वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 165
From जैनकोष
लोक: कर्मततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पंदात्मकं कर्म तत्
तान्यस्मिन्करणानि संतु चिदचिद्व्यापादनं चास्तु तत् ।
रागादीनुपयोगभूमिमनयन् ज्ञानं भवन्केवलं
बंधं नैव कुतोऽप्युपैत्ययमहो सम्यग्दृगात्मा ध्रुवम् ॥165॥
1307- परपदार्थप्रसंगों के बंधहेतुत्व के प्रतिपादन का समर्थन-
इससे पहले के कलश में यह बात आयी थी कि कर्मों से भरा हुआ यह जगत बंध का कारण नहीं। चलनात्मक यह योग कर्मबंध का कारण नहीं, अनेक प्रकार के ये बाह्य साधन इंद्रिय आदिक ये बंध के कारण नहीं। चेतन-अचेतन का विघात, विग्रह होना यह बंध का कारण नहीं क्योंकि बंध का कारण तो इनसे अन्य है, रागादिक भावों के साथ उपयोग –भूमि का एकमेक बनना, जुड़़ना, भ्रम होना यह बंध का कारण है। इस बात को दृष्टांतपूर्वक भी बताया गया था। यद्यपि ऐसा जानकर स्वच्छंद न बनना कि वध किसी बंध का कारण है। दूसरे का दिल दु:खाना बंध का कारण नहीं बताया। अरे ! तो बंध का कारण रागादिक भाव तो बताया, उसके अंदर आपकी लगन है या नहीं, यह बात तो देखो। तो स्वच्छंदता के लिये इस कथन का उपयोग न करना किंतु वास्तविकता से देखना और जब-जब भी हिंसा में बंध, झूठ में बंध, चोरी में बंध, तो वह बंध जो हुआ है तो भीतर में विकारभाव आया उस कारण से बंध हुआ, हाथ उठाने-धरने से बंध नहीं होता। जो उमंग रख करके, भाव रख करके जान-जानकर हिंसा, झूठ, चोरी कर रहा तो भीतर में जो उसका दुर्भाव है तत्कृत बंध है, यह बात यहाँ बतायी जा रही है।
1308- विकारों को उपयोगभूमि में न ले जाते हुए के कर्मबंध का अभाव-
अब प्रतिलोमविधि से बंधहेतुता के ही समर्थन में यह कलश आया है। तब फिर क्या निर्णय? संसार रहा आये तो रहा आवो। कार्माण वर्गणाओं से भरा हुआ जगत रहा आये तो रहा आवो, बंध का कारण तो यह है नहीं। जगत जैसे भरा-बना है तो बना रहने दो, उसके ज्ञाता रहो, जाननहार रहो कि है ऐसा। बंध तो उसका कारण नहीं ना? बंध तो तब है जब रागादिक भावों के साथ ये विकार जुटे, एकमेक बने, यह जीव तन्मय अपने को मानने लगे, वहाँ है यह संसार का बंध। जहाँ-जहाँ बंध की बात आये, अध्यात्मशास्त्रों में वहाँ-वहाँ प्राय: मिथ्यात्व और अनंतानुबंधीकृत बंध नहीं होता, यह अर्थ लेना चाहिए और बुद्धिपूर्वक हमारा यह ही पौरुष है और इस तरह अपने को आत्मा से जुटाना है, यह बात तो बोल रहे ताकि चित्त में खुद को या दूसरे को कोई विवाद की बात न आये। क्योंकि धर्मसाधना होती है तो निर्विवाद, नि:शल्य रहकर। अपने लिए बाहर में मेरे विचार की अनुकूलता ही बने और ऐसा ही दूसरा माने, इस प्रकार का हठ न हो, बस ज्ञाता रहें, जैसा हो सो ठीक है, ऐसी कोई साधारण स्थिति बने खुद की तो वहाँ स्वानुभव का एक मार्ग मिलता है और इस असार संसार में अपने को करना ही क्या है? कितने दिनों की जिंदगी? बहुत-सी आयु पार हो गई। रहा-सहा थोड़ा सा समय है तो उस समय ये केवल आत्महित