वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 91
From जैनकोष
इंद्रजालमिदमेवमुच्छलत्पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः ।
यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्मह: ।।91।।
786―चैतन्यतेज विस्फुरन से इंद्रजाल का समापन―मनुष्यों के चित्त में निरंतर दुःख बना रहता है, कोई दुःख प्रकट होता है, कोई दुःख सुख के रूप में प्रकट होता है । संसार के सारे सुख भोगते समय भीतरी हालत देखो तृष्णा, प्रतीक्षा, इच्छा और पर का झुकाव ये सब बातें होने के कारण अंत:क्लेश ही रहता है, मानता वह सुख है, बस यह ही सब एक इंद्रजाल है । इंद्रजाल का अर्थ है इंद्र का जाल, इंद्र मायने आत्मा, आत्मा का जो विकल्प जाल है उसे कहते हैं इंद्रजाल । यह इंद्रजाल कैसा बढ़ रहा है । इससे बड़े-बड़े विकल्पों की लहरें उठ रही है । इस इंद्रजाल को समाप्त करने का ध्यान किसी विरले भव्य को होता है, नहीं तो धर्म का भी नाम लेकर इंद्रजाल किया जा रहा । धर्म वह जाने ही क्या जिसने कर्म शरीर विकारों से निराला केवल विशुद्ध एक चैतन्य स्वरूप को अनुभव में नहीं लिया उसके लिए धर्म कोई वस्तु ही नहीं है । वह जानता ही नहीं कि धर्म क्या है? अगर लोक में धर्म की प्रशंसा सुनते हैं और भीतर में सुख की आशा लगी है, इस भव में भी सुखी हों, अगले भव में भी इंद्र वगैरह बन जायें ऐसी उसकी एक खोटी रुचि है और धर्म के प्रसाद से सब होता है ऐसा सुन रखा है सो इस कारण धर्म के नाम पर बड़े-बड़े श्रम करते हैं ये पुरुष और कोई तो धर्म के नाम पर ऊंचे से ऊंचे व्रत रखते, सब कुछ त्याग भी देते, निर्ग्रंथ भी होते, मुनिपद में भी रहते और भीतर में मैं व्रत पालता हूँ, मुझे यो चलना चाहिए मैं मुनि हूँ, साधु हूँ, मुझे यों चलना चाहिए, इन विकल्पों को गूंथता है । धर्म वहाँ किया नहीं । गृहस्थ भी धर्म के भाव से काम तो करता है मगर जब तक उस ज्ञानस्वभाव का अनुभव न बने तब तक यहाँ भी वह धर्म नहीं पा सकता । हाँ दान करना, त्याग करना, व्रत करना, सेवा करना, धर्म होगा, पार हो जायेंगे, इतना विकल्प रहता है । हालाँकि ये सब बातें करने में आयेंगी । व्रत, समिति, गुप्ति, निर्ग्रंथ दशा ये भी सब आयेंगे । दान, पूजा, त्याग ये भी गृहस्थ के आयेंगे, मगर वह एक बूटी नहीं पायी, जिस बूटी के पा लेने पर नियम से यह इंद्रजाल दूर हो जायेगा । वह बूटी क्या है जिसका विस्फुरण सारे विकल्प जालों को इंद्रजालों को नष्ट कर देता है? वह मैं यह चैतन्य तेज ही तो हूँ ।
787―भिन्न पदार्थों का विकल्प तोड़कर अविकल्प चित्स्वरूप के आश्रय का प्रभाव―कोई भी चीज होती है अपने आप होतो है दूसरे की दया पर किसी की सत्ता नहीं होती । जो है सो अपने आप है । मैं अपने आप क्या हूँ, यह दृष्टि में आये बिना धर्म रंच नहीं हो सकता । पुण्य तो कीड़ियों को भी कुछ खिला पिला दिया तो हो गया, पशुपक्षियों की कुछ दाने डाल दिया तो पुण्य हो गया, मगर पुण्य-पुण्य से पूरा नहीं पड़ता । संसार के सुख भोगने से पूरा नहीं पड़ता । उपाय वह बनाना होगा कि जिससे यह जन्म मरण सदा के लिए मिट जाये । यह क्या खटपट कि पहले भव में वहाँ जो बालबच्चे होंगे उनमें ममता की, सब वहाँ छोड़ कर आये, इस भव में जिनका समागम मिला उनमें ममता कर रहे, छोड़कर तो सब जाना ही होगा, आहा कितना अज्ञान । हालांकि गृहस्थी में रहकर प्रेम से रहना चाहिए, वह तो