वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 9
From जैनकोष
उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं, क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम् ।
किमपरमभिदद्मो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मिन्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ।।9।।
124―स्याद्वादसम्मत नयविधि से वस्तुपरिचय―जिस अखंड निज चैतन्य स्वरूप के दर्शन का संदेश दिया है आचार्य संत ने पूर्व कलश में, उस अखंड चिद्रूप को समझने का उपाय है क्या? एकदम ही कोई उस शुद्धनय के विषयभूत में प्रवेश करने में समर्थ नहीं है, तो उसके जानने के कोई उपाय तो हैं ही । उन उपायों में पहले नय की ही बात ले लीजिए । वस्तु प्रत्येक द्रव्यपर्यायात्मक है । भले ही जब उसके अखंड स्वरूप पर दृष्टि देते हैं तब वहाँ, द्रव्यपर्याय का विकल्प नहीं रहता, किंतु द्रव्य, पर्याय कहीं मिट नहीं गई, यह उस द्रष्टा की एक समाधि की स्थिति है, पर द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु सदा रहती है । जिसे कहो बनना, बिगड़ना और बना रहना । ये तीन बातें प्रत्येक सत् में होती है जिसका दूसरा नाम है उत्पाद व्यय ध्रौव्य । उत्पाद, व्यय तो कहलाये पर्याय और ध्रौव्य कहलाया द्रव्य । जो बने बिगड़े वह तो है परिणति और जो निरंतर बना रहे वह है द्रव्यस्वरूप । तो पर्याय न हों तो कोई सत् हो सकता है क्या? और, द्रव्यत्व न हो, ध्रुवता न हो तो कोई सत् रह सकता है क्या? प्रत्येक सत् द्रव्यपर्यायात्मक है । तब उस पदार्थ के विषय में जानकारियाँ जितनी चल सकेंगी वे द्रव्य और पर्याय की दृष्टि के आधार पर चलेंगी । द्रव्यदृष्टि से जाना कि पदार्थ नित्य है, पर्यायदृष्टि से जाना कि पदार्थ अनित्य है । तो इन दोनों दृष्टियों का आधार लेकर प्रतिपादन करना सो स्याद्वाद है । स्याद्वाद की कहीं मिट्टी पलीत न करना कि यों दो धर्म रख दो, जैसे जीव नित्य है अनित्य नहीं, यह स्याद्वाद की मिट्टी पलीत क्यों कहलाती कि दोनों धर्मों में विरुद्ध कुछ नहीं कहा गया । नित्य है उसका भी निष्कर्ष हैं कि ध्रुव है, अनित्य नहीं है इसका भी निष्कर्ष है कि ध्रुव है । यहाँ विरुद्ध दो धर्मों में एक वस्तु में अवस्थान नहीं दिखाया गया है, जबकि, वस्तु द्रव्यदृष्टि से नित्य है, पर्यायदृष्टि से नित्य नहीं है । यों नित्यपना और अनित्यपना ये दोनों परस्पर विरुद्ध धर्म हैं और उनका एक सत् में आवास बताया गया है । आवास कहीं भिन्न-भिन्न समय में नहीं है । दोनों ही धर्म एक साथ हैं । कहीं ऐसा नहीं है कि उत्पाद व्यय कहते हों कि अब यह ध्रौव्य अपनी कला खेल रहा है, इसको निपटने दें, फिर हम अपना काम करेंगे या उत्पाद व्यय ध्रौव्य से कह दें कि भाई तुम को बहुत समय हो गया, अब तुम चुप बैठो, अब हमें काम करने का मौका दो । हम भी सत् में अपना काम करें या ध्रौव्य उत्पाद से प्रार्थना करें । यह तो वस्तुगत धर्म में है, दोनों ही तथ्य याने द्रव्यत्व व परिणमन एक साथ वस्तु में हैं ।
125―द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिकनय का विषय एवं नयपरिचय का प्रयोजन―पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मक है और द्रव्यदृष्टि से वस्तु का परिचय बनाया और पर्यायदृष्टि से परिचय बनाया इसी का ही नाम है द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय । तो द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु में जो द्रव्य का मुख्यतया अनुभव करे सो द्रव्यार्थिकनय । वहाँ भी यह न जानना कि द्रव्यार्थिकनय का विषय एकमात्र द्रव्यत्व है । विषय तो किसी भी ज्ञान का वस्तु ही होता है और वह द्रव्यपर्यायात्मक है, पर द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु में द्रव्यत्व को मुख्यतया अनुभवें तो वह द्रव्यार्थिकनय है । इसी प्रकार ऐसा न जानना कि पर्यायार्थिकनय का विषय मात्र पर्याय है । विषय तो वस्तु ही रहेगा, क्योंकि अवस्तु किसी भी ज्ञान का विषय नहीं बनता । वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है । तो द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु में जब पर्याय को मुख्यतया अनुभवा जाता है तो वह पर्यायार्थिकनय कहलाता है । तो द्रव्यार्थिकनय से 9 तत्त्वों को देखो, पर्यायार्थिकनय से 9 तत्त्वों को देखो और उसमें परिचय बनाओ । जब उन 9 तत्त्वों को अभेद की अभिमुखता पूर्वक देखा तो यह ही द्रव्यार्थिकनय का विषय बना, जब भेद की अभिमुखता पूर्वक देखा तो यह ही पर्यायार्थिकनय का विषय बना । तो इन 9 तत्त्वों को जब द्रव्यपर्याय दोनों से न छुआ हो मात्र एक जीवस्वभाव को देखा उस समय तो नयश्री उदय को प्राप्त नहीं होती । -यहाँ नय अस्तमित हो गया । देखिये―इस स्थिति में, इस अनुभव की स्थिति में जो विषय हुआ है वह एक है, इस प्रकार के विकल्प से भी रहित है । केवल एक स्वभावानुभव और सहज आनंदमय स्थिति है, वहाँ यह मैं एक हूँ, इस तरह की बुद्धि जगे तो वही सब व्यक्तिपना आ जाता है । तो ऐसे उपयोग में व्यक्तित्व से रहित, केवल, द्रव्यपर्याय से आलीढ नहीं, किंतु एक स्वभावरूप वस्तु का मुख्यतया अनुभव करे, वहाँ नयश्री उदय को प्राप्त नहीं होती । देखो अखंड तत्त्व की समझ के लिए नयों का प्रकाश चल रहा है, पर नय भी एक-अपने प्रयोजन में ऐसे बँधे सजे रहते हैं कि वे अपने को बलिदान करके भी इस साधक को एक लक्ष्य में पहुंचाने में सहयोगी होता है । तो पदार्थों के जानने के उपायों में ये नय बहुत सहयोगी है ।
126―प्रमाण से वस्तु का पूर्ण परिचय व प्रमाण परिचय का प्रयोजन―भैया ! नयों से सब कुछ जानें पर, वहाँ कोई नयों में एकांत ही कर लें, अन्य नय की अपेक्षा न करे अथवा दोनों को मान ले, मगर निरपेक्ष माने जैसा अनेक दार्शनिक मानते हैं-अणु दो प्रकार के होते हैं नित्य अणु, अनित्य अणु, कारण अणु, कार्य अणु, तो नित्य अनित्य दोनों मानकर भी यहाँ स्याद्वाद की बात नहीं आयी । तो नयों की एकांतिकता वस्तुस्वरूप को सिद्ध नहीं करती । प्रमाण पदार्थों के स्वरूप को सिद्ध करता है । प्रमाण सर्वनयात्मक है । प्रमाण सर्वांगज्ञान करने वाला है, उस प्रमाण की विधियां दो हैं―प्रत्यक्ष विधि और परोक्ष विधि । जहाँ इंद्रिय मन परनिमित्त का योग लेते हुए जो ज्ञान चलता है वह वह तो परोक्ष विधि का प्रमाण है और जो परनिमित्त के योग बिना केवल एक आत्मज्ञान, आत्मबल ज्ञान से जो परिचय चलता है वह है प्रत्यक्षविधि । तो प्रमाण यद्यपि सर्वांगात्मक ज्ञान है तो भी अनुभव इससे परे है । वहाँ किसी प्रकार का विकल्प नहीं । जब ज्ञान निज ज्ञायकस्वरूप अंतस्तत्व में एकरस हो जाता है, तब सर्वांगात्मक यह अनुभव बनता है । जहाँ विकल्प टल जाते हैं ऐसे अनुभव की स्थिति में प्रमाण भी अस्त को प्राप्त हो जाते हैं । यों नय और प्रमाण ये परिचय के मुख्य साधन हैं । मगर ये साधन अपने लक्ष्य में जब यह जीव पहुंचता है अनुभव के निकट तो ये नय प्रमाण अस्त को प्राप्त हो जाते हैं, अहा, यह नय व प्रमाण इस ही में मग्न रहता है कि साधक अपने प्रयोजनभूत लक्ष्य में पहुंच जाये ।
