वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 20
From जैनकोष
कथमपि समुपात्तत्रित्वमप्येकताया, अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम् ।
सतत-मनुभवामो-ऽनंत-चैतन्य-चिह्नं, न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धि: ॥20॥
215―अनंत चैतन्य चिह्न अंतस्तत्त्व का अनुभव करने का संदेश―यह जीव प्रति समय कुछ न कुछ अनुभव करता ही रहता है । अनुभव बिना इसका कोई क्षण व्यतीत ही नहीं होता, कोई भी जीव हो, अब यह अनुभव की विशेषता है कि कौन जीव किस तरह का अनुभव करे, कौन किस तरह का, पर अनुभव सब कर रहे हैं । परिणमते रहते हैं ना, तो यह ही अनुभवन कहलाता है । अनुभवन बिना दुःख नहीं होता, अनुभवन बिना सुख नहीं होता, अनुभवन बिना शांति नहीं, अनुभवन बिना आनंद नहीं । यह प्रतिक्षण अनुभवता है । अब यहाँ यह बात ढूँढना है कि हम कैसा अनुभव करें कि शांति प्राप्त हो, आनंद हो, संकटों से छूटे, उस अनुभव की बात चल रही है । हम अनुभव करें इस अंतस्तत्त्व का याने खुद ही स्वतंत्र अपने आप सहज जैसा स्वरूप में है वैसा अपने आपका अनुभव करें । निरखना है अपने को अपना स्वरूप । अनंतज्ञान ही जिसका परिचायक है, लक्षण है । यह आत्मा है ज्ञानघन । इस ज्ञान में इतनी शक्ति है, इस ज्ञान में इतनी कला है, इसका इतना महान विकास है कि लोक में अलोक में याने समस्त विश्व जो कुछ है, जो सत् है, सब कुछ ज्ञान में आता है । देखिये―ज्ञान कहीं जाकर नहीं जानता । जैसे कुछ दालान की चीजें जानना है तो यह ज्ञान उस दालान के भीतर जा जाकर चीजों को नहीं जानता । उपचार से लोग ऐसा कहते कि यह ज्ञान दालान में पहुंच गया, पर वस्तुत: यह ज्ञान कहीं बाहर नहीं जाता, यह अपने ही प्रदेशों में रहता और अपनी ही जगह रहकर सब कुछ जानता है । यह ज्ञान सामने के ही पदार्थ को जाने सो बात नहीं, सामना होने के कारण जाने सो बात नहीं है । हम आप पर एक आवरण है, और ऐसी एक कमजोर स्थिति है कि हम इंद्रिय और मन की सहायता बिना जान नहीं पाते, और चीज सामने है तो उसे जान पाते, यह एक परिस्थिति है मगर ज्ञान का यह स्वभाव नहीं कि चीज सामने हो तब ही जानें, चीज वर्तमान में मौजूद हो उसे ही जानें ऐसा भी ज्ञान में स्वभाव नहीं है । ज्ञान का तो स्वभाव है कि कोई वस्तु अगर है तो वह जानने में अवश्य आयेगी । कोई वस्तु, वस्तु हो तो जानने में आयेगा, है सो जानने में आयेगा, कहीं भी हो, पीठ पीछे हो, किसी भी जगह हो । है अगर वस्तु तो जानने में आयेगी, क्योंकि ज्ञान को देखा । ज्ञान ज्ञान ही तो है । ज्ञान के पीठ नहीं, पेट नहीं, पैर नहीं, इंद्रिय नहीं, आकार नहीं, आवरण नहीं । ज्ञान तो ज्ञान है । ज्ञान का भीतरी स्वरूप देखो―एक ज्योति एक प्रकाशमय एक आत्मपदार्थ है । उस ज्ञान को फिर यह विघ्न कैसे हो, यह नियंत्रण कैसे हो कि चीज सामने हो तब ही जाने । ज्ञान