कर्तव्य है, मगर अज्ञान सहित रहना चाहिए क्या ? क्या यह भी कर्तव्य है? जैसी जो बात है सही-सही उसे जानते हुए घर में रहना अच्छा है या झूठा ज्ञान रखकर कल्पनायें करना, अज्ञान बसाकर रहना अच्छा है? यह तो विवेक बतायेगा कि घर में किस तरह बोलें, कैसा प्रेम रखें, कैसे अर्थ पुरुषार्थ भी करें, कमाई भी करें, उसमें फर्क नहीं आता, मगर जो अज्ञानपूर्वक रह रहा, ये ही मेरे सब कुछ है, इन्हीं के लिए मेरा तन, मन, धन, प्राण सब कुछ हैं, मेरा और कुछ दुनिया में है ही नहीं, ये ही मेरे लिए सब कुछ हैं ऐसा जिसके अज्ञान बसा हो वह धर्म के नाम पर चाहे तपश्चरण करे, व्रत करे, धन भी खर्च करे, कुछ भी करे मगर धर्म रंच मात्र भी नहीं होता । धर्म हाथ से नहीं टपकता, धर्म शरीर से नहीं टपकता, धर्म तो ज्ञान का नाम है । सही ज्ञान हो और उस पर हम अडिग रह सकें बस उसी का नाम धर्म पालन है तो जो विकल्प से पक्षपात से अलग हो गया है, जिसको अपने आत्मकल्याण की तीव्र रुचि बन गई है ऐसा पुरुष अपने आपमें अनुभव कर पाता है कि मैं वह तेज हूँ, मैं वह चैतन्य प्रभावान हूँ कि जिसकी कणिका भी स्फुरित होवे याने इस ज्ञानस्वरूप पर हमारी दृष्टि जाये और यह मानकर रह जाऊं कि यह मैं ज्ञानमात्र हूँ । तो यह जागरण इतने अद्भुत प्रताप वाला है कि भव-भव के बांधे हुए कर्म और ये सारे विकल्प इंद्रजाल ये क्षणभर में ध्वस्त हो जाते हैं ।
788―अनहोनी का लगाव त्याग देने से दुःखों का प्रशमन―दुःख क्या है जीव पर? परवस्तु के बारे में कुछ ख्याल बनाना और चाहें कि यह वस्तु यों बन जाये और यों नहीं बन रही, लो बस यह दुःखी हो रहा । अब बतलावों ये दुःखी हो रहे तो क्यों दुःखी हो रहे? जीव है तो उनके साथ कर्म हैं, अजीव पदार्थ हैं तो उनका उनमें परिणमन है । मेरे से क्या नाता है, क्या बात है जो किसी पदार्थ के किसी भी तरह के परिणमन से मेरे में कोई उथल पुथल ऊँच नीच बात बने जैसे अग्नि में कितना ही तपाया जाये सोना तो वह सोना कहीं लोटा नहीं बन जाता, सोना सोना ही रहता है ऐसे ही जिसने अपने ज्ञानस्वरूप का दर्शन किया है, अपने सहज ज्ञानस्वरूप का अनुभव किया है । उस पर कितने ही कर्म लद जायें, कितने ही कर्म उदय में आयें, प्रचंड विपाक से भी उपद्रवित हो, फिर भी उसे कोई कष्ट नहीं होता । लोग अचरज करने लगते, सुकुमाल जिनका शरीर इतना सुकुमाल और निर्ग्रंथ होने के बाद गीदड़ी खा रही है और उसे कोई कष्ट नहीं । वह कौन सी बूटी पा लिया कि ऐसी दशा भी हो कि गीदडियां खायें, शेर चीथें तो भी कष्ट का अनुभव न हो? तो वह बूटी बस यही है निज चैतन्यस्वरूप में अहं की दृढ़ता । शरीर जरा निकट की चीज है सो इसके बारे में कुछ समझना कठिन सा लग रहा, मगर जो मकान आपका आप से काफी दूर है, क्या उसके बारे में कभी ऐसा ख्याल आता है कि यह मकान न तो मेरे साथ आया है, न मेरे साथ अब भी रह रहा है और न मेरे साथ जायेगा, फिर इससे मेरा क्या मतलब? यदि इस प्रकार का कभी विचार बन जाये तो समझोगे कि उस घर विषयक कष्ट दूर हो गया कि नहीं । तो इन बाहरी पदार्थों में जो भी बात बने उसमें कष्ट न मानें । यह बात बन सकती है शुद्ध विचार के द्वारा । तो शरीर पर भी कोई आफत आये और रंच भी खेद न माने यह भी बात बन सकती है इसी अंत:प्रकाशमान चैतन्य महाप्रभु की लगन से ।