127―निक्षेप से वस्तुपरिचयव्यवहार व निक्षेपकों का मूल प्रयोजन―अब नय और प्रमाण के आधार में एक बात और समझिये ― निक्षेप । निक्षेप कहते हैं न्यास को, व्यवहार को । ये चार प्रकार के होते हैं―नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्यनिक्षेप और भावनिक्षेप । नाम रख दिया अमुकचंद, अमुकलाल, अमुकप्रसाद । नाम निक्षेप की बात देखिये―व्यवहार में यह नाम निक्षेप कितना प्रयोजनवान है । नाम रखे बिना क्या कोई लेन-देन चल सकता? क्या कोई किसी को बुला सकता? क्या कोई किसी से कुछ बात कह सकता? कुछ भी तो नहीं काम चल सकता । नाम बिना जब लौकिक काम नहीं बनते तो फिर तत्त्वज्ञान के प्रसार का काम कैसे बन सकेगा? आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र आदिक ये सब नाम ही तो हैं । तो नामनिक्षेप बिना किसी प्रकार का व्यवहार नहीं चलता और तीर्थ की प्रवृत्ति भी नहीं करा सकते । तो यह नाम निक्षेप कितना सहयोगी है इसका आप लोग स्वयं अनुभव कर रहे होंगे । अगर नाम निक्षेप की बात न हो तो आपका यह विशाल मंदिर बनवाने का काम भी कठिन हो जाये । अभी तो किसी ने फर्श बनवाया, किसी ने वेदी बनवायी, किसी ने गेट बनवाया, सबके नाम उसमें लिख जाते हैं, नाम की वजह से ही आप मंदिर बनवा लेते हैं । अगर मान लो सबका एक नाम रख दिया जाये खचेडूमल, अब वहाँ कोई दान दे तो वहाँ नाम लिखा गया खचेडूमल । तो इससे तो उस दान देने वाले भाई को शांति न मिली, क्योंकि उसके मन में यह बात न आ सकी कि यह तो मेरा ही नाम लिखा गया । तो ये भिन्न-भिन्न नाम हैं, इनसे जो व्यवहार चलता है वह नाम निक्षेप है, और जो नाम से समझा उसमें जो यह जानकारी की कि जिसका यह, नाम है वह यह चीज है । जैसे मानों ग्रंथ ही पढ़ रहे उसमें लिखा है द्रव्यार्थिक, बाँचा तो शब्द । नाम का ही तो बोध किया । अब उसमें यह परिचय बनाया कि जिसका यह नाम है वह यह तत्त्व है, यह विषय है । लो स्थापना हो गई । वहाँ स्थूल रूप से जो व्यवहार में स्थापना चलती है, मूर्ति में यह पार्श्वनाथ हैं, यह आदिनाथ हैं, अथवा जिनका स्टेचू बेना―महात्मा गाँधी का या अन्य किसी नेता का या कोड़ी शतरंज में यह बादशाह है यह वजीर है आदिक जो स्थापना का भाव है उसका व्यवहार स्थापनानिक्षेप का स्वरूप है । पर मूल में देखो कि प्रत्येक, शब्दज्ञान के साथ स्थापना लगी हुई है और साथ ही उसमें पूर्वापर परिणतियों का भी ध्यान जमा हुआ है, वह द्रव्यनिक्षेप है, और उसमें वर्तमान पर्याय का जो बोध चल रहा वह भावनिक्षेप हुआ । तो ये चारों निक्षेप ज्ञान में सहयोगी हैं । अब इन निक्षेपों के द्वारा जब हम आगे बढ़े और नय प्रमाण से सब प्रकार का परिचय पाया, अब सब कुछ जानने के बाद एक अखंड ज्ञानस्वभाव का जो एक बाह्य परिचय हुआ उस ही परिचय को ज्ञान में ढाला और ज्ञान द्वारा अपने ही इस ज्ञानस्वभाव को विषय बनाया और वहाँ जो एकरसता होने पर अनुभव जगा उस अनुभव की स्थिति में निक्षेप का पता ही नहीं । उससे अतीत यह अनुभूति का भाव है ।
