादान है व एक है समुचित कारण । जब निरपेक्ष साध्य अवस्था होती है जीव की तो अंदर में वहाँ-किसकी साधना बनती है? अंदर में वह द्रव्यदृष्टि से जो समझा गया कारण समयसार है उसकी दृष्टि बनाते हैं और साधन के लिए वे परिणति को लक्ष्य में नहीं लेते । समुचित कारणसमयसार 12वें गुणस्थानवर्ती जीव की परिणति है, पर वह परिणति इस साधक का लक्ष्य नहीं है वह तो एक फल प्राप्त हुआ है । साधक का लक्ष्य है ओघ कारणसमयसार, ऐसा स्वभाव जो अभेद है, जो एक लक्षण द्वारा लक्षित है, वह द्रव्य दृष्टि से ही लक्ष्य में आता है ।
177―रत्नत्रयात्मक आत्मा में साध्यसाधकरूपता का दर्शन―यह प्रकरण चल रहा है कि आत्मा को आत्मा की उपासना करना चाहिए याने साधक भी आत्मा और साध्य भी आत्मा । तो कैसे आत्मा की उपासना करना चाहिए? तो बताया गया था अखंडित, अनाकुल, अभेदरूप एक शाश्वत चैतन्यस्वभाव रूप में आत्मा की उपासना करना । इसी बात को कोई न समझ सके, क्योंकि संक्षिप्त भाषा है, तो इसका कुछ विस्तार होना चाहिए । किस तरह से आत्मा की उपासना करें? तो उसका भेदरूप कथन है कि साधक को दर्शनज्ञानचारित्र की उपासना करना चाहिए । अर्थात् आत्मा सहजचैतन्यस्वरूप यह मैं हूँ, यह मैं हूँ इसके आश्रय में कल्याण है इस प्रकार का श्रद्धान और यही ज्ञान, यहाँ एक ध्यान के प्रसंग की बात चल रही है और इस ही में रमण, ऐसा ही ज्ञाता द्रष्टा रहना, यह हुआ चारित्र । ज्ञाता-द्रष्टा रहना, इस प्रकार को निरंतर बना रहने का नाम चारित्र कहा । यह निश्चय चारित्र की बात है । तो आत्मा तो अपने इस तरह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीनोंमय ही है, कुछ अलग चीज नहीं है । जैसे कोई पुरुष श्रद्धा कर रहा, ज्ञान कर रहा, रम रह । और बातें लगाता जीव तो वह पुरुष से अलग तो नहीं, उस पुरुष की ही स्थिति है इस आत्मा का सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्ररूप । वह इस तरह तीन रूप से एकता को प्राप्त है । यह प्रमाणदृष्टि से व भेददृष्टि से बोध किया जा रहा है । इस तरह आत्मा की उपासना के लिए हमारी तैयारी क्या होनी चाहिए? नयों से परिचय व प्रमाण से परिचय करना । उसका फल यह होगा कि नय और प्रमाण से अतीत जो एक अवक्तव्य तत्त्व है उसका उसमें प्रवेश होगा ।
178―आत्मा की उपासना के अर्थी का प्रथम कर्तव्य नय व प्रमाण से परिचय करना―भैया नयों के परिचय से व प्रमाण के परिचय से हमें वस्तु का सही बोध होगा । तो पहले सिद्धांत प्रधान नयों का परिचय बनावें । नय 7 प्रकार के हैं―नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढ़नय व एवंभूतनय । ये उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं । इनको किस तरह संक्षेप में समझे? नैगमनय का विषय है अभेद में भेद, भेद में अभेद । संग्रहनय का विषय हैं अभेद । व्यवहारनय का विषय है भेद । यहाँ व्यवहारनय का विषय मात्र पर्याय नहीं । यह कालदृष्टि से कथन नहीं हैं, क्योंकि ये तीन नय द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं । ऋजुसूत्रनय पर्यायार्थिक नय का भेद है इसका विषय है वर्तमान पर्याय । इसके बाद और सूक्ष्म विषय पर चलें । तो इससे और सूक्ष्म चलेंगे तो अब पदार्थ से संबंध न रहेगा, क्योंकि पदार्थ के बारे में सूक्ष्म से सूक्ष्म बात बतायी गई ऋजुसूत्रनय के विषय में । इसके बाद अब पदार्थ की बात नहीं है । इसी कारण पहले चार को कहा है अर्थनय । इसके बाद और सूक्ष्म चलेंगे, जानेंगे तो ये सब शब्दनय हैं । इस तरह अनेक शब्दों से उस एक बात को जाना था, यह बात ऋजुसूत्रनय तक रही है । अब जितने शब्द हैं उतने ही अर्थ होते हैं । पदार्थ याने उसका अर्थ और उसका भाव । उनमें में और सूक्ष्म क्या, अनेक शब्दों से उस तत्त्व को न बोलें किंतु उनमें भी योग्य नियत शब्द रह जाते हैं, उनसे परिचय करना यह हुआ और सूक्ष्म परिचय, शब्दनय से । अच्छा इससे और सूक्ष्म क्या कहा जायेगा? शब्द का भी भेद कर दिया । तो इससे सूक्ष्म यह बात आयेगी कि एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, उनमें से एक अर्थ को प्रधान करें, यह उसमें सूक्ष्म हो गया । यही कहलाया समभिरूढनय उससे सूक्ष्म क्या होगा? उस शब्द द्वारा अनेक अर्थ में से एक अर्थ को जाना, मगर उस अर्थ को उस स्थिति में जाना कि जो शब्द में अर्थक्रिया बसी उस क्रिया में परिणत हुए की स्थिति में जाना । बस यही हुआ एवंभूतनय । इस तरह ये 7 नय, इनका विस्तार, नयों के वर्णन की पद्धति से अभिप्राय से जुदा-जुदा भी उतरने लगेगा । इसलिए नय के बारे में बहुत कुशलता होनी चाहिये । देखो नयों के परिवर्तन में, जो निश्चयनय ने कहा वह व्यवहारनय बन गया, जो व्यवहारनय ने कहा वह निश्चयनय बन गया । नयों से कोई पूर्ण परिचित न हो तो उसमें कुछ अजानकार जैसा, कुछ किंकर्तव्यविमूढ़ जैसा दिखता रहेगा । क्या हो गया, अभी यह था, अब यह हो गया, इतनी भी अटक न रहे, इतना नयों के परिचय में उतरना चाहिए । दूसरी विधि से देखो द्रव्यार्थिकनय, पर्यायार्थिकनय । द्रव्यार्थिकनय में नय तीन आये, पर्यायार्थिकनय में चार आये । उसका प्रयोजन क्या है? द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है सो द्रव्यार्थिकनय है पर्याय ही जिसका प्रयोजन है सो पर्यायार्थिकनय । अच्छा और विधि से देखो―निश्चयनय व व्यवहारदृष्टि से देखो―निश्चयनय के दो भेद हैं―द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । व्यवहार में ज्ञेय आता है सद्भूत असद्भूत व्यवहार आदि । निश्चयनय के द्रव्यार्थिक के दस भेद हैं । निश्चयनय के पर्यायार्थिक के 6 भेद हैं यों 16 भेदों में निश्चयनय आया और व्यवहारनय उपचार व अनुपचार में सद्भूत व असद्भूत आया ।