की भावना रखते हुए तत्त्व का रुचिया होना चाहिए। हाँ बात यह कही जा रही है कि बंध किस वजह से है? जो बंध संसार संकटों का जनक है, जन्ममरण की परंपरा बढ़ाने वाला है उस ही बंध से तो निवृत्त होना है और विधिपूर्वक जिस बंध से हम निवृत्त हो सकते हैं उस ही का तो जिक्र और उस ही का तो प्रयोग है। यद्यपि यह ही प्रयोग अबुद्धिपूर्वक बंध को दूर करने का कारण है, तो भी एक पौरुष जो चला प्रथम प्रथम वह बुद्धिपूर्वक रागद्वेष को दूर करने के लिए चलता है।
1309- कर्मवर्गणापूरित लोक में तथा चलनात्मक कर्म में कर्मबंधहेतुत्व का अघटन-
हे सिद्ध प्रभो !क्या फिक्र है, बना रहने दो, कामार्ण वर्गणा से भरा हुआ क्षेत्र। सिद्ध प्रभु की कुछ भी खराबी नहीं है। जैसे लोक में कहते ना बस शंका ही नहीं। यदि कर्मभरा लोक बंधहेतु होता तो सिद्धों के बंध क्यों नहीं? वे अपने स्वरूप में विराजे हैं। वहाँ किसी भी प्रकार का निमित्तनैमित्तिक योग नहीं बन पाता है। विशुद्धि हुई, निर्विकार हुए, सदा के लिए मुक्त हो गए। रहा आये वही चलनात्मक योग वह भी बंधहेतु नहीं। अरहंत के योग है, पर बंध नहीं। देखो जब किसी बड़े पुरुष के अंदर उदारता, विशुद्धि, निर्मलता की बात समझ में आती है, जो कि एक खास बात है, और ऊपरी कोई बात जो किसी लोक में भी हो सकती है, हो भी जाये तो भी उसके गुणों की भक्ति में ऐसी अंत:आवाज उठती है कि हो ऐसा, मगर आप तो आप ही हैं। प्रभु अरहंत के विहार होता, दिव्य ध्वनि खिरती, किंतु वह बंध कारण नहीं है। आपके जो वीतरागता प्रकट हुई है, जिसके फलस्वरूप सर्वज्ञता प्रकट हुई है वह एक ऐसा प्रसाद है कि जिस प्रसाद पर जिसकी दृष्टि जाय उसको प्रसाद मिल जाता है। तो चलनात्मक कर्म रहते हैं तो रहें, तत्कृत बंध नहीं हुआ करता।
1310- अनेक करणों में कर्मबंधहेतुत्व का अघटन-
यह करण, यह साधन, यह बाहरी संग प्रसंग यह भी बंधहेतु नहीं। समवशरण की अद्भुत रचना के बीच अरहंत हैं उनका बंध नहीं। समवशरण, अरहंत प्रभु जहाँ विराजे हैं ना, तो वीतरागता तो वीतरागता में ही है, मगर रागी इंद्रदेव भक्ति में क्या करें? देवों के प्रयत्न से समवशरण बनता है। किस प्रकार बनता समवशरण? कोई चीज बनती क्या? कहाँ बनती? समवशरण जमीन से करीब 5 हजार धनुष ऊपर बनता है। इंद्र ने ऐसा क्यों सोचा?वहाँ क्यों बनाया? तो आप ही बताओ कहाँ बनावें? अगर किसी नगर के पास या किसी गाँव के पास बनायें तो उतनी बड़ी जगह में कितने ही गाँव पड़ते है? उतना बड़ा मैदान कहाँ से आये? बारहकोश का मैदान। आकाश में बहुत बड़ा समवशरण बनाया। अहमदाबाद में एक भाई कह रहे थे कि यहाँ तो जमीन बहुत महँगी है, कोई 300) गज जमीन बिक रही पर आसमान के लिए एक धेला भी नहीं लगता। चाहे जितने खंड का मकान ऊपर बनाते चले जावो। तो आसमान सस्ता हुआ ना इस मामले में। इसी से समवशरण की रचना देवगण आसमान में करते। अब लोग वहाँ पहुँचे कैसे? तो नीचे से सीढ़ियों की रचना बनाते। सीढ़ियों के लिए तो सब जगह स्थान मिल जाता है। उसके