128―अद्वैतानुभव का विश्लेषण―अखंड ज्ञायकतत्त्व जब एक अपने अनुभव में आता है, प्रमाण, नय, निक्षेप की तो बात क्या, कुछ द्वैत ही प्रकट नहीं होता, बुद्धि में नहीं हैं ऐसा यह अद्वैतानुभव है । कहीं यह न समझना कि उसने यह निर्णय किया हो कि जगत में मेरे सिवाय कोई दूसरा है नहीं । जगत में पदार्थ अनंत हैं । अनंतानंत जीव, अनंतानंत पुद्गल, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्यात काल द्रव्य है, यह सब है मगर यहाँ अनुभव की स्थिति में निज अद्वैत का अनुभव किया गया है । कहीं भी विकल्प नहीं चल रहे उस स्थिति की बात कही जा रही है कि सर्वंकष याने सारे विकल्प को जो दूर भगा दे, इस प्रकार का जो एक अखंड ज्ञानस्वरूप का अनुभव है वह अनुभव प्राप्त होने पर फिर द्वैत ही नहीं प्रतिभासित होता । इस प्रकार ग्रंथकार यहाँ प्रत्येक परिचयों में संकेत दे रहे हैं उस अखंड ज्ञानस्वभाव का । उस रूप जो अहं का अनुभव करे, मैं यह हूँ उसका बंधन दूर होता है, वह संसार से पार होता है, मुक्ति के निकट होता है । अपने आपको अनुभव करो कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञानमात्र अनुभव करना एक ऐसा अमृतपान है कि जिसमें जन्म जरा मरण रोग शोक चिंता विकल्प भय आदिक समस्त संकट अनुभव की निरख से एक साथ ही दूर होते हैं । सो यह निज ज्ञायक स्वभाव का अनुभव यही एक आचार्य संतों के समस्त उपदेशों का लक्ष्य है । वास्तविक परिचय तो अनुभव में मिलता है । परिचय तो लिया जाता है, लक्ष्य भी लेते हैं । जैसे खाने की चीज के रसों का परिचय लोग करते हैं कराते हैं, बोलते हैं, पर रसों का अन्य प्रकार से ज्ञान करना, बताना, बोलना और एक उसको खाते हुए में समझना जैसे इन दो समझों में अंतर है ऐसे ही इस ज्ञायक स्वभाव सहज परमात्मतत्त्व के परिचय में और अनुभूत होने पर होने वाले परिचय में ऐसा ही अंतर समझिये और प्रारंभ में यह ही तो एक अंतर बताया गया कि सम्यक से पहले होने वाला तत्त्वज्ञान मिथ्याज्ञान है और सम्यक्त्व होते ही वही तत्त्वज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है । क्या सम्यक्त्व से पहले ऐसा तत्त्वज्ञान था जो वस्तुस्वरूप के विपरीत था? वस्तुस्वरूप के विपरीत हो तो ऐसे ज्ञान द्वारा वस्तु का परिचय अनुभव सम्यक्त्व नहीं बन सकता । वह सारा तत्त्वज्ञान तो अनंतानुबंधी कषाय के उपशम, क्षय, क्षयोपशम का हेतुभूत है वह समस्त तत्त्वज्ञान सही है सम्यक्त्व होते ही वह सानुभव हो जाता है । जब अनुभव होता है उस समय प्रमाण, नय, निक्षेप आदिक कुछ भी उदय को प्राप्त नहीं होते ।
129―अखंड अंतस्तत्त्व के अनुभव में द्वैत की अप्रतिभातता―प्रकरण यह चल रहा है कि जिस समय अखंड निज चैतन्यस्वरूप का अनुभव होता है उस समय प्रमाण, नय, निक्षेप की तो बात ही क्या कहें कुछ दूसरी बात वहाँ प्रतिभात ही नहीं होती । ऐसी बात सुनकर कुछ अन्य दार्शनिक बड़े खुश होंगे । ज्ञानाद्वैतवादी यहाँ कह सकते हैं कि बहुत अच्छा कहा, और इतनी ही बात क्यों? कभी भी दूसरा कुछ है ही नहीं । बस ज्ञान ही ज्ञान सब कुछ है, ज्ञान के अतिरिक्त और कुछ नहीं, ऐसा अन्य दार्शनिक कह सकते हैं । हमको जो कुछ दिख रहा, जानने में आ रहा अमुक तमुक यह सब भ्रम है । यह सब ज्ञान की ही परिणति है । यहाँ कुछ है नहीं । और मोटे रूप से