179―अध्यात्मपद्धति से नयों द्वारा आत्मा का परिचय―अच्छा, अब अध्यात्मपद्धति से देखें―तो मूल में दो भेद हैं―निश्चयनय, व्यवहारनय । यहाँ निश्चयनय की विधि यह है कि अभेद निरखो जहाँ एक द्रव्य में एक को ही निरखने का भाव है उसे कहते हैं निश्चयनय और जहाँ भेद विधि से निरखने की बात है वह हो जाता है व्यवहारनय । जैसे निश्चयनय में परमशुद्ध निश्चयनय यह एक सिरताज नय है, जहाँ आत्मा को अखंडरूप से निरखा, एक स्वभावरूप निरखा, अनादि अनंत अहेतुक, वह है परमशुद्ध निश्चयनय का विषय और जब किसी एक आत्मा को पर्यायरूप में देखा मगर उसमें भेद लगाकर नहीं, निमित्त दृष्टि करके नहीं, किंतु यों ही देखा कि जीव रागरूप परिणम रहा है, जीव केवलज्ञानरूप परिणम रहा है । तो शुद्ध पर्याय को अभेद विधि में निरखा तो वह कहलायेगा शुद्धनिश्चयनय तथा अशुद्ध पर्याय को अभेदविधि से देखा तो यह कहलायेगा अशुद्ध निश्चयनय । और जहाँ भेद आता है, जैसे कर्मोंदय का निमित्त पाकर जीव को सुख होता है, यह बात असत्य तो नहीं है? ऐसा, होता है, जैसे रोटी सिक गई, तो रोटी यों ही थोड़े ही सिक गई, अग्नि का सन्निधान मिलने से रोटी सिकी, यों दो द्रव्यों के संबंध की बात आती है । वह व्यवहारनय है । इसी तरह कर्म में और जीव में बंधन है यों दो बातें कही जा रही हैं व्यवहार में । इसके अतिरिक्त और भी, जैसे कि जीव में ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, आनंद है, यह भी व्यवहारनय हो गया, क्योंकि भेदविधि से कथन है । यह बात जब अभेदविधि से कही जा रही है तो शुद्धनिश्चयनय, जब भेदविधि से कहा गया तो बन गया व्यवहार । सब अपने-अपने प्रयोजन और अभिप्राय को लेकर नयों की बात कही है । अभी कहा जा रहा था कि कर्मोदय का निमित्त पाकर जीव रागरूप परिणमता है, यह बना व्यवहारनय । इसके मुकाबले में जीव रागी है, यह बन गया निश्चयनय । तब एक अंतर्दृष्टि और जगती है कि जीव चैतन्यस्वभाव मात्र है तो वह हो गया निश्चयनय, तब जीव रागी है यह हो गया व्यवहारनय । मुकाबले दो होते हैं । उनसे भी परिवर्तन चलता है । उत्तर-उत्तर अंतर्दृष्टि मिले तो पहले-पहले का निश्चय व्यवहार होता है । अब इस अध्यात्मविधि में आखिर कहाँ तक पहुँचना है? शुद्धनय तक, परमशुद्धनिश्चयनय तक । शुद्धनय व शुद्ध अशुद्धनिश्चयनय में फर्क क्या है कि शुद्ध अशुद्ध निश्चयनय में तो एक खंड किया गया है अभेद रूप से और शुद्धनय जिसे कहो भूतार्थ जिसे कहो परमशुद्ध निश्चयनय वहाँ केवल एक अखंड तत्त्व दृष्टि में है, इसके समक्ष अन्य सब अभूतार्थ हैं । हमारा व्यवहार,हमारा निश्चयनय और इसे भी छोड़कर परमार्थ की स्थिति, बस यह हमारे लिए एक मार्ग है । अंत में आखिर क्या करना है जिससे जीवन सफल हो? बस आत्मश्रद्धान, आत्मज्ञान, आत्मरमण और उसके लिए तैयारी करनी है? तो सब तरह का परिचय करना है, मानो कोई करणानुयोग की विधि से परिचय नहीं करता कि जीव की क्या-क्या मार्गणायें हैं, जीव के क्या-क्या गुणस्थान हैं? तो उसके लिए स्पष्ट नहीं हो पाती अंदर की भी बात ।