ऊपर समवशरण की कैसी अद्भुत रचना, कितना श्रृंगार, कितनी विशिष्ट शोभा। आप उसका अगर नक्शा देखें तो उससे ही प्रभावित हो जायें। कितनी कैसी वेदिकायें, कैसी भीतर रचना, फूलवाड़ी, तालाब, चैत्यालय, कल्पवृक्ष, कैसी-कैसी रचनायें, फिर स्फटिक मणि का कोट बनाकर वहाँ बारह सभायें हुई। प्रभु चारों ओर देखते हैं सबको, क्योंकि बहुत बड़ी सभा थी, गोल सभा थी। गोल-गोल सभा में बैठे श्रोता वक्ता को चारों ओरसे देखें तब सभा का आनंद आये। प्रभु की धर्मसभा ऐसी थी किप्रभु का मुख चारों ओर से दिखता था। ऐसा ही कुछ अतिशय था। वह इंद्र की क्रिया है, इंद्र की कलायें हैं। मनुष्य भी थोड़ा-थोड़ा ऐसा बना सकते। उस समवशरण को रचा कैसे गया? कुछ लोग तो यह कहते कि देवों ने विक्रिया से बनाया तो वह देवों की विक्रिया वाला शरीर कहलायेगा, और एक कोई पुराने अच्छे पंडित थे उन्होंने बताया कि देवों में ऐसी कला है, इतनी बड़ी कारीगरी है कि किसी भी स्कंध को अंतर्मुहूर्त में इस प्रकार से बढ़ाकर, घटाकर, सजाकर तैयार कर सकते हैं। अब आप यह सोचिये कि इतने अद्भुत समवशरण की रचना जिसमें विराजमान अरहंत प्रभु हैं। अगर कोई यों देखने लगें कि यह कैसे घर में रहते हैं, ये बाबू साहब या सेठ जी, ये बड़े आदमी हैं, ये बड़े धर्मात्मा भी हों, इनके बंध कैसे नहीं है? तो फिर वे प्रभु को भी तो देखें। भैया ! प्रभु के इस प्रकार की बात नहीं होती। प्रभु का ध्यान समवशरण में स्थित किसी भी चीज में नहीं होता। क्योंकि परपदार्थ का लगाव ही कर्मबंधन का कारण है। ये बाह्यसाधन यहाँ रहें तो, न रहें तो, इनसे यदि लगाव है तो कर्मबंधन है और यदि लगाव नहीं है तो कर्मबंधन नहीं है। आप लोग अपने-अपने घरों में बड़े-बड़े आराम के साधन रखते, पर उनके प्रति लगाव है तो बंधन है और यदि लगाव नहीं तो बंधन नहीं। कोई भी चीज हो अगर उसके प्रति लगाव है, प्रीति है, आसक्तिबुद्धि है तो वह बुद्धिपूर्वक कर्मबंधन कर रहा और यदि उसके प्रति लगाव नहीं, आसक्ति नहीं तो वहाँ कर्मबंध नहीं। जो बुद्धिपूर्वक ये सब कर रहा तो उसने ऐब रख ही लिया फिर क्यों न बंध हो? यह बात चल रही है एक सीधी-सीधी उस ही वस्तु से।
1311- व्यापादन में कर्मबंधहेतुत्त्व का अघटन-
अच्छा, चेतन-अचेतन पदार्थों का पीड़न विघात होता है तो यह किसके लिए बात कही जा रही है? जो रागादिक भावों में उपयोग की एकता नहीं कर रहा और अपने को ज्ञानमय ही देख रहा है, ऐसे साधुसंत महात्मा की बात कही गई है, मगर कदाचित् अबुद्धिपूर्वक ही तो होगा सो चेतन-अचेतन का व्यापादन है तो हो, पर जो पुरुष रागादिक भावों को उपयोगभूमि में नहीं ला रहा है, अपने आत्मा में उसे तन्मय नहीं मान रहा, रागमय अपने को नहीं बना रहा उस पुरुष की बात कह रहे। वह ज्ञानरूप होता हुआ बंध को प्राप्त नहीं होता। अपने-अपने उपयोग के विशुद्ध करने की दया जरूर लाना चाहिए। मेरे परिणामों में विशुद्धि जगे। स्वभावाश्रय करने की मेरे में प्रकृति बने, कला बने, यही भावना हो और