कोई यों सोच ले कि ज्ञान में आये तो हैं, ज्ञान में न आये तो नहीं है । इसी से बढ़कर यहाँ तक आरेका में चला जायेगा कि बस ज्ञान ही है अन्य कुछ नहीं है, पर यहाँ इसका यह अर्थ न लगेगा कि दूसरा कुछ है ही नहीं, किंतु ज्ञानानुभूति के समय में उस व्यक्ति के लिए, उस पुरुष के लिए दूसरा कुछ भी ज्ञान में प्रतिभासित नहीं हो रहा । चीजें तो सब हैं, सब बाहर पड़ी हैं अनंतानंत जीव हैं, अनंतानंत पुद्गल हैं, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्यात कालद्रव्य है, पर रहो । यहाँ यह बात बतायी जा रही कि जब यह ज्ञान बाहरी बातों का उपयोग तजकर केवल एक अपने स्रोतभूत सहज ज्ञानस्वरूप को ज्ञान में लेता है, देखता है और बड़े धीरे गुप्त अपने आपमें मिल करके उसके अंत: अनुभूति होती है उस अनुभव काल में वहाँ दूसरा कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता । विज्ञानाद्वैतवादी एक बौद्धों का भेद है । ये ज्ञान को नित्य नहीं मानते । मानते तो अनित्य ही हैं किंतु यह ज्ञान ही ज्ञान पदार्थ है, दूसरा और कुछ नहीं । तब दूसरे जो नित्य ज्ञानवादी हैं ब्रह्मवादी वे यहाँ प्रसन्न हो सकते । बहुत ठीक कहा जा रहा । ज्ञानमात्र है, ब्रह्ममात्र है और वह ध्रुव है, नित्य परिणामी है, वह ही जगत् में है, दूसरा और कुछ नहीं । सर्व वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन । दूसरा कुछ है ही नहीं । जो कुछ दूसरा नजर आता है वह सब इस ब्रह्म की ही पर्याय है । आरामं तस्य पश्यंति, न तं पश्यति कश्चन, लेकिन यह बात यहाँ नहीं कहा जा रही, क्या कहा जा रहा है सो सुनिये ।
130―स्व में उपयुक्त होने पर प्रमाणाबिखे निर्णीत भी अन्य संतों की अप्रतिभातता―इस अखंड चैतन्यस्वभाव के अनुभव के आने पर दूसरा कुछ भी प्रतिभात नहीं होता । इसके मायने है कि दूसरा सब कुछ है पर प्रतिभास नहीं होता । जो दार्शनिक यह कहते कि दूसरा कुछ है ही नहीं । केवल एक ज्ञानमात्र ब्रह्मस्वरूप ही तत्त्व है, अन्य कुछ नहीं, वे निष्पक्ष चिंतन करेंगे तो समझ लेंगे कि यह बात नहीं है । यह तो सब हम आपके अनुभव की बात कही जा रही है । तो ज्ञान का स्वरूप, ज्ञान का स्वभाव, ज्ञान की कला, जो कुछ है वह सब ज्ञान में आये ऐसा ज्ञान का स्वभाव है । यहाँ हम आप छद्मस्थ जो कुछ एक जगह ज्ञान लगाते हैं, जिसे अन्य जगह न लगायें तो वही प्रतिभास में आता और एक आत्मस्वरूप में लगाये तो वही-वही प्रतिभास में आता है, यह एक हमारी ही स्थिति है ऐसी, पर जो ज्ञानी हैं, प्रभु हैं जिसमें उपयोग जुड़ता नहीं, जोड़ना, लगाना नहीं पड़ता, उपयोग सहज चलता रहता उनको सब कुछ प्रतिभास हो जाता है । और यहाँ कुछ थोड़ा आया ना प्रतिभास, वहाँ उस पर यही मान बैठें कि दूसरी चीज कुछ नहीं है, तो ज्ञान का काम समाप्त है फिर ज्ञान ही कुछ नहीं, जीव ही कुछ नहीं तो फिर यहाँ चर्चा किसकी? इसलिए प्रमाण, नय, निक्षेप इनका भी महत्त्व है और यह पदार्थों का विश्लेषण कराता है, जानकारी कराता है, यों ही न कहना कि यह सब व्यवहार है । अरे भाई एक उपचार की चीज होती है । उसे तो उसी कथन रूप में पाने को झूठ बताया गया । उपचार के प्रयोजन को न दृष्टि में लेकर केवल जिन शब्दों में उपचार की कथनी की गई उन ही शब्दों में उपादानतया सही समझ लेना उसे कहते हैं उपचार, वह असत्य है । पर उपचार का भी नाम व्यवहार