799―आत्मस्वभाव धर्म की लगन वाले के धर्म प्राप्ति की संभावना―धर्म कोई करना चाहता है क्या, पालना चाहता है क्या? अगर भीतरी भाव बन गया कि मुझे धर्म सिवाय कुछ मतलब नहीं और फिर मुझे धर्म न मिले यह हो नहीं सकता । जिसके भीतरी भावना बन गई कि आत्मज्ञान बिना सब बेकार, आत्मज्ञान ही मेरा सर्वस्व शरण है, उससे ही मेरा संबंध है वही एक धुन रहे अन्य से क्या मतलब । उसको आत्मज्ञान मिलकर ही रहेगा । तो संसार के बहुत विकल्प जाल हैं उनसे छुट्टी पा लेना चाहिए । धर्म के बारे में नाना ख्याल कर करके जो हैरानी बनाया है उससे छुट्टी पा लेना चाहिए । कभी तत्त्वचर्चा का प्रसंग आये उसमें यह भी बोल रहे वह भी बोल रहे, विवाद मच गया, ऐसा विकल्पजाल उठ गया, इन विकल्प जालों से भी छुट्टी पाना चाहिए । कभी सामायिक के नाम पर अकेले बैठे हैं वहाँ ही मन में बात आ रही कि बहुत बढ़िया बात है, मैं अपने मित्रों को बताऊँगा यह बहुत अच्छी बात है मैं उसको सुनाऊँगा, इनको धर्म में लगाने की बात करूंगा....यों नाना विकल्पजाल उठें, इन सब विकल्प जालों को खतम कर दें, विकल्पों से खतम कर दें, विकल्पों से रहित बन सकें, ऐसा कोई प्रयास है तो यही है कि अपने आपका जो सहज ज्ञानज्योतिस्वरूप है बस उससे ही लगाव लगाना कि मैं तो यह ही हूं, अन्य कुछ नहीं हूँ, यह ही मेरा है अन्य कुछ मेरा कहीं नहीं । मैं इसमें ही रहता हूँ, अन्य किसी में नहीं रहता, यह ही मैं हूँ अन्य कुछ नहीं करता यह ही मैं भोगता हूँ अन्य कुछ नहीं भोगता हूँ । ऐसा आत्मज्ञान के प्रति दृढ़ लगाव बने तो ये सारे विकल्पजाल ये सारे कष्ट एक साथ समाप्त हो सकते हैं । मगर धुन चाहिए । अगर कुछ काल समय मिला तो उस समय कुछ धर्म की बात कर लिया, यह ढंग नहीं है धर्म का । जितना जरूरी समझा जा रहा है, कमायी, दूकान, खाना, पीना, घर में कुछ बात करना, इससे भी अधिक जरूरी है एक घंटा आधा घंटा की नियमित बात, जिसे समझें कि इसके बिना तो मेरा गुजारा नहीं, हमें स्वानुभव करना है, हमें अपने ज्ञान में अपने ज्ञान को बसाना है यह काम हमारा सबसे अधिक मुख्य है, क्योंकि घर तो मिटेगा, संयोग विघटेगा, शरीर छूटेगा, क्षेत्र यह सब दूर हो जायेगा, इनके लगाव से मिलना क्या है हमें? और मेरा आत्मस्वरूप, मेरा यह ज्ञानस्वरूप मेरे साथ रहता है, इसकी सम्हाल कर लें तो जहाँ होऊँगा वहीं आनंद है । तो जिसके चित्त में यह बात समा गई कि आत्मज्ञान, आत्मरमण, आत्मप्रतीति ये ही मेरे लिए मुख्य काम हैं इस दुर्लभ मानवजीवन में अन्य कुछ दूसरा कोई काम मेरे करने के लिए नहीं है, कदाचित् मान लो नुकसान होते-होते आधा धन रह गया तो उससे इस आत्मा का कोई नुकसान हुआ क्या? और एक आत्मा की सुध छोड़ दो तो उससे नुकसान तुरंत हो गया ।
800―ज्ञानबल व आत्म साहस से आत्म समृद्धि की अवश्यंभाविता―जब तक अपने आपका लगाव न बने, कल्याण की बात मन में न आये कि मुझको तो आत्मा का उद्धार करना है, विशेष इनमें नहीं पड़ना है, कर्तव्य निभाते रहना है, बाकी इनकी ये जाने । इनके कर्म इनका उदय इनके साथ है, इनका मैं कुछ नहीं कर सकता । तब फिर जिस पर हमारा अधिकार है आत्महित पर, आत्मज्ञान पर, अपनी सम्हाल पर, अपने में अपने आप निरखते रहें, इस बात पर हमारा अधिकार है । हम चाहें सो नियम से करके रहेंगे, बाकी बाहरी बातों पर हमारा रंच भी अधिकार नहीं । जिन जिनके भोगोपभोग में आपका धन लगेगा उन उनके पुण्य का उदय निमित्त है जो आप इतनी सेवा श्रम तकलीफ उठाकर अपनी जिंदगी बिता रहे । आप