को सामना तो चारों ओर है । देह को भुलाकर, इस बुद्धि में न सोचकर केवल ज्ञानस्वरूप को देखो तो भीतर में तो यह ज्ञान ज्योतिस्वरूप आत्मा है, उसका क्या पीठ, क्या पेट, क्या आमना, क्या सामना । देह को देखकर ही तो लोग कहते हैं कि यह चीज पीठ पीछे रखी है, यह चीज मुख के आगे रखी है । देह है तभी तो आगे पीछे वाली बात कही जाती । आत्मा में तो यह बात न लगेगी । आत्मा तो जाज्वल्यमान ज्ञान ज्योति स्वरूप है । उसको तो सब कुछ सामना है । जैसे मिश्री की डली उसका क्या आगा, क्या पीछा । जैसे कई चीजें होती हैं ऐसी कि जिनमें या तो आगे के हिस्से में, रस नहीं रहता या पीछे के हिस्से में, जैसे गन्ना, ककड़ी आदि । तो जैसे इन चीजों में आगा पीछा हुआ करता है, देह में तो आगा पीछा है ही, मगर एक आत्मतत्त्व में, एक ज्ञान ज्योतिर्मय पदार्थ में कहाँ तो आगा है, कहाँ पीछा है । उसको तो सारा विश्व समक्ष है, सारा काल समक्ष है । ऐसा अनंत ज्ञानशक्ति रखने भाला यह आत्मतत्त्व है । उसका हम अनुभव करें ।
216―आजीवन स्वभाव की आराधना का कर्तव्य―इस अखंड आत्मा में देखो बीत क्या रही है? उम्र देखो दमादम गुजर रही, मरण के निकट पहुँच रहे हैं । अब हमको कौनसा काम करना चाहिए जिससे यह मानव जीवन सफल कहलाये? उस पर विशेष ध्यान दें और क्या करना चाहिए, क्या करते हैं? तो जब जिंदगी बहुत हो जाती और सारे नटखट देख लिए जाते, हर तरह की घटनायें सब आंखों के आगे गुजर गई तो यह निर्णय हो गया कि बाहर में मेरे लिए सार कुछ नहीं रखा, कोई गृहस्थ हो तो, व्यापारी हो तो, या कोई किसी भी लैन का हो, सबको यह अनुभव बनेगा कि बाहर में कहीं भी मोह करने से, चित्त लगाने से, उपयोग देने से इस मेरे आत्मा के लिए सारभूत चीज कुछ न मिलेगी । बाहर तो कुछ सार मिलता नहीं । तो जरा एक अपने आपके स्वरूप का ही दर्शन करें, वहाँ सब कुछ मिलेगा । सब कुछ क्या मिलेगा? निराकुलता मिलेगी । निराकुलता हो सब कुछ है और आकुलता ही सारी दरिद्रता है । एक अपना सहज अंतस्तत्त्व जो एक ज्ञान ज्योति पुंज है उसका अनुभव करें तो सब कुछ मिलेगा । मैं ज्ञान मात्र हूँ, ज्ञानघन हूँ, उस अनंत चैतन्य चिह्न इस परमार्थ पदार्थ का अनुभव करें । यह बात कह रहे हैं, पर प्रारंभ में हम क्या देखें, क्या समझें, किस तरह इस अखंड अंतस्तत्त्व तक आ सकें, उसके लिए व्यवहारनय उपकारी है । व्यवहारनय से हम समझते हैं कि आत्मा में गुण हैं, पर्याय हैं, शक्तियाँ हैं, अवस्था है, और क्या-क्या गुण हैं, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनंद । आत्मा की ऐसी खासियत परख करके आत्मा को पहचाना है । किसे कहते आत्मा? जो जानता हो सो आत्मा । जानना एक ऐसा प्रधान चिह्न हैं कि जो आसानी से सबकी समझ में आता है और इसी के बारे में सूक्ष्म से सूक्ष्म बात भी योगी जनों के द्वारा ध्येय होती है । कौन नहीं जानता