है और तत्त्व प्रकट करने का भी नाम व्यवहार है और प्रमाण, नय, निक्षेप के द्वारा वर्णन करना, कथन करना इसका भी नाम व्यवहार है । तो उपचार का नाम व्यवहार है, और उपचार के प्रकरण में कह दिया जाये कि व्यवहार झूठा है, जो जैसा कहा वैसा नहीं है और भाँति है, इससे सब व्यवहारों में यह बात लगा लेना मूढ़ता है । देखिये दूध अनेक प्रकार का होता है, गाय का दूध, भैंस का दूध, बकरी का दूध और एक आक का भी दूध होता है । यह आक का दूध ऐसा होता है कि इसके लग जाने से कहो आँखें फूट जायें, या कोई पी ले तो कहो मरण को प्राप्त हो जाये । अब कोई आक के दूध को ही दृष्टि मे रखकर यह कहने लगे कि दूध जहरीला होता है तो उसका यह कथन मिथ्या है । वहाँ यह समझना चाहिए कि आक के दूध के लिए ऐसा कहा गया है न कि गाय, भैंस, बकरी आदि के दूध के लिए । ये सब दूध तो बड़े पौष्टिक होते हैं । इनका प्रयोग तो घर-घर में होता है । ये सब दूध तो हम आपके लिए बड़े उपयोगी हैं । इसी वजह से खाने की चीजों में दूध को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है । तो यह व्यवहार कथन है, व्यवहार मिथ्या होता है, ऐसी एकांतिक घोषणा करना निपट अज्ञानता है । क्योंकि यहाँ विवेक न रहा । उपचार मिथ्या है, सो जिन शब्दों में कहा गया उन ही शब्दों में यदि कोई समझे तो वह मिथ्या है, उसका अभिप्राय समझना चाहिए । जैसे किसी ने कहा घी का घड़ा लाओ । अब कोई समझे कि जैसे लोहे, ताँबे, पीतल आदि के घड़े होते हैं वैसे ही घी का भी घड़ा होता तो भला बतलाओ वह घी का घड़ा कैसे ला सकेगा? अरे वहाँ यह समझना चाहिए कि जिस घड़े में घी रखा है वह लाओ यह कहा गया है । तो भैया सब जगह प्रयोजन को समझें, शब्दों में न अटकें ।
131―उपचार, व्यवहार व निश्चय से अतीत अंतस्तत्त्व के आश्रयता का संदेश―उपचार में और व्यवहार में यही अंतर है कि व्यवहार में तो जो बात जिस ढंग से कही गई वह उस ढंग में सत्य है । जैसे कर्मानुभाग का उदय पाकर जीव में कर्म का बंध हुआ, यह एक सत्य घटना है । अब उसमें कोई ऐसी कर्तृत्वबुद्धि रखे कि कर्म ने जीव की परिणति की तो उसका यह कथन मिथ्या है । वह उपचार कथन होगा । यहाँ प्रयोजन के ज्ञाता होकर इस बुद्धि से दूर हों कर्मद्रव्य पृथक् है, जीवद्रव्य पृथक् है । सबका अपने-अपने में जुदा-जुदा परिणमन होता है, कोई किसी का परिणमन नहीं करता । निमित्त नैमित्तिक योग तो है, सो व्यवहारदृष्टि में यह सब यद्यपि भूतार्थ है, सत्य है, जब एक भेदरूप से, इस परिणति के रूप से कथन करते हैं तब व्यवहार भूतार्थ है, लेकिन जब समस्त भेदभावों से अतीत द्रव्यपर्याय को निरखते हैं, एक द्रव्यस्वभाव का अनुभव करते हैं तो यह अभूतार्थ है, अब यह तो एक समाधिरत पुरुष का काम है । वह हम आप भी कर सकते हैं । हम आपमें भी वैसी पात्रता है । बाहरी बात जो अपने उपयोग में बसा रखी है, वे सब बेकार की बातें हैं । ऐसा बोध रखकर समाधि में रत होने का पौरुष करें । ज्ञानदृष्टि वाले जीव की एकदम सीधे उस ही ज्ञानस्वभाव में दृष्टि जायेगी और जो अज्ञानीजन है उनको योग वाली, पर्याय वाली बात दृष्टि में आयेगी, वह अमुक है यह तमुक है....और जो ज्ञानी पुरुष हैं उनकी दृष्टि सीधे भूतार्थ पर जायेगी । सभी विकल्पों के प्रसाद से विकल्प से दूर होकर निज के प्रताप से कैवल्य स्वरूप का अनुभव प्राप्त होता है ।