तो मानते हैं कि मैं धन कमाने वाला हूँ पर आप धन कमाने वाले नहीं । जिन जिनके काम वह धन लगेगा उन उनका पुण्य कमाने वाला है । होने दो, ये सब बातें गौण हो जायें और मुख्य रह जाये केवल आत्महित फकीर सा बनकर उसके धुनिया बनकर आत्मभक्ति करना । जिसकी धुन होती है, वह जगह-जगह पूछता है, उसकी चर्चा करता है, रात-दिन उसे चित्त में बैठाले रहता है, तो आप अपने आत्मस्वरूप को रात दिन बैठालते हैं क्या? आत्मस्वरूप के लिए कुछ तन, मन, धन, वचन लगाते हैं क्या? उस आत्मबोध के लिए आपको भीतर में कुछ तड़फन होती है क्या? यह ही चाहिए और कुछ न चाहिए, ऐसा कभी दृढ़ निर्णय बना है क्या? अगर नहीं बना तो बस यही समझिये कि धर्म के नाम पर भी एक आरामतफरी विनोद हुआ करता है तो वह विनोदमात्र है । उससे कहीं मोक्षमार्ग नहीं मिलता । मोक्षमार्ग कैसे मिलता? बाहरी विकल्पों को छोड़कर आत्मा का ज्ञान किया जाये और स्याद्वाद से, अनेकांत से आत्मा की समस्यायें सुलझायें और फिर किसी भी नय का पक्ष न कर जानकर एक परम विश्राम लें । ऐसा जब हम अपना उपयोग बनायेंगे तो मेरे ज्ञान में जगता हुआ चैतन्य चकचकायमान होगा । उस उज्ज्वल ज्ञानस्वरूप को हम एकमत होकर जब उस पर दृढ़ होंगे तो सारी विघ्न बाधायें दूर होंगी, पापरस दूर होगा, पुण्यरस बढ़ेगा, फिर भी उस पुण्यरस से लगाव नहीं रखना ऐसी कोई अपनी स्थिति बना सके तो समझिये कि हम धर्म पर चल रहे ।
801―धर्म मार्ग पर चलने वाले का परिचय व प्रभाव―धर्म मार्ग पर चलने वाले की पहिचान यह है कि जो धन चाहता है वह धनिकों के पास अधिक बैठेगा, जो गप्प चाहता है वह गप्प करने वालों का संग अधिक करेगा । जो संसार का सुख चाहता है वह जिस किसी को भी धर्म पुण्य मानकर उनकी क्रियावों में समय गुजारेगा । जो आत्मज्ञान चाहता है वह आत्मज्ञान की साधना बनायेगा, शास्त्रास्वाध्याय, अध्ययन, चिंतन, मनन, आत्मज्ञानियों का संग प्रसंग अधिक करेगा । तो जिससे अपने आत्मतत्त्व का ज्ञान सुदृढ़ हो ऐसा उपाय मनुष्यभव में बना सके तब तो यह दुर्लभ नरभव सफल है, नहीं तो जैसे अनंत भव गुजरे, देव भी बने, राजा महाराजा भी बने लेकिन जैसे वे भव बेकार गए, व्यर्थ गए, बरबादी के साधन बनकर गए, ऐसे ही यह मनुष्यभव भी बरबादी का साधन मात्र बनेगा । इसमें कोई लाभ न मिलेगा । इन सांसारिक प्रसंगों में सिर हाथ पटकेंगे, परिश्रम करेंगे, विह्वल होंगे और इस-इस तरह से जिंदगी पार करेंगे तो हाथ कुछ न आयेगा । हस्तगत तो रत्न उनके हैं जिन्होंने अपने इस सहज आत्मस्वरूप का परिचय पाया ध्यान करके, मनन करके, सुन-सुन करके । कोई एक दिन में यह बात नहीं आती । सब जिंदगी लगाना पड़ेगी । जितने दिन शेष रह गए हैं सब दिन पूरे के पूरे कुछ न कुछ समय प्रतिदिन अनिवार्य लगाना पड़ेगा और उसका मनन ध्यान बनाना होगा । जिस क्षण अपने आपको एक विशुद्ध ज्ञानस्वरूप ज्ञान में आ जायेगा उस दिन से आपका नया दिन बनेगा और एकदम उन्नति तरक्की आयेगी आप शांत होंगे, धीर होंगे, वीर होंगे, निराकुल होंगे । तो वह चैतन्यरूप तेज जिसकी मुद्रा भी स्फुरित हो जाये तो सारे इंद्रजाल को खा डाले, ऐसा अद्भुत तेज यह मैं ही तो हूँ । आनंदधाम ज्ञानमात्र सर्वस्व यह मैं स्वयं अपने स्वरूप में हूँ, ऐसा ध्यान बने तो यह तो है अपने लिए शरण, बाकी किसी भी चीज का शरण गहना चाहें तो धोखा मिलेगा । अपने आत्मा भगवान की शरण गहने से ही अपना कल्याण है ।