वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 19
From जैनकोष
आत्मनश्चिंतयैवालं मेचकामेचकत्वयो: ।
दर्शनज्ञानचारित्रै: साध्यसिद्धिर्न चान्यथा ॥19॥
206―आत्मा की एकरूपता व नानारूपता का दर्शन―प्रकरण यह चल रहा है कि आत्मा एकस्वरूप है, या नानारूप है, देखिये-समझ दोनों दृष्टियों से सकते हैं । नानारूप को न समझ सकें तो हम एकरूप को भी नहीं समझ सकते और एकरूप को नहीं समझ पाते तो हम नानारूप को भी नहीं समझ सकते । जैसे कोई एकरूप समझे नहीं और नाना रूप देखें तो उसकी ऐसी बुद्धि जग जायेगी कि फिर तो क्या है, गुण हैं, पर्यायें हैं और गुण अनेक हैं, सब स्वतंत्र हैं, पर्यायें स्वतंत्र हैं, गुण सब स्वतंत्र हैं, सब स्वतंत्र-स्वतंत्र सत् मान लिए जायेंगे । जैसा कि नैयायिकों ने, मीमांसकों ने माना है कि गुण अलग पदार्थ है, पर्याय अलग पदार्थ है, सब स्वतंत्र सत् है, मगर जैनदर्शन में यदि ऐसे शब्द कहे जायें कि गुण स्वतंत्र सत् है, प्रत्येक गुण स्वतंत्र सत् है, प्रत्येक पर्याय स्वतंत्र सत् हैं तो वह जैनधर्म से अत्यंत अनभिज्ञ हैं, क्योंकि सत् का लक्षण क्या है? जो उत्पादव्ययध्रौव्य युक्त हो सो सत्, जिसमें गुण पर्याय पाये जायें सो सत् । अब गुण कितने होते हैं? दो प्रकार के । ( 1) साधारण और (2) असाधारण । पर्याय कितनी होती हैं दो प्रकार की (1) द्रव्य पर्याय और (2) गुण पर्याय । तो निष्कर्ष यह निकला कि स्वतंत्र सत् वह कहलाता है जो अन्य सबसे भिन्न प्रदेश रखता हो । जिसे कहते हैं, प्रविभक्त प्रदेशपना । जो अपने अंदर जुदे-जुदे प्रदेश रखता हो, जिसमें 6 साधारण गुण पाये जायें वह स्वतंत्र सत् । जिसमें असाधारण गुण पाये जायें वह स्वतंत्र सत् । जिसमें उत्पादव्ययध्रौव्य पाये जायें वह स्वतंत्र सत् । अब वे मीमांसक जो गुणों को स्वतंत्र पदार्थ कहते हैं वे जरा बतलावें गुणों में क्या स्वतंत्र सत् की व्याख्या घटित होती है? गुण क्या उत्पादव्ययध्रौव्य युक्त हैं? गुण शाश्वत हैं, उनका उत्पादव्यय ही नहीं है । गुण में क्या साधारण गुण पाये जाते हैं, क्या असाधारण गुण पाये जाते हैं? अरे गुण तो “निर्गुणगुणा:” गुण में गुण नहीं पाये जाते । गुण स्वयं पर्यायरूप नहीं बनते, गुण उत्पाद व्यय रूप नहीं रहे । गुण सब स्वतंत्र सत् है, जैसे आत्मा में ज्ञान दर्शन चारित्र गुण हैं और ये हो गये स्वतंत्र सत् तो मानो गुण के प्रदेश, ज्ञान के प्रदेश दर्शन चारित्र आदिक से भिन्न होने चाहिए क्योंकि जो भिन्नप्रदेशी है सो ही स्वतंत्र हो सकता है । यह बात न गुण से घटित है न पर्याय में, फिर तो यह सब एकांतवाद बन गया । जैसे मीमांसक नैयायिक आदिक सिद्धांत ये सब स्याद्वाद से बहिर्भूत हैं । आत्मा एकरूप है, ऐसा समझकर नानारूप बताये कि आत्मा नानारूप में भी समझ में आ रहा, दर्शनरूप में चारित्ररूप में समझ में आ रहा, वह नानारूप में है सो ठीक बात है, तथा वस्तु को नानारूप कोई नहीं समझता है द्रव्य में यह अपरिणामी ही है ऐसा एकांत करता है तो वस्तु की मुद्रा न रहने पर वस्तु का सत्त्व ही सिद्ध नहीं होगा नानारूप समझ कर कोई एकरूप तक पहुंच पाता है । इस दार्शनिक के आत्मा में जानने की शक्ति, देखने की शक्ति, रमने की शक्ति, ये अनेक गुण पाये जाते, पहिचान भी इसी तरह करायी जाती कि जिसमें जानने देखने रमने की बात हो सो आत्मा । तो जीव दोनों प्रकार से समझ में आया । आत्मा नानारूप है, आत्मा एक रूप है ।