कुछ आकांक्षा नहीं हो। होती हैं बातें प्राक् पदवी में, कर्मविपाकवश चलती हैं सब, मगर जिसे कहते हैं प्रधान लक्ष्य, जीवन का एक उद्देश्य वह स्वरूपाश्रय ही हो। हमने बुद्धि पायी तो उस समस्त बुद्धि का प्रयोग वास्तव में कैसे किया जाना चाहिए, इसका निर्णय बस यही है? सो ज्ञानी में मुख्य रूप से जो होना उचित है सो होता ही है। तो एक ही प्रोग्राम मुख्य होना चाहिए कि इन विभावों से उपेक्षा होकर एक स्वभाव की ओर अभिमुखता रहे, और यह बात तब बनती है जब बाहर में इष्ट-अनिष्ट, शत्रु-मित्र,उपकारी-अपकारी की कल्पना न रहे, और जितने भी चैतन्यशक्तियों से अतिरिक्त भाव हैं वे सब भाव मेरे स्वरूप नहीं। मेरा स्वरूप तो एक चेतना, प्रतिभास है।
1312- स्याद्वादविमुखता के कारण द्रव्यदृष्टि के दर्शन की एकांतमतता-
देखिये, कल्याण की भावना पहले भी करने वाले अनेक हुए कि मेरे आत्मा का उद्धार हो और उसके लिए अनेकों ने बहुत ज्ञान वाला प्रयत्न भी किया। जैसे यही तो सुना कि आत्मा का स्वरूप अखंड, सीमारहित, असीम, व्यापक, एक मात्र यह ही तत्त्व है। बात तो बड़ी भली है, पर इसके एकांत में जो चला गया याने इस प्रतीति को तज दिया कि इसमें परिणति भी होती है, इसका बाह्य संपर्क भी है, अंदर पदार्थ भी है यों घटना चला करती। इन सब परिणामों के प्रसंग की बात का जिसने निषेध किया, बस वह ही तो बन गया एक अद्वैतवादी, सांख्यादिक जो एक विशुद्ध चैतन्य को ही सर्वप्रकार निरखते हैं। जब वस्तुसिद्धि की बात चलती है, द्रव्यसिद्धि की, तो वहाँ यह ही तो बात दृष्टि में आयगी कि सर्व से विविक्त, गुणपर्याय के भेद से भी परे मात्र एक अनादि अनंत स्वभाव, मगर यही जिसका सर्व पदार्थ बन गया, जिसके विकल्प में यह ही है और सब स्थितियों में कुछ है ही नहीं तो उनका एकांत हो गया। अद्वैत, सांख्य आदिक ने क्या गलती की? जो जैन सिद्धांत कहता है सो ही तो उन्होंने माना, कोई दूसरी बात तो नहीं मानी। जैन सिद्धांत भी तो यही बात कह रहा, अनादि, अनंत, अहेतुक, सीमारहित, निर्विकल्प, अखंड एक चिद्ब्रह्म ही तत्त्व है, यह ही वे कह रहे। मुख से दोनों की ही आवाज एक-सी चल रही मगर आशय के भेद से सम्यक् और मिथ्या का अंतर आ जाता है, स्याद्वादी के आशय में वस्तु का सब कुछ है, जाना सब कुछ, पर्याय दृष्टि से भी निर्णय पड़ा है और फिर द्रव्यदृष्टि की प्रधानता से कह रहे, मगर उन एकांतवादियों के पर्यायदृष्टि वाला निर्णय नहीं पड़ा, उन्हें वे पूर्ण एकांत बन गया, तो मिथ्यावाद हो गया। स्याद्वाद का आश्रय छोड़ने से मिथ्या हो जाता और स्याद्वाद का सहारा लेने से सम्यक हो जाता।
1313- स्याद्वादविमुखता के कारण पर्यायदृष्टि के दर्शन की एकांतमतता-