कि यह जीव है मोटे रूप से? कोई लड़का अगर भींट को लाठी मारे तो देखने वाला शायद कोई न मना करेगा कि ऐ लड़के तू इस बेचारी भींट को क्यों पीटता, पर यदि वह गधा कुत्ता आदि को लाठी से मारे तो देखने वाले सभी लोग उसे मना करेंगे, क्योंकि सब लोग सुगमता से जानते हैं कि यह जीव है । अब उस ही जीव के बारे में हमको एक बहुत सहज निरपेक्ष विधि से अंतस्तत्त्व में चलकर अगर हम समझें तो आखिर समझना होगा वीतराग विज्ञानभाव । वीतराग भी न कहो आत्मस्वभाव को । वीतराग तो प्रभु हैं, जिनका राग बीत गया । मगर उस ज्ञान स्वभाव को देखें तो वीतराग नहीं, किंतु अराग है । अराग और वीतराग में फर्क है । स्वभाव है अराग और जब साधना बनती है तो उससे होता है जीव विराग । याने जीव को स्वरूप से जब देखते हैं तो राग द्वेषादिक है ही नहीं । वीतराग का अर्थ है कि राग था अब दूर हो गया । अगर स्वरूप को देखते हैं तो वह अविकारी है । स्वरूप में विकार नहीं है निर्विकार और विकार में क्या अंतर है? प्रभु निर्विकार है, याने किस दृष्टि से हम देखते हैं? पर्याय दृष्टि से तो उस जीव में विकार था, अब विकार न रहा, निकल गया और अविकार के मायने विकार नहीं ।
217―परमात्म स्वरूप की और आत्मस्वभाव की अविकारता―परमात्म आरती में आप लोग रोज पढ़ते हैं―ॐ जय जय अविकारी, तो उसमें अविकारी की उपासना है । अविकारी शब्द ऐसा है कि प्रभु में भी घटा लो, साधु सतों में भी घटा लो । कहते ही हैं कि उसमें विकार नहीं रहा, और स्वभाव में घटाना हो तो स्वभाव स्वरूप विकार से परे है, विकारी नहीं है । स्वरूप निर्विकार नहीं किंतु अविकार है । स्वरूप को देखकर अगर निर्विकाररूप से प्रशंसा करें तो वह स्वरूप की निंदा हैं । जैसे कोई पुरुष किसी मनुष्य से कहे कि तुम्हारे पिताजी जेल से मुक्त हो गए । जेल में पहुंचे ही न थे मगर ऐसा कोई कह बैठे कि जेल से छूट गए तो वह बुरा मानता कि नहीं, क्योंकि जेल से छूटने का अर्थ है कि जेल में पहले थे अब छूट गए । तो ऐसे ही निर्विकार का अर्थ है कि पहले विकार था अब दूर हो गया । यह पर्यायदृष्टि से देखा कि यह विकारी है यह निर्विकार, मगर स्वभावदृष्टि से देखें तो यह अंतस्तत्त्व न विकारी है, न निर्विकार, किंतु अविकार है, विकार का वहाँ अभाव है, तो ऐसा अविकार यह ज्ञानानंद अनंत चैतन्य चिह्न उसका अनुभव करने के लिए हम प्रारंभ में कैसे वहाँ तक पहुँचने का उपाय बनायें । उसका इस छंद में सर्वप्रथम निर्देश किया गया है । किसी भी प्रकार से जहाँ तीनपने का प्रयोग किया है उस ही आत्मा की बात कह रहे हैं । व्यवहार से हमें वहाँ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र निरखते हैं अथवा श्रद्धा ज्ञान चारित्र गुण निरखते हैं, उस श्रद्धान ज्ञान चारित्र से हम आत्मा की पहचान करते हैं । प्रत्येक जीव में विश्वास है, उसका रूप व्यक्त हो या