207―विवाद से परे होकर आत्मा का श्रद्धान ज्ञान आचरण करके हित करने का कर्तव्य―
अच्छा इसमें अगर कोई विवाद ही करता रहे―अजी आत्मा एकरूप ही है, नानारूपता की बात कहना गलत है उनमें नानारूप वाला लड़ने लगे कि आत्मा नानारूप है, केवल एकरूप कहने की बात मिथ्या है तो ऐसा विवाद करने वाले जरा सोचें कि विवाद करते रहना ही क्या ध्येय है? आत्मा एकरूप है या नानारूप याने अमेचक या मेचक है, इस प्रकार की चिंता करना व्यर्थ है । आत्मा में मेचकपना है या अमेचकपना है? आत्मा एकस्वरूप है या नानारूप है, इसकी चिंता करने या विवाद करने के बजाय विकल्प तजकर अनुभव का पौरुष करें । श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र बिना सिद्धि असंभव है निर्णय की बात इसमें एक ही समझे । इस प्रकरण में यह कहा जा रहा है कि दर्शन ज्ञान और चारित्र इनके द्वारा साध्य की सिद्धि होती है, अन्य प्रकार नहीं होती । हम आत्मा को जानें एक अखंड चैतन्यस्वरूपमय, सहजस्वभावमय, उस आत्मा को जानें, उस आत्मा की श्रद्धा करें, उस आत्मा में ही रमण करें, बस यह ही तो साध्य की सिद्धि का उपाय है, अन्य उपाय नहीं है । आत्मा को छोड़कर अनात्मतत्त्व में श्रद्धा हो, प्रीति हो, रमण हो, बोध हो, वहाँ उपयोग लगे, वहाँ मग्नता करें तो यह साध्य सिद्धि का उपाय नहीं है । एक ही बात है―आत्मा को जानें, मानें और आत्मा में रमें । और, सरलता से समझें तो अपने को ज्ञानमात्र निरखें, मैं ज्ञानमात्र हूँ । ज्ञान ज्ञान पुंज, ज्ञान ज्ञान से रचा गया जो कुछ यह सत् है । किसने रचा? अनादि से है वह । रचने की बात, यों कहते कि यह ज्ञान में आयें कि आखिर यह आत्मा किस तत्त्व में तन्मय है, ज्ञान से निर्वृत्त यह आत्मतत्त्व है, उस रूप अपने को श्रद्धा करें । यहाँ से चिगे, बाहर देखा तो अनेक रंग के चश्मों में जैसे अनेक प्रकार की बात दिखती यहाँं भी वैसे दिख रही है―यह मेरा है, यह गैर है आदिक प्रकार की दृष्टियाँ जग जाती हैं और इन दृष्टियों के होनेपर फिर यह आत्मा के लाभ से विमुख हो जाता है ।
208―स्याद्वाद से निर्णय कर विकल्पातीत अंतस्तत्त्व के अनुभव का कर्तव्य―जानो कि आत्मा नानारूप है, ऐसा जाने बिना भी काम न चलेगा । जानो, आत्मा एकस्वरूप है, चीज है, एक है । है और परिणमता है । वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है । प्रत्येक पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मक है और इसी कारण द्रव्य और पर्याय के आधार पर ही स्याद्वाद है । स्याद्वाद कहने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या जरूरत हुई? यों जरूरत हुई कि प्रत्येक पदार्थ है द्रव्यपर्यायात्मक, सो द्रव्यदृष्टि से भी बताओ बात और पर्यायदृष्टि से भी बताओ बात । तब तो वस्तु का पूरा परिचय बनेगा, क्योंकि वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है द्रव्य नहीं और पर्याय-पर्याय ही माना जाये, तो वह पर्याय निराधार कैसा? किसकी पर्याय, किसमें परिणमन । द्रव्य ही द्रव्य माना जाये और पर्याय न स्वीकार किया जाये तो