निरंशवादियों ने कौनसी त्रुटि की? जो स्याद्वादी जैन कहते हैं वही तो वे भी कह रहे हैं। स्याद्वादी जैन पर्यायार्थिकनय को दृष्टि से कहते हैं कि प्रति समय की पर्याय भिन्न-भिन्न है। एक का दूसरे से कुछ संबंध नहीं। भिन्न पर्याय ही तो नजर आ रही है, अन्वय तो नजर नहीं आ रहा। अन्वय नजर आये तो संबंध की बात कहो, संतान की बात कहो, पर जब केवल पर्यायदृष्टि का वर्णन है, प्रति समय में एक-एक पर्याय स्वतंत्र-स्वतंत्र है, उसका कोई कार्य-कारण नहीं, कोई भी उपादान-उपादेय नहीं, संतति नहीं, एक ही समय की पर्याय नजर आ रही है। कह रहे हैं ना स्याद्वादी वही तो बोद्ध कह रहे हैं, बस नाम भर बदल दिया। पर्याय की जगह पदार्थ नाम धर दिया। पदार्थ है प्रतिक्षण, एक क्षण को होता है, दूसरे क्षण नहीं रहता और वह पदार्थ अहेतुक है, विनश्वर है। अंतर क्या आया? अंतर यह आया कि स्याद्वादी ने कहा तो सब, पर उसकी दृष्टि में द्रव्यदृष्टि की भी प्रतीति साथ है। द्रव्यदृष्टि से वह वस्तु त्रैकालिक है, अविनाशी है, यह भी उसके साथ प्रतीति में है। तो उसकी पर्यायदृष्टि का यह कथन सम्यक् है, पर क्षणिकवादियों की दृष्टि में द्रव्यदृष्टि की बात असत्य है, कपोल-कल्पित है, सम्वृत्ति है, असत्य हैं याने केवल व्यवहार में लोग कहते हैं कि वही आत्मा है जो सुबह था इसलिए मान लेते हैं, कह लेते हैं, पर आत्मा या कोई भी पदार्थ एक समय को ही होता है, दूसरे समय ठहरता ही नहीं है। तो स्याद्वाद का विरोध रखकर उस पर्याय दृष्टि का एकांत किया, लो वह मिथ्या हो गया।
1314- आत्महितोपयोगी शासन की उपलब्धि का सदुपयोग करने की प्रेरणा-
यहाँ ऐसा एक शासन मिला है अपूर्व, जहाँ कोई धोखा नहीं, जहाँ कोई विवाद नहीं, और बड़े आराम से, बड़ी सुगमता से इस तीर्थ में अपने आपको आत्महित में बढ़ाने का यह धोखारहित मौका है। कुंजी एक ही है। प्रतिपक्षनय का विरोध न रखकर प्रयोजनवश विवक्षितनय की प्रधानता से इस ढंग का मनन करें कि अपने को स्वभाव का आश्रय मिले, बस एक ही मार्ग, एक ही नीति, एक ही ध्यान रखें। जीवन में फिर कभी धोखा नहीं हो सकता, न कोई अँधेरा रह सकता।
1315- उपयोग में विकार को ले जाना इन दो प्रतिपादन पद्धतियों का तथ्य-
यहाँ प्रसंग में कह रहे हैं कि ये सारी बातें हो रही, मगर जीव जो रागादिक को अपनी उपयोग-भूमि पर नहीं ले जा रहा उसके बंध नहीं। देखो, इस बात को यों भी कह सकते कि रागादिक में जो अपने आत्मा को नहीं लिया जा रहा है, अंतर अधिक नहीं है और अंतर है जो कर्मविपाजक रागविकार प्रतिफलित हुआ उनका प्रतिफलन यहाँ लग रहा, चल रहा, अवश है, पर ज्ञानबल से इस ज्ञानी का इतना तो वश है कि वह अपने को अंत: ज्ञानमात्र अनुभवे और उस उपयोग को उन रागादिक में न जुटायें, दूसरी बात- रागादिक हो रहे हैं, उनको अपने में न जुटायें, अपनी उपयोगभूमि में न ले जायें, मतलब रागमय अपने को अनुभव न करें, वह पुरुष ज्ञानमात्र होता हुआ उपयोग में अपने को ज्ञानस्वरूप अनुभव करता रहा, उसके बंध नहीं। बातें समझना है यहाँ- उपयोग को रागादिक में जोड़ना, रागादि का उपयोग में जुड़ना। इन दो पद्धतियों में कोई विधि का सूक्ष्म अंतर होता है। जैसे समयसार के परिशिष्ट अधिकार में बताया कि मैं पर नहीं, पर मैं नहीं। मैं यह दृश्य नहीं। दिखने