वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 92
From जैनकोष
चित्स्वभावभरभावितभावाभावाभावभावपरमार्थतयैकम् ।
बंधपद्धतिमपास्य समस्तां चेतये समयसारमपारम् ।।92।।
802―ज्ञानी का कार्यक्रम―ज्ञानी जीव ने अपने आपमें शाश्वत अंत:प्रकाशमान चैतन्यमात्र स्वरूप को देखा है, जाना है, अनुभव किया है । उस ही पर दृढ़ रहा है, अतएव उसके कोई नयपक्ष नहीं है । तो ज्ञानी जीव की दृष्टि अपने आपके सहज ज्ञानस्वरूप पर है और इस ही स्वरूप में यह मैं हूँ ऐसा दृढ़ निर्णय किया है तो अब इस दृष्टि से भगवान केवली की पद्धति और इस ज्ञानी की इस पद्धति में कोई खास अंतर नहीं रहा, क्योंकि भगवान केवली केवल विश्व के साक्षी हैं जाननहार हैं, इस कारण श्रुतज्ञान के अंशरूप निश्चय और व्यवहार का कोई पक्ष नहीं है क्योंकि विषय को जानता भर है तो यहाँ भी ज्ञानी ने यद्यपि केवलज्ञान की तरह प्रकट ज्ञानमात्र की स्थिति तो नहीं पायी लेकिन उसकी केवल एक अखंड ज्ञानस्वरूप ही दृष्टि है, इस कारण वह भी नयपक्ष को जानता भर है किंतु ग्रहण नहीं करता । वह विकल्प मात्र को भी हितरूप नहीं समझता । तो ऐसी स्थिति में इस ज्ञानी ने इस परमार्थ चैतन्यस्वरूप को ग्रहण किया और बंध की पद्धति को दूर किया । अब यह समस्त विकल्पों से दूर होता हुआ अपने आपमें उमंग ला रहा है कि यह जो आत्मस्वरूप अनुभूतिमात्र समयसार हूँ सो मैं इस अखंड समयसार का ही चेतन करता हूँ, मैं विकार में नहीं पड़ता क्योंकि विकार मेरा स्वरूप नहीं, मैं बाहरी पदार्थों में न पडूंगा, क्योंकि ये सब प्रकट भिन्न हैं मैं तो अपने परमार्थ स्वरूप को ही चाहूँगा अर्थात् उस ही में यह मैं हूँ ऐसा अनुभव करता हुआ विश्राम पाऊंगा ।