180―द्रव्य गुण पर्याय आदि विविध परिचय से प्रायोजनिक उपादेय तत्त्व का दृढ़ अवधारण―बहुत परिचय के बाद हमको प्रयोजनभूत वस्तु का सही परिचय मिलता है । एक कथानक है कि एक पुरुष जो कल्याण का इच्छुक था वह जंगल में एक संन्यासी के पास पहुंचा, बोला―महाराज हमें कुछ ब्रह्मज्ञान का उपदेश दीजिए । तो संन्यासी ने कहा―अहं ब्रह्मास्मि याने मैं ब्रह्म स्वरूप हूँ । महाराज कुछ और समझाइये । देखो अधिक समझना हो तो पास के इस गांव में ही एक वृद्ध ब्राह्मण रहते हैं वह तुम्हें समझायेंगे, उनके पास चले जाओ । वह गया उस वृद्ध ब्राह्मण के पास । कहा-महाराज हम ब्रह्मज्ञान करना चाहते हैं आप हमें सिखा दो । तो उसने देखा कि घर में कोई काम हो तो इसे सौंप दें, यह काम कर लिया करेगा और इसे पढ़ा भी देंगे । देखा कि घर में गोशाला का मैल मूत्र साफ करने का काम रोज-रोज रहता है सो यह उस काम को कर दिया करेगा और हम इसे पढ़ा देंगे । तो कहा ब्राह्मण ने देखो―हमारे यहाँ की गोशाला रोज साफ करनी होगी और हम तुम्हें पढ़ा देंगे । वह खुश हुआ और पढ़ने लगा । 12 वर्ष तक उसका यही काम चलता रहा । गोशाला साफ करना और पढ़ना । जब पढ़ाई पूरी हुई तो उस शिष्य ने कहा―पंडितजी अब आप विदा होते समय हमें अंतिम सार रूप में शिक्षा दीजिए । तो वह ब्राह्मण बोला―अहं ब्रह्मास्मि । तो शिष्य बोला―अरे इतनी बात तो 12 वर्ष पहले संन्यासी ने भी मुझे बताया था, क्या 12 वर्ष व्यर्थ ही गोबर उठाया? तो वह वृद्ध पंडित बोला―तुमने 12 वर्ष व्यर्थ गोबर नहीं उठाया । तुम स्वयं ही समझ रहे होगे कि 12 वर्ष पूर्व तुम क्या जानते थे और अब क्या जानते हो । तो इस आत्मतत्त्व के परिचय के लिए हमें किसी आचार्य की कृति को गुरुजनों के मुख से पढ़ना सीखना चाहिए । जब तक गुरुमुख से विद्याभ्यास नहीं किया जायेगा तब तक आत्मज्ञान का वैशद्य नहीं होता । इन सारे ग्रंथों में कोई प्रवेश पाये तो वह समझेगा कि इन ग्रंथों में क्या-क्या रत्न भरे हैं । श्रीकुंदकुंदाचार्य, जयसेन, अमृतचंद्राचार्य आदि बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान हुए । षट्खंडागम, जयधवल महाधवल आदि बड़ी-बड़ी आचार्यों की कृतियाँ है । जब इन्हें श्रद्धाभक्ति से पढ़ते हैं तो तत्त्वज्ञान मिलता है, आत्मबोध मिलता है । सर्वज्ञदेव की सर्वज्ञता की श्रद्धा होती है और फिर परिचय मिलता है । कितना स्पष्ट बोध होता है । कर्म की दशा कर्म में चलती, जीव में नहीं आती । पर यह स्पष्ट होता जा रहा कि ऐसे-ऐसे कर्मबंधन चले, इसका सन्निधान पाकर जीव इस प्रकार से अपने में परिणमन कर रहा । परिणमन इस प्रकार का है । अगर निमित्त नैमित्तिक भाव इस प्रकार न हो तब फिर निमित्त की चर्चा क्या करना?