वाला जो यह जगतजाल है इसके प्रति सोचिये मैं यह नहीं, यह मैं नहीं। अच्छा चलें इस विवरण में। कोई सोचे कि मैं यह हूँ तो उसका मूड़ कैसा बनता? देखो अंतर-सा तो नहीं जँचता और कोई अंतर ऐसा नजर आयगा जो एक बाहरी मत-मतांतरों का एक आधार नजर आयगा। मैं यह हूँ, इसके मायने यह हुआ कि इसने अपने को सर्वमय मान लिया। चेतन-अचेतन बाहरी जो पदार्थ हैं इन सब रूप मान लिया। आपको बड़ा अंतर नजर आयगा।
1316- मैं यह हूँ, यह मैं हूँ इन दो प्रतिपादनपद्धतियों का अंतर-
मोटा अंतर बतायें कि कितना अंतर आ गया इन दो बातों के इस तरह बोलने में कि मैं यह सारा विश्व हूँ, सारा विश्व मैं हूँ। इन दो बातों में जितना अंतर है कि जिस नींव के आधार पर बिल्कुल भिन्न दो मत आ जाते हैं। मैं सारा यह जो विश्व हूँ, सो हूँ। उसने अपने आपके भीतर की बात, अपना महत्त्व तो खोया सब और सारे विश्वमय अपने को माना, जिससे बने ब्रह्माद्वैत, अन्य अद्वैत आदिक, जो मानते हैं कि चेतन-अचेतन सारा का सारा एक ब्रह्मस्वरूप है। अच्छा और तब यों कोई सोचे कि सारा विश्व मैं हूँ, तो उसने विश्व की सत्ता खो दी और अपने आपमें ऐसा अनुभव किया कि सारा विश्व मैं हूँ, जिसे कहते हैं ज्ञानाद्वैत। बौद्धों का भेद है यह, वे क्षणिक मान रहे याने जीवादिक जो दिख रहे हैं ये कुछ नहीं हैं। ज्ञान-ज्ञान ही है, अन्य कुछ बात नहीं। कहने को तो जरासी बात है- अजी क्या हुआ? अगर इस भाई ने ऐसा कह दिया कि यह मैं हूँ और इसने यह कह दिया कि यह मैं हूँ। तो कौनसी ऐसी दुविधा पड़ गई? कौनसा बड़ा अंतर पड़ गया? पर इसमें अंतर तो बहुत बड़ा हो गया।
1317- आर्षवचनों में अनेक रहस्य–
इस अज्ञानी को तो विकार के साथ ऐसी एकमेकता है कि उसे तो यह और मैं का भी ख्याल नहीं। उसे दो बातों का ख्याल नहीं। यहाँ तो ज्ञानी पुरुष अज्ञानी की गलती बता रहे कि यह अज्ञानी रागादिक को अपनी उपयोगभूमि में ले गया, इसने अपने उपयोग को रागादिक में लगाया। देखो इन दो प्रतिपादनों में भी अंतर है। अज्ञानी का अज्ञान कैसा है, वह इन शब्दों में बताया गया कि उपयोगभूमि में समस्त रागादिक के साथ एकता करता है। विशेषण देखो- अज्ञानी के वर्णन में तो इन शब्दों में कहा था एक कलश में, कि उपयोग अथवा आत्मा रागादिक के साथ एकता को प्राप्त होता है तो बंध होता है और यहाँ ज्ञानियों की प्रधानता से कहा जाने वाले आज के कलश में यह बताया जा रहा कि रागादिक को उपयोगभूमि में न ले जाता हुआ ज्ञानी बंध को प्राप्त नहीं होता। बहुत सूक्ष्म अध्ययन करने पर इन आचार्यों के प्रति की कैसी सावधानी से शब्द रचना हुई। उन्होंने जान-जानकर ऐसे शब्द चाहे न बोले हों कि जिनमें ऐसा रहस्य छुपे मगर उसके निसर्गत: स्पष्ट प्रकाश होने के कारण ऐसे ही शब्द निकले कि जिनमें ये सब रहस्य पड़े हुए हैं। तो यह जीव, यह भव्यात्मा, यह अंतरात्मा उस रागादिक को अपने में नहीं लेता, अपने में अपने को अनुभव करता, तो ऐसा यह सम्यग्दृष्टि जीव निश्चित यह बंध को प्राप्त नहीं होता।