उस द्रव्य का रूपक क्या? अवस्था ही नहीं? व्यक्तरूप ही नहीं, पहचानें क्या? मायने जो पुद्गल है एक पदार्थ तो जैसी बात यहाँ है सो ही समझिये प्रत्येक पदार्थ में । जो पर्याय नहीं मानते वे कहते कि द्रव्य ही द्रव्य है । पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मक होता है, इसको कोई मना नहीं कर सकता । भेद कल्पना तो गुणों के लिए चली । उनमें गुणों के भेद और किए, उसी प्रकार पर्याय में भेद बने, कि ज्ञान की पर्याय, दर्शन की पर्याय तो ये तो बने भेदकल्पना में, मगर मूल में द्रव्य और पर्याय इन दो को मना नहीं किया जा सकता, । प्रतिक्षण पर्याय हैं और वे पर्यायें भी प्रतिक्षण अखंड है । जैसे द्रव्य अखंड, वह शाश्वत अखंड, पर्याय भी अपने काल में अखंड अर्थात् किसी भी पर्याय को हम खंड करके समझाते हैं । है ना, जब हम हैं तो हमारी कोई अवस्था है । जब अवस्था है तो जो है सो है । अब इसमें जैसे गुण के भेद बनाये कि इसमें ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, तो उसी आधार पर पर्यायों के भेद बने कि इसमें ज्ञान की पर्याय है, दर्शन की पर्याय है, वहाँ तो बस वह है और परिणम रहा है, द्रव्य की पर्यायों को मना नहीं किया जा सकता । जब किसी वस्तु के बारे में परिचय करना है तो द्रव्यदृष्टि, पर्यायदृष्टि, दोनों दृष्टि से परिचय कराया जाये तो उस वस्तु का पूरा परिचय बनता है कि वह पदार्थ यह है, तब बस द्रव्यदृष्टि से जो बात कहेंगे, पर्यायदृष्टि से बात वह उसके विरुद्ध आयेगी । क्योंकि द्रव्य तो है शाश्वत और पर्याय है क्षणवर्ती, तो जब यहाँ ही दो बात हुई है वैसे तो वस्तु एक हैं, तो जो दो बात हुई हैं विरुद्ध, मूल में, द्रव्य शाश्वत, पर्याय क्षणवर्ती, तो इन दो दृष्टियों से जो बात कहेंगे वह भी विरुद्ध हो तो जायेगी तो उन दो विरुद्ध धर्मों का एक वस्तु में अवस्थान बताना इसका नाम है स्याद्वाद । जैसे जीव नित्य है यह बात आयी द्रव्यदृष्टि से । जीव नित्य नहीं है, यह किस दृष्टि से बात आयी? पर्यायदृष्टि से । जब वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है तो द्रव्य दृष्टि से क्या है? पर्यायदृष्टि से क्या है? यह बताना, यह ही है एक स्याद्वाद । जीव द्रव्यदृष्टि से नित्य है, पर्यायदृष्टि से अनित्य है । जो दृष्टियों को समझ चुके वे कभी दृष्टि की बात आत्मा में भी न डालें तो वे कह देंगे कि जीव नित्य भी है और अनित्य भी है । यह हुआ एक स्याद्वाद का रूप । हर एक जगह घटा लो जीव एक है कि नानारूप? जीव एक है द्रव्यदृष्टि से जीव नानारूप है पर्यायदृष्टि से । तो उत्तर हो गया । विरुद्ध धर्मों का एक वस्तु में अवस्थान बन गया और इसी को बताने से यह स्याद्वाद कहलाता है ।
209―द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु में द्रव्य और पर्याय की दृष्टि से विरुद्ध दो धर्मों का अवस्थान―कोई अगर ऐसा कहे कि जीव नित्य है, अनित्य नहीं है तो क्या वहाँ दो विरुद्ध धर्म आ सके? नित्य है का क्या अर्थ, शाश्वत । अनित्य नहीं है का अर्थ? शाश्वत, एक ही धर्म को रिपीट किया गया है, एक शब्द योजना है । तो सुनने में लगता है कि एक के साथ “है” कहा गया और एक के साथ “न” कहा गया, ये दो विरुद्ध धर्म हुए । अरे