अव्यक्त । इस अंतस्तत्त्व का सहारा लें, इसकी ओर बने रहें, विश्वास कहलायेगा कि नहीं कि मुझको अंतस्तत्त्व में विश्वास है, शब्दों से न बोलें, उसका व्यक्त रूप न रखें, मगर चैतन्य का आश्रय तो किए हुए है, जो जिसका आलंबन लेता है, समझना चाहिए कि विश्वास है । विश्वास बिना, श्रद्धा बिना कौन जीव है, और जानना सतत बना रहता है और चारित्र, रमण करना, प्रत्येक जीव की आदत है कि कहीं न कहीं रमता रहे । भगवान कहाँ रम रहे? स्वरूप में । अपने अनंत आनंदरस में लीन हैं । अज्ञानी कहाँ रम रहा? विषयों के साधनों में बाह्य पदार्थों में व निश्चयत: बाह्य पदार्थों का ख्याल कर करके जो विकल्प बने उसमें रम रहा । तो सूझ, बूझ, रीझ ये जीवों में चल रहे हैं । श्रद्धा हुई, सूझ हुई । समझ गए, यह है तत्त्व, उसका ज्ञान किया कि यह है बूझ । और रीझ गए, उसी में लीन हुए । तो किसी भी प्रकार भी इस आत्मतत्त्व में तीनपना प्राप्त हुआ और उससे समझ बनी, ऐसा है यह जीव, फिर भी अपने में एक स्वरूप से चलित नहीं है ।
218―एक को ही नानारूप में देखने की कला―एक होकर भी अनेक रूप में देखने की हमारी एक नयकला है । अग्नि किसे कहते? खाली अग्नि की बात कहो । दूसरी चीज का संबंध रखकर बात न बोलना, अग्नि नाम किसका? तो आप कहीं जलता हुआ कोयला उठाकर धर दोगे, कहीं जलती हुई लकड़ी उठाकर धर दोगे, कहीं जलता कंडा उठाकर धर दोगे और कहोगे कि अग्नि यह है । तो क्या कहीं गोल, लंबा, चौड़ा इस तरह का आकार अग्नि का होता है? अरे अग्नि इस लंबा चौड़े गोल आदि आकारों को नहीं कहते । अग्नि तो केवल एक दहन स्वभाव को कहते हैं । जलन, ताप, संताप । और देखो अग्नि कहीं भी दाह्य आकार के बिना नहीं रहती । अग्नि है, अग्नि का स्वरूप है, जलन, आप, गर्मी, दाहकपना, यह अग्नि का स्वरूप है, मगर दाहकपना किसका? जल रहे कोयले आदि को देखो तो कोयले के आकार, कंडे के आकार, लकड़ी के आकार, यों नानाकार है । यह अग्नि ईंधन के आकार में आ गई । बाह्य आकार बिना अग्नि रहती नहीं, मगर यह कोयले की अग्नि, यह तृण की अग्नि, कंडे की अग्नि ये भिन्न-भिन्न रूप नहीं हैं अग्नि के । अग्नि तो एकरूप है, मगर अग्नि दाह किये जाने वाले पदार्थ में निष्ठ रहती है । दाह्यनिष्ठ होने के कारण जैसे अग्नि का परिचय करने के लिए हम कई बातें कहते हैं और गुणप्रधानता से कहते हैं । जो जलाये सो अग्नि, जो प्रकाश करे सो अग्नि, जो भोजन पकाये सो अग्नि, ऐसा देखकर ऐसा कहते हैं, समझाते हैं । मगर, अग्नि मूल में एकस्वरूप है । ऐसे ही आत्मा के बारे में परिचय कराते हैं, स्वभाव समझाते हैं, सब तरह की बातें आती हैं, जो जाने सो आत्मा, जो देखे सो आत्मा, जो आनंद पाये सो आत्मा, जिसमें विकल्प हो जाते हैं सो आत्मा । यों आत्मा को समझने की अनेक बातें हैं, जहाँ जिसे शांति मिले सो आत्मा । यह मनुष्य, यह पशु, यह पक्षी यों आकार के