वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 166
From जैनकोष
तथापि न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनां
तदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापृति: ।
अकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां
द्वयं न हि विरुध्यते किमु करोति जानाति च ॥166॥
1318- निरर्गल अनुचितता-
पहले के कलशों में यह बताया गया का कि कर्मों से भरा हुआ यह जगत है, तो यह जगत रहा आये, इसके कारण कर्मबंध नहीं होता। ये मन, ये वचन, काय की प्रवृत्तियाँ होती हैं, होती हैं तो होने दो, इनके कारण बंध नहीं होता। ये अनेक प्रकार के साधन हैं, इंद्रिय, मन, बाह्य साधन मकान, वैभव आदिक, कहते हैं कि ये रहते हैं तो रहने दो। इनके कारण बंध नहीं होता। चेतन अचेतन पदार्थों का विग्रह होता है होने दो, उससे कर्मबंध नहीं होता। ऐसी बात सुनकर स्वच्छंदता आ सकती है। लिखा तो है कहीं कि बंध होता तो होने दो, योग होता है तो होने दो, घर-मकान मिला है तो रहने दो, इससे बंध नहीं होता। तो स्वच्छंदता भी अपनाई जा सकती है। उस स्वच्छंदता को दूर करने के लिए यह कलश कहा जा रहा है कि भाई तुम सही बात तो समझो। एक मनुष्य ने दूसरे मनुष्य के दो तमाचे जड़ दिये तो उस मारने वाले के मन में क्रोध जगा, मन में कुछ खलबली-सी हुई और उसकी चेष्टा हो गई, तमाचा लग गया। अब यहाँ यह भेद बनावें कि तमाचा लगा, हाथ लगा, इससे बंध नहीं, किंतु उसने शरीर में तो एक खलबली मचाई, खुशी आयी, अपने स्वरूप से चिगा, संक्लेश किया वह तो बंधहेतु है ना? उसका तो निषेध नहीं किया गया। तो हर जगह यही देख लो अगर किसी वस्तु का बंध हुआ तो उस बंध करने वाले के परिणाम क्या समाधि में थे, आत्मा की अनुभूति में उसके परिणाम थे? यह यों ही अद्भुत हाथ चल गया क्या? तो जो बुद्धिपूर्वक बातें होती हैं जान-बूझ करके कर्मबंध के कारण ही हैं। वहाँ ये बाह्यक्रियायें बंध का कारण नहीं, किंतु आत्मा में जो संक्लेशभाव है वह बंध का कारण है, यह तो एक विवेक की बात है। तो यद्यपि सब सही-सही स्वरूप बताया है तो भी निरर्गल आचरण करना ज्ञानियों को उचित नहीं है, करना ही नहीं है। क्योंकि निरर्गल आचरण होना यह ही तो बंध का आयतन है। निरर्गलता होना मायने मन स्वच्छंद रहा, कषायों में रहा तो वहाँ बंध होता ही है।
1319- अकामकृत कर्म में ही बंध की अकारणता-
भैया, बात यह कही जा रही थी कि बिना इच्छा के कोई कर्म बने तो वह बंध का कारण नहीं, पर ऐसा हो रहा क्या यहाँ अभी कहीं? जिनको हो रहा उनकी बात सही है। बिना इच्छा के कौन प्रवृत्ति कर रहा? फिर भी कोई परिस्थिति होती है ऐसी कि उसमें लाग नहीं, लगाव नहीं, लगाव नहीं और फिर भी प्रवृत्ति हो रही है। जैसे अरहंत भगवान विहार करते हैं तो अब विहार में क्रिया नहीं चल रही क्या? द्रव्य मनोयोग है, वचनयोग है, दिव्यध्वनि खिरती है, शरीर का योग है, तो ये चेष्टायें तो बंध का कारण नहीं हैं। वहाँ तो झट समझ में आ जाता है कि वे वीतराग हैं और उनका वह विहार अनिच्छा से हो रहा है। जैसे मेघ गरजते, बरसते, यत्र-तत्र फिरते, वहाँ कोई इच्छा है क्या? नहीं। यह तो एक मोटा उदाहरण दिया, तो ऐसे ही प्रभु गरजते हैं मायने दिव्यध्वनि खिरती है, विहार करते हैं फिर भी उनके इच्छा नहीं है इसलिये बंध नहीं है। तो यहाँ भी जैसे महाभाग लोगों के, ज्ञानियों के भीतर की दृष्टि बनी है, जिनको सही निर्णय है कि जो कर्मविपाक है, कर्मरस है, प्रतिफलन है, आपदा है, ये मैं नहीं हूँ। मैं तो यह विशुद्ध ज्ञानप्रकाशमात्र हूँ। मानो कर्मरस के कहने में नहीं रहा अब यह जो विकार राग जिस कर्मरस का ऊधम वहाँ था अब वह नहीं कर रहा। यह तो ज्ञानस्वरूप की ओर ही आकर्षित है, तो ऐसा अकाम, निष्काम होते हुए जो-जो कर्म हुए, वह अकारण है बंध का।
1320- निष्कामकर्मयोग व अकामकृत कर्म का विश्लेषण-
अन्य जन भी निष्काम कर्मयोग कहते हैं, इसके हैं मायने फल न चाहें और काम करें। वहाँ दृष्टि यह है कि फल मत चाहो और काम करो और दृष्टि यह है कि काम करना पड़ रहा, चाहता नहीं।देखो जरासी बात में कितना अंतर है। फल मत चाहो, कर्म करो। जहाँ कर्म करने का तो भीतर से हुकुम है, आदेश है वहाँ कुछ न कुछ कामना आ ही जाती है। रोगियों की सेवा करो, पर रोगियों से फल मत चाहो। यह तो बात बनेगी मगर रोगियों की सेवा करके कुछ न चाहो यह कर्म करने की उमंग वालों से कैसे बनेगा? उनके भीतर कुछ तो फल पड़ा है कि हमारे धर्म की प्रभावना होगी। हमारा इसमें यश बढ़ेगा। हमने जिस मिशन का बीड़ा उठाया है उसकी वृद्धि होगी। कोई न कोई बात चित्त में है, तो एक मोटा फल न चाहा कि रोगी से फीस आदि ले ले मगर इच्छा ही कुछ न करें, और काम खूब करें। यह बन रहा है वहाँ क्या? वहाँ पर अकामकृत कर्म की बात नहीं बनती, जो बंध का अकारण है वह अकामकृत नहीं बनता। अकामकृत कर्म वहाँ तो बनेगा, जैसे कोई कैदी सेठ कैदखाने में पड़ा है तो वहाँ उसे चक्की भी पीसनी पड़ती, सिपाहियों के डंडे के भय से, तो वह वहाँ चक्की पीसता, पर पीसना नहीं चाहता। परिस्थितिवश पीसना पड़ रहा, याने वह काम तो कर रहा पर उस काम को भी नहीं चाहता और उस काम का फल भी नहीं चाहता। जिस काम को करे उसको भी न चाहे और उसका फल भी न चाहे, ये दोनों बातें हों तो अकामकृत कर्म होगा। और लौकिकजनों के निष्कामकर्म में उस कर्म का उससे फल नहीं चाह रहा, किंतु कर्म करना तो चाह रहा। लेकिन यहाँ देखो, ज्ञानी किसी कर्म को भी नहीं चाहता व फल भी नहीं चाहता। इतना सहज वैराग्य है, तो उस कर्म आदि के संबंध में बात कही जा रही कि वह कर्म बंध का कारण नहीं। अकामकृत कर्म बंध का अकारण कहा गया है, क्योंकि क्या ये दो बातें एक साथ रह सकेगी कि जानता है और करता है? ये दो बातें एक साथ नहीं रह सकती। करना पड़ रहा है और जानता है। ये चाहे किसी पदवी में एक साथ रह जायें मगर करता है और जानता है ये दो बातें एक साथ नहीं रह सकती।