विरुद्ध तब होते जब जिस एक के साथ “है” कहा, उसी के साथ “न” कहा जाये तो विरुद्ध धर्म हैं । अब नित्य है उसका विरुद्ध धर्म अनित्य है या कहो नित्य नहीं है । नित्य है इसका विरुद्धधर्म, यह नहीं हो सकता कि अनित्य नहीं है, उसका विरुद्ध अनित्य है, यह तो दिगंबर जैन सिद्धांत को मूल से मिटाने की एक अपनी पूर्व निश्चित योजना की बतायी गई बात है । इस तरह अगर स्याद्वाद मान लिया जाये―यों कहें कि नित्य है अनित्य नहीं, इसे स्याद्वाद मान लिया जावे तो बताओ कौन ऐसा दार्शनिक है जो इस स्याद्वाद को नहीं मानता? सब मानते हैं । सांख्य मानते हैं कि पुरुष नित्य है अनित्य नहीं । बौद्ध मानते हैं कि पदार्थ अनित्य है नित्य नहीं, सत् क्षणिक है, अक्षणिक नहीं है । यह शब्दरचना जाल है । कौनसा दार्शनिक ऐसा है जो मनमाना स्याद्वाद को न पसंद करें? करें क्या? हर एक एकांतवाद इसी पर सांस ले रहे हैं । जो सृष्टिकर्ता मानते हैं वे कहते हैं कि यह जगत बुद्धिमन्निमित्तक है याने सृष्टिकर्ता के द्वारा बनाया गया है, सब ब्रह्मरचित है, अब्रह्मरचित नहीं, मायने ब्रह्म द्वारा रचा नहीं ऐसा नहीं है । लो उसका भी स्याद्वाद बन गया । बोलो बन गया क्या? अरे स्याद्वाद का मूल आशय विरुद्ध दो धर्मों का अवस्थान बताना है, नित्य का विरुद्ध धर्म अनित्य है तो नित्य है, अनित्य है, ये तो विरुद्धधर्म हुए, पर दो निषेध का अर्थ तो विधि ही हुआ । वहाँ दो धर्म नहीं होते । तो अब समझिये तथ्य । इस प्रकार द्रव्यदृष्टि व पर्यायदृष्टि से दो बातें यहाँ चल रही? आत्मा मेचक है, यह द्रव्यदृष्टि से व आत्मा अमेचक है यह पर्यायदृष्टि से हाँं तो इसमें प्रवेश करें, परिचय करें, ज्ञान बनायें । सब कुछ जानने के बाद मेचक और अमेचकपने के बारे में चिंतन में अब अधिक समय न गुजारें, अधिक बात न करें, किंतु एक यह निर्णय रखें कि कुछ भी हो, मेचक भी है, अमेचक भी है, दृष्टियों से निरखा जा रहा है, लेकिन यह बात तो निश्चित है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के बिना कैवल्य की सिद्धि नहीं होती ।
210―केवल अंतस्तत्त्व की रुचि श्रद्धा रति से कैवल्य प्राप्ति के मार्ग का लाभ―किसकी सिद्धि करना है? कैवल्य की, केवल के भाव की याने खाली एक आत्मा रह जाये, बस इसकी सिद्धि करना है ना । तो पहले यह ही तो विश्वास कर लें कि केवल खालिस यह आत्मा है कि नहीं? इस अवस्था में, इस परिस्थिति में पहले यह ही तो निर्णय कर लें कि आत्मा केवल है या नहीं । क्या अनादि से दो द्रव्यों का तन्मय रूप कोई सत्त्व है? नहीं, यह आत्मा अनादि से कर्मबंधन से बद्ध है? शरीर से बद्ध चल रहा है, इसका तैजस कार्माण कभी मिटा नहीं । जो व्यक्तिगत तैजस है वह अपनी हद तक रहेगा और जो कार्माण है कर्मरूप वह अपनी स्थिति तक रहेगा । अगर स्थिति पर न जाये तो दुःख भी नहीं हो सकता । सो यद्यपि इनकी परंपरा अब तक बराबर चलती आयी है फिर भी जीव जीव है, कर्म कर्म है । जीव का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव जीव में है, कर्म का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव कर्म में है । निमित्तनैमित्तिक योग से ऐसा चल तो रहा है कि कर्म का उदय आया तो जीव कलंकित हो गया, मगर जीव जीव में