रूप में कहा, गुण के रूप में कहा, उसके अनेक भेद प्रभेद है, पर आत्मा मूल में सहज निरपेक्ष एक है, वह है एक ज्ञान ज्योति पुंज । हम उसका निजी आकार क्या कहें? आकार बिना आत्मा रहता नहीं, और निजी आकार उसका कुछ नहीं । जैसे अग्नि आकार बिना नहीं, निजी आकार कुछ नहीं । उसका परिचय करायेंगे तो दहनस्वभाव के रूप में परिचय करायेंगे । आत्मा का निजी आकार अपने आपके कारण आकार क्या है सो बताओ? रहता आकार में है मगर उन आकारों का कोई निमित्त है जिससे यह आकार है, कोई आधार है । स्वयं आत्मा ने अपना कोई आकार नहीं बनाया, इसीलिए तो कहते हैं निराकार निरंजन, अलख निरंजन । आप कहेंगे कि आकार तो बहुत है―पशु का आकार, पक्षी का आकार, कीड़ा मकोड़े का आकार, मनुष्य का आकार आदि । अरे उस प्रकार का कर्मोदय है ऐसा शरीर मिला है । जैसा शरीर प्राप्त है उस आकार में ये जीव प्रदेश फैल गए । यह ही बात सबकी है पक्षी मनुष्य देव आदि की ।
219―अविकार निराकार सिद्ध भगवंतों में आकार का तथ्य―आप कहेंगे कि सिद्ध भगवान के तो देह नहीं है, उनके कर्म नहीं, उनका जो आकार बना है उसे तो कह दो कि आत्मा का यह निजी आकार है, अपने स्वरूप की ओर से आकार है । वैसे तो कहते हैं कि यद्यपि वह आकार अनंतकाल तक रहेगा, स्थिर है, योगरहित हैं मगर उस आकार का कोई कारण है, तो भाई बात यह है कि जिस आकार में यह जीव या मनुष्य था, मनुष्य ही तो मोक्ष गया तो जो अंतिम भव है, मनुष्य में जिस आकार में यह मनुष्य रह रहा था वहाँ से निर्वाण हुआ, मनुष्यभव छूटा तो दूसरा आकार बनने में यह एक कठिनाई आ गई कि उस आकार से छोटा बने तो कैसे बने, और उस आकार से बड़ा बने तो कैसे बनें? जिस शरीर को तजकर वे निर्वाण प्राप्त करते हैं उस आकार में ही जीव है जो वहाँ से मुक्त हो रहा, उससे कम हो जाये आकार तो उसका कारण तो कुछ नहीं, कर्म तो दूर हो गए । पहले जो आकार कम बढ़ लंबे चौड़े आदिक होते थे वह कर्मोदय का निमित्त पाकर शरीर का आश्रय पाकर हुआ करते थे । जब कर्मरहित हुए, शरीर रहित हुए तो उस आकार से कम होने का कोई कारण न रहा, उस आकार से बड़ा होने का कोई कारण न रहा सो वही आकार रहा, पर जीव ने अपनी ओर से बिना कोई उपाधि निमित्त कोई बात के अपना कोई आकार पाया हो तो बताओ । इसीलिए उसको निराकार कहते हैं ।
220―नाना रूपों में भी एकता―आत्मा एकस्वरूप है, ज्ञायक स्वभाव है, चैतन्य स्वरूप है, उसको समझाने के लिए व्यवहार नय से गुण समझते हैं और उसमें तीनपना समझा जाता है । तो किसी भी प्रकार बढ़-बढ़कर तत्वाभ्यास करके, समझ कर भेददृष्टि से व्यवहारनय से तीन रूप में उस आत्मा को समझा जिसमें विश्वास है वह आत्मा, जिसमें ज्ञान है वह आत्मा, जिसमें आचरण है, रमण है वह आत्मा । है एक ही आत्मा । उस एक ही आत्मा की ये कलायें हैं । जैसे कोई पुरुष संतोष कर रहा, ज्ञान कर रहा, आचरण कर रहा तो क्या