181―वस्तुस्वातंत्र्य व निमित्तनैमित्तिकभाव के परिचय द्वारा विभाव से हटकर स्वभाव में लगाने का अवसर―देखो दो बातें―वस्तुस्वातंत्र्य और निमित्तनैमित्तिक,भाव अपनेपर दया करके यह बात अपने को समझना है कि हम को चाहिए क्या? यही तो चाहिये कि हम विभावों से हटकर स्वभाव में आयें । इसमें प्रयोजन तो इतना ही है, क्योंकि विभाव को लेकर हम अब तक संसार में चले आ रहे हैं । पदार्थ में कोई लगा नहीं अब तक । पदार्थों में लगने की बात तो उपचार से है । मायने पदार्थ में कोई जीव लग कैसे सकेगा? सत्ता उसकी न्यारी है, सत्ता इसकी न्यारी है । अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से सत् है । कोई जीव किसी परपदार्थ में नहीं लगा अब तक, किंतु परद्रव्यों का आश्रय करके और कर्मोदय का निमित्त पाकर यह जीव अपने विभावों में बसा, विभावों में ही लगा । कषायों को आत्मस्वरूप मानता रहा कि यह मैं हूँ, तब ही तो कभी क्रोध आता है और कभी मान, माया, लोभ होता है । जब इन कषायों रूप यह जीव परिणमता है तो इन रूप अपने को मान लेता है । तो कर्तव्य यह है कि इन विभावों से हटकर स्वभाव में आयें, जिसके लिए आचार्य कुंदकुंदाचार्य ने दो बातें बतायीं―वस्तुस्वातंत्र्य और निमित्तनैमित्तिकभाव । वस्तुस्वातंत्र्य निरखते जाओ, प्रत्येक द्रव्य अपने आप से सत् है । अपने आपमें अपना सर्वस्व लिए है, अपने आपमें अपना परिणमन कर रहे हैं । जो परिणति होती है वह किसी दूसरे की परिणति लेकर नहीं हो रही । ऐसा वस्तु का स्वातंत्र्य है । इस दृष्टि से हमें क्या लाभ है? जो पर पदार्थ के प्रति कर्तृत्वबुद्धि लग रही थी वह अज्ञान नष्ट हो जाता है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं होता, यही बात सबमें लगा―लो । कर्म भी एक भिन्न द्रव्य है, जीव भी एक भिन्न द्रव्य है, तो कर्म जीव का राग नहीं करता है, यह बात समझ में आये । क्योंकि यदि हम यह बात नहीं समझ पाते और यह ही हमारी दृष्टि में रहता कि कर्म जीव में राग कराता है तो अब हम कर ही क्या सकते हैं? कर्म तो अपना कुल बढ़ायेंगे । वे स्वतंत्र हैं, उनमें ऐश्वर्य है । फिर हम कैसे विभाव से छुटकारा पा सकेंगे । एक ऐसे रास्ते का अनुभव बने, जिसमें हम विभावविविक्त विशुद्ध चित्स्वभाव में मग्न हो । एतदर्थ ऐसा वस्तुस्वरूप का प्रकाश देकर आचार्य देव ने हम को उत्साहित किया और साहस बंधाया और अपने एक द्रव्य के निरखने में मदद दी । अच्छा यह बात तो हुई, मगर जब एक यह प्रश्न आता है तो क्या जीव में स्वरूप के कारण किसी दूसरे की छाया बिना, उपाधि बिना, संबंध बिना क्या जीव में इसी तरह सहज विकार होता है? अगर होता है तो भी राग नहीं मिट सकता, क्योंकि वह स्वभाव बन जायेगा, तो फिर निमित्त भाव का अर्थात् उस-उस प्रकार का कर्मानुभाग उदयरूप होता है, उसका सन्निधान पाकर यह जीव अपनी परिणति से राग परिणति करता है । इसका परिचय विकार से उपयोग को हटा देता है । श्री कुंदकुंदाचार्य ने जीवाजीवाधिकार में बताया ही है कि रागद्वेष ये सब अजीव हैं, क्योंकि पुद्गल कर्म से निष्पन्न विकार मेरा स्वभाव नहीं, नैमित्तिक भाव है औपाधिक भाव है । यों वस्तु स्वातंत्र्य व निमित्तनैमित्तिक भाव के परिचय से हम विभाव से हटकर स्वभाव में लग सकते हैं ।