ही है, कर्म कर्म में ही है, तो जीव के केवलपने का विश्वास हो तो उस केवलता की आराधना कर करके ही तो हम उस परिणमन में केवलता को प्राप्त कर सकेंगे । यहाँ माने कि हम व देह मिलकर एक है और उस आधार पर कुछ भी धर्मसाधना करें तो उससे तो केवलता की स्थिति न बनेगी, जब कैवल्य पाना है तो यहाँ कैवल्य का श्रद्धान, आश्रय करना होगा । मैं अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से हूँ, बस उसका श्रद्धान करें, ज्ञान करें और उस ही में रम जावें बस इन उपायों से साध्य की सिद्धि होती है । केवल आत्मतत्त्व की उपलब्धि शुद्धनय से ही हो सकती है । शुद्धनय का विषय है अखंड एक अंतस्तत्त्व ।
211―पर व परभाव वर्तने पर भी कैवल्य की अप्रतिषिद्धता―यद्यपि इस जीव के साथ अन्य पदार्थ लगे हैं, इस समय इसको असत्य नहीं कह सकते, मगर दो द्रव्यों को निरखना यह अशुद्ध द्रव्य का निरूपण है, और अशुद्ध द्रव्य का निरूपण करने वाला जो व्यवहारनय है वह व्यवहार से सत्य है । अर्थात् दो पदार्थ लगे हैं, इस दृष्टि से वह सत्य है, किंतु जब केवल एक ही द्रव्य को विषय किया जा रहा हो तो वहाँ एक ही स्वरूप तो दृष्टि में आयेगा और उस समय अधिक विशुद्ध दृष्टि बनाना हो तो पर उपाधि के संबंध से जो आत्मा में प्रभाव आता है उस प्रभाव से भी भिन्न अपने आपको निरखना है और इस प्रकार जो केवल एक अहेतुक अनादि अनंत चैतन्यस्वभाव अपने में दृष्टिगत हो और उस ही की धुन हो ऐसी स्थिति कोई पाये तो वह शुद्ध आत्मा की उपलब्धि करता है, शुद्ध आत्मा का अर्थ निर्मल आत्मा यहाँ न लेना किंतु मिले हुए पदार्थ में भी केवल एक पदार्थ को ही निरखने की जो दृष्टि है वह शुद्धनय कहलाता है, और उस दृष्टि में परद्रव्य की उपेक्षा कर, परद्रव्य को न निरख कर, होते संते भी उस द्रव्य की ओर न मुड़कर केवल एक अपने में केवल निजस्वरूप की ओर दृष्टि करते हैं तो उस काल को कहते हैं शुद्धनय । जो शुद्धनय का प्रयोग करता है वह शुद्ध आत्मा की उपलब्धि करता है । व्यवहार से जाना, उसका प्रयोजन यह रखना चाहिए कि यह मेरा स्वरूप नहीं है, मेरा सहज स्वरूप नहीं है, यह तो संबंध की बात है, पर मेरा स्वरूप मुझ में एकाकी है, केवल मैं ही मेरा स्वरूप हूँ, ऐसे उस शुद्धनय के अवलंबन से जो अपने आपमें एक निज आत्मा को ही देखा जा रहा हो, केवल एक ही आत्मा में अपने आपको पा रहा हो तो इस प्रकार के एक शुद्ध अंतस्तत्त्व के चिंतन के समय में यह चूंकि शुद्ध आत्मा का ही उपयोगी बन रहा है इसलिए शुद्ध आत्मा है, शुद्धनय से ही शुद्ध आत्मा की उपलब्धि होती है । अगर शुद्धनय की कोई दृष्टि करता है तो भले ही परिचय में तो वह साधक है―जैसे आस्रव, बंध, संवर निर्जरा मोक्ष ये सब दो की दृष्टि से बने हुए हैं लेकिन उसकी उपेक्षा कर केवल एक द्रव्य को ही देखा जा रहा हो ऐसा भी तो हो सकता है । तो जब केवल एक द्रव्य को ही निरखा जा रहा हो उस समय में यह भेद से परे होकर एक विशुद्ध चैतन्यस्वभाव की प्रतीति तक पहुँच जाता है ।