वे तीन हो गए? अरे उसकी त्रिरूपता बनी, ऐसे ही आत्मा एक है, उसकी एक त्रिरूपता बनी । समझा है भेदनय से, व्यवहारनय से । तो किसी प्रकार तीनपने को प्राप्त है यह आत्मतत्त्व, मगर अपनी एकता से गिरा हुआ नहीं होता है । ऐसी आत्म ज्योति महती निर्मलता से उठ रही है, जिसकी किरणें, जानन, जिस ज्ञान की एक पहिचान उसकी उछाल, जो निरंतर उछलता हुआ है, ज्ञान है, निरंतर जाज्वल्यमान जानता हुआ प्रकाशमान रहता है । किसी भी समय उसका काम बंद हुआ क्या? किसी समय द्रव्य में परिणति दूर होती क्या? अनंत चैतन्य वाला जिसकी निर्मलता, जिसका विकास जिसका उछाल निरंतर उठता रहता है, ऐसे उस अंतस्तत्त्व का हम अनुभव करें, मायने हम समझ लें कि मैं यह हूँ, मैं यह हूँ अंदर में ज्ञानस्वरूप को दृष्टि में रखते हुए ।
221―आत्म परिचय की कृतार्थता―जो निज को समझ ले कि मैं यह हूँ, वह बड़ा पूज्य पुरुष है, बहुत पवित्र आत्मा है, संसार संकटों से छूटने वाला, मोक्षमार्ग में लगा हुआ है । भव्य जीव जानता कि मैं यह हूँ, अन्य कुछ नहीं हूँ? तो इसका व्यावहारिक प्रभाव देखो―मैं अन्य कुछ नहीं हूँ, मैं शरीर नहीं हूँ, ऐसा अगर निर्णय बसा है तो लोग अगर गाली दें तो, उसका उसे बुरा लगेगा क्या? शरीर को माना कि यह मैं नहीं हूँ और शुद्ध चैतन्यस्वरूप को माना कि यह मैं हूँ, जो अमूर्त है तो उसके ऊपर उस गाली का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । वह जानता है कि यह तो एक अमूर्त चैतन्य चिह्न अंतस्तत्त्व है, उसे बुरा न लगेगा, यह मैं चैतन्यस्वरूप हूँ अन्य कुछ नहीं, ऐसी जो दृढ़ता है, ऐसा जो निर्णय है, यह निर्णय इस आत्मा को पार कर देता है । इसी निर्णय के बल पर इसी ज्ञान और रमण के व्यापार से जैसे कर्म कटते हैं, दूर होते हैं वैसे ही कर्म कटते है, कर्म दूर होते हैं और जो-जो कुछ बात चाहिये, वह सब बात इन ही एक चैतन्य प्रभु की उपासना के प्रसाद से बन जाती है, तो ऐसा अपने आत्मस्वरूप का ध्यान बनायें और उसमें अनुभव करें कि यह मैं हूँ, देखो प्रयोग का फल है, गप्प का फल नहीं होता । अपने ज्ञान को इस तरह ढालें, ज्ञान में अपने स्वभाव को इस तरह लें और उस ही में यह मैं हूँ, ऐसा अनुभव करें और इससे अन्यथावाद में कभी भी भ्रम न करें, अगर ऐसी दृढ़ता है, भीतर में ऐसा प्रयोग है तो उसके कर्म अवश्य कटेंगे, वह प्रभु अवश्य होगा, संसार के संकटों से सदा को छुटकारा पायेगा । प्रयोग करें केवल गप्प से कोई चीज नहीं मिलती और जो प्रयोग करने चलेगा उसके बाहरी बातों से उपेक्षा होगी । इसी को कहते कि उसने अपने में नियंत्रण किया । तो आया ना संयम, आया ना चारित्र । आत्मा में मग्न होने का तरीका ही है संयम ।