212―सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र में मात्र अंतस्तत्त्व की आराधना―इस आत्मा की उपासना करें एक आत्मस्वरूप के रूप में । मैं सबसे निराला ज्ञानमात्र, ज्ञानघन, सहज आनंदमय अपने आपमें आप ही स्वयंसिद्ध हूँ । ऐसे स्वयंसिद्ध अनादिसिद्ध अंतस्तत्त्व की आराधना ही इस जीव को शरण है । यहाँ बताया जा रहा है कि करना तो उपासना अपने आपकी ही है ना? तो अपने आपकी आराधना में ये तीन तत्त्व आ ही जाते हैं । अपने आपका श्रद्धान, अपने आपका बोध और अपने आपमें रमण । इस प्रकार साध्य की सिद्धि इस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक᳭चारित्ररूप वृत्ति से होती है । उस ही तत्त्व को यहाँ समयसार कलश में अनुभूति के योग्य वर्णन द्वारा स्पष्ट किया जा रहा है । जिनको कैवल्य की प्राप्ति करना है उन्हें अभी ही अपने आपमें केवल के स्वरूप को निरखना होगा । क्या उत्पन्न करना है, क्या साध्य चाहिए, उसकी सिद्धि तो तब ही बन सकेगी, उस सिद्धि की व्यक्ति तो तब ही हो सकेगी जब स्वरूप में मूल में यह इतना ही केवल है, यह अपने आपमें एक अद्वैत है, यह दृष्टि बने तब । और इस श्रद्धा के कारण इसकी अनुभूति में जब एक परम आनंद उत्पन्न होता, उसका अनुभव होता तो उस आनंद की स्मृति होने पर उस आनंद की स्थिति होनेपर इस जीव का बाहर में कहीं कुछ नहीं है, इसको दूसरा कुछ भान नहीं ही हो रहा । ऐसे इस चैतन्यस्वरूप की उपासना करें । देखिये इस ही शुद्धतत्त्व को एकदम एकांतत: जब प्रयुक्त किया गया तो वही तो बन गया स्याद्वाद से बाह्य । यह न देखा कि बाहर में और कुछ तो है सही, इस आत्मा की परिणतियां तो है, अन्य तत्त्व तो हैं मगर उनकी दृष्टि में आत्महित नहीं है । भैया, यह तो ठीक है कि क्यों भेद का आलंबन लेना, एक निज अंतस्तत्त्व का आलंबन लेना और उस अंतस्तत्त्व के अनुभव में द्वैत का भान न हो, ऐसी स्थिति बनाना है मगर एक निर्णय कोई बना दें कि दूसरा मानो है ही नहीं, तो निज की भी सिद्धि नहीं और अद्वैत की व द्वैत भी सिद्धि नहीं ।
213―मात्र अंतस्तत्त्व के अनुभव का प्रभाव―भैया ! अपने आपमें आपके इस अंतस्तत्त्व को निरखना है । यह श्रद्धान करें कि यह आत्मा उत्पाद व्यय ध्रौव्य वाला है । इसमें क्षण-क्षण में परिणमन होते चलते हैं लेकिन उन परिणमनों की ही दृष्टि होने पर इस शुद्ध आत्मा की उपलब्धि नहीं होती । गुण पर्याय के भेद न कर केवल एक चैतन्यप्रकाश का ही अनुभव हो, चैतन्यप्रकाश की ही दृष्टि हो, शुद्ध चिन्मात्र, ऐसे इस अंतस्तत्त्व की साधना में हमने क्या पाया? केवल? बस इस केवल के ही आश्रय से इस केवल की दृष्टि में, इस केवल में ही इस केवल के ही स्वभाव से वह कैवल्य, वह पवित्रता वह सबसे निरालापन और सबसे निरालापन होने से अपने आपके स्वभाव से समस्त लोकालोक का ज्ञान करने वाला विकास और परम निजानंदरस इसके अनंत प्रकट हो जाता है । तो ये बाहरी चीजें हैं, दो चार दिन के समागम में आयी हैं, उनसे मोहरागद्वेष करके यह जीव अपने आपके क्षण को व्यर्थ खो रहा है । बाह्य में जैसा जो परिणमता हो परिणमे, अपने आपमें अपने आपके अंतस्तत्त्व को देखें, उसका ही आश्रय करें तो अपना उद्धार है । तो यहाँ बतला रहे हैं कि आत्मा नानारूप है या वह एकरूप है? यह चिंता करना व्यर्थ है । मूल में परमार्थ से समझ लें कि आत्मा एकस्वरूप है, एक चिन्मात्र है, बस उसकी दृष्टि उसका ज्ञान, उसमें रमण, यह बात तो बनेगी ही और ऐसी स्थिति बने बिना शांति का लाभ, मुक्ति का लाभ प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिए एक ही निर्णय करें कि इस एक अखंड चैतन्य स्वरूप में यह मैं हूँ, ऐसी तो श्रद्धा होना और इस ही का ज्ञान बनाये रखना इस ही का रमण बनता है तो यों सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक᳭चारित्र के द्वारा ही साध्य की सिद्धि होती है । अन्य प्रकार साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती ।
214―शुद्धनय से सहज स्वभाव का निर्णय―इस आत्मा को सभी परिस्थितियों में केवल आत्मा के प्रदेशों में ही इसके परिणमन को निरखा जाये, इसके सर्वस्व को देखा जाये तो यह कहलाता है शुद्ध एक आत्मा का अवलोकन चाहे, कैसा ही आत्मा हो, जैसे कि कहा जाता है देखो आत्मा ने अपने में राग परिणाम किया है इस कथन में एक शुद्ध द्रव्य की ही बात कही गई अर्थात् अकेले आत्मा की ही बात कही गई । शुद्ध का अर्थ अध्यात्म प्रसंग में केवल लिया जाता है । निर्मल पर्याय से यहाँ मतलब नहीं, आत्मा का तो एक आत्मा ही है । और स्वरूप दृष्टि से देखें तो वह अहेतुक है, अनादि अनंत है, स्वत: सिद्ध है । इसका कारण कुछ नहीं होता । समस्त परद्रव्यों से निराला और अपने धर्म में तन्मय ऐसा इस आत्मा में एकत्व है और जब इस प्रकार ज्ञान के रूप से ही आत्मा को निरखा जा रहा हो उस समय की जो एक झलक है वहाँ स्वयं अंतस्तत्त्व दर्शनभूत हो जाता है । तो उस समय में भी समस्त पर द्रव्यों से निराला अपने धर्म में ही तन्मय ऐसा एकपना है और जब इसके प्रसंग में देह है, अथवा इंद्रिय है, जिसके द्वारा जानन चल रहा है, उनमें तथ्य देखें तो इंद्रियां पर हैं, उनसे निराला केवल एक आत्मतत्त्व ज्ञानानंदस्वरूप यह अकेला ही विराज रहा है, वह ज्ञान द्वारा जानता है । जानने में परद्रव्य आ रहे हैं, पर यहाँ शुद्धता देखो, केवलपना देखो तो परद्रव्य से तो निराला है और निज में जो परद्रव्य का संबंधी पाकर भाव बनता है, एक जानन बनता है उस जाननहार आत्मा में उस जानन परिणति से जाननरूप से यह उस समय तन्मय है । हर परिस्थितियों में एक आत्मा को ही निरखो और जब स्वभावदृष्टि से देखो तो आत्मा में केवल एक चैतन्य सहज भाव ही दृष्टि में आ रहा है, ऐसे ही शुद्ध आत्मा चिन्मात्र, चिदानंद, अंतस्तत्त्व का निरूपण करने वाला है, शुद्धनय । इस शुद्धनय के प्रयोग से इस अंतस्तत्त्व की उपलब्धि होती है और शुद्ध पदार्थ को जाना, उस चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्व को देखा और देखते रहे एवं उसी में रत रहे तो यह कहलाया सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र । अब व्यवहार में देखो तो जब चारित्र में कोई बढ़ता है तो चूंकि यह चारित्र एक बड़ा विशुद्ध रूप है और ऐसे होने में वासना वाले को बड़ी कठिनाई है । पूर्व की वासनायें उछल उछल कर इसको ज्ञानदृष्टि से च्युत करने में संलग्न हैं । तो उन सबसे निवृत्त होने के लिए शुभोपयोग होता है । इस शुभोपयोग की सामर्थ्य से अशुभोपयोग का आक्रमण दूर होता है । और ज्ञान ज्योति है ही सो उस शुभोपयोग से भी दूर होकर एक शुद्ध तत्त्व में प्रयोग होता है । ऐसे इस शुद्ध आत्मा की उपलब्धि, शुद्ध आत्मा में ज्ञान और शुद्ध आत्मा में रमण, यह ही एक साध्य की सिद्धि का उपाय है ।