222―आत्मसंयमन के प्रयोग का अनुरोध―अपने में आपका नियंत्रण होने से आत्मा में आत्मा का अनुभव जगेगा । प्रयोग करें, प्रयोग करने में भी कुछ पराधीनता नहीं हैं जैसे लोग कहने लगते कि मेरे पास धन नहीं तो कैसे धर्म करूँ, ऐसी अधीनता धर्म में नहीं है, क्योंकि धर्म तो अपने ज्ञान से अपने आपमें अपने स्वभाव का अनुभव करना बस यही प्रयोग है । हम ज्ञान को ऐसा प्रवर्तावें कि हमको यह ज्ञानस्वरूप दृष्टि में आये और उसी रूप अपना अनुभव बनें । यों समझो जैसे कोई बाबूजी कलकत्ता जा रहे थे तो पास की सेठानी आयी । एक सेठानी बोली बाबूजी आप कलकत्ते से हमारे मुन्ने को खेलने का हवाई जहाज ले आना, जो बटन दबाने से चलता । कोई सेठानी बोली कि बाबूजी हमारे मुन्ने को खेलने का रेल का इंजन ले आना, जिसमें बटन दबा दो तो चलने लगता । यों किसी सेठानी ने कुछ कहा किसी ने कुछ । अब वहाँ एक गरीब बुढ़िया दो पैसे लेकर आयी और बोली―बाबूजी हमारे ये दो पैसे ले लो, जब आना तो कलकत्ता से हमारे मुन्ने के खेलने के लिए मिट्टी का खिलौना ले आना । तो बाबूजी बोले―बुढ़िया माँ, मुन्ना तो तेरा ही खिलौना खेलेगा, बाकी सेठानियाँ तो केवल गप्प करके चली गई । तो इसी तरह आत्मसंतोष होना, आत्मतृप्ति होना, कर्म करना, मोक्षमार्ग में लगना ये सब बातें वही पायेगा जो प्रयोग करेगा । संयम से रहे, ज्ञान को अपने में जोड़े, सब जीवों को समान मानें, किसी से घृणा न करें, अपने में अहंकार न रखें, मैं तो ज्ञानी हूँ, बाकी तो सब बेवकूफ हैं, यह भाव मिटे इतना प्रयोग करना पड़ेगा अपने आपको अपने अंदर अपने स्वरूप को निहारने में इतना अपने को विनयवान होना होगा कि सब जीवों में एक रस अपने को देख लेवे, कहीं किसी से कोई मोह ममता नहीं हो । एक शुद्ध चैतन्यस्वरूप को निरखते हुए, ऐसा ज्ञान का प्रयोग बने, आत्मा का अनुभव बने । आत्मा का अनुभव केवल गप्प से नहीं बन सकता । ये तो शब्द हैं, बोलने में आते हैं । नाटक खेलने वाले बालक भी तो इस तरह की कला खेल लेते हैं, वे भी बड़े ऊँचे-ऊँचे कलात्मक ढंग से शब्द बोल लेते हैं, तो मात्र शब्द बोल लेने से काम न चलेगा, बोल लिया कि चिदानंद का निधान भगवान आत्मा, मगर ऐसा बोलने भर की आदत बनी रही, केवल ऐसे रटे शब्द भर बोलते रहे तो उससे लाभ क्या । उपयोग करें भीतर में, उपाय बने भीतर में, और और जो बातें उपाय की होती हैं वे भगवान सर्वज्ञदेव की ध्वनि परंपरा से चले आये हुए उपदेश का सब प्रताप है―भाई ऐसे चलो, ऐसे अष्टमूल गुणों का पालन करो, पाँच प्रकार के पापों का त्याग करो, अभक्ष्य न खाओ, मिथ्यात्व न सेवो, आत्मा को समझो, आत्मा में रमण करो । करना यह ही तो है द्वैत से हटना और अद्वैत में आना । अपने आपके स्वरूप में मग्न होना । प्रयोग करें और प्रयोग करके इस तरह जानें कि यह तीन रूप है―दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप मगर एकस्वरूपता उसने नहीं छोड़ी, जो स्वरूप एक चैतन्यरूप है उस ही रूप अपने को अनुभव करो । ऐसा किए बिना साध्य की सिद्धि कभी हो नहीं सकती ।