वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 8
From जैनकोष
चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं, कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे ।
अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकरूपं, प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ।।8।।
117―नव तत्त्वों की प्रारंभिक चर्चा―वास्तविक शांति के अर्थ अपने को उपयोग किस ओर ले जाना चाहिए इसका जब आत्मकल्याण का तीव्र अभिलाषी होने पर विचार किया जाये तो सहज उत्तर मिल जायेगा । बाहर में कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं कि जिसका हम आश्रय लें और आत्मा को वास्तविक शांति प्राप्त हो, क्योंकि ये सब रागद्वेषादिक परिणामों के आश्रयभूत कारण हैं, ये सहज शांति के कारणभूत नहीं, तब फिर अपने में ही कुछ सोचना होगा, अपने में ही कुछ देखना होगा । एक बात, यहाँ और ध्यान में लें कि जब जब हम किसी परपदार्थ में उपयोग लगाते हैं तब भी हम अपने में ही कुछ करते हैं, बाहर में कुछ नहीं करते । बाह्य पदार्थों को विषयभूत बनाकर अपने में अपने विकल्प किया करते हैं । बाह्य पदार्थों का हम कुछ नहीं किया करते । तो जब हम आकुल हो रहे तब भी हम अपने में ही कुछ कर रहे और जब हम शांति की ओर जायेंगे तब भी हमें अपने में ही कुछ करना है । तो अपने को क्या देखना, किस तरह निरखना कि जिससे शांति का उद्भव हो? तो इस पर जब मनन करते हैं और अंत: दृष्टि ले जाते हैं तो प्रारंभ में तो यह ही विदित होता है जो हम परिणाम करते आ रहे आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा ऐसे ही परिणाम, हम को यहाँ देखना हे, ये हैं मेरे में, कुछ और अंत: चलें तो जैसे लोग कह देते हैं जीव और अजीव, ऐसा एक बाह्यरूप को लिए हुए जीव अजीव को जानता है । और, वह ही आस्रव चूंकि कोई शुभ है, कोई अशुभ है तो पुण्य और पाप के रूप में हम और निरखते हैं । ऐसे ही निरखते चलते हैं तब हम कुछ धर्म चर्चा में आते हैं । प्राय: बहुत से संसारी जीव तो इतना भी नहीं कर पा रहे । जो कुछ थोड़ा बहुत धर्म चर्चा में चलते हैं तो इन 9 तत्त्वों के रूप में हम अपने आपका पता लगाते हैं ।
118―अंतस्तत्त्व की नवतत्वच्छन्नता―ज्ञानी लोग पता कुछ नव तत्त्वों से और परे लगाते हैं, वह क्या? जो 9 तत्त्वों में ढका हुआ है उसका पता लगाते हैं । पता लग तो जायेगा, ज्ञानबल से ही लगेगा । जैसे अग्नि का एक स्वरूप है दाहकपना, उष्णतामय, मगर अग्नि जिस-जिस आधार में है, जिस जिसको आश्रय लेकर अग्नि का प्रसार है, लकड़ी की आग, कोयले की आग, कंडे की आग बिजली की आग । हैं न कोई न कोई मूर्तिक पदार्थ, जो इसका आधार है, जिसके आश्रय में यह अपना विस्तार बना रहा है, तो जब बाह्य मुद्रा, बाह्यरूपक देखते हैं तो अग्नि नाना रूप में और नाना आकारों में दिखती है । जब लकड़ी में आग लगी तो उस जैसा आकार, कोयला में आग तो उस जैसा आकार, तो जब हम ऐसे बाहरी आकारों को देखते हैं तो वहाँ नानापन नजर आता है, और जैसे ही हम अग्नि के ठीक स्वरूप को केवल देखते हैं, दाहकपना देखते हैं, स्वभाव देखते हैं तो वहाँ अन्यपना नहीं नजर आता । तो जैसे अग्नि का वह एक स्वरूप इस बाहरी ईंधन आदिक के संबंध से यह नाना रूपों में पहिचाना गया फिर भी मूल में वह दाहक स्वभाव ही है, ऐसे ही यह जीव पर्याय बिना तो कुछ होता नहीं ना, पर्यायों में चल रहा है । अब वे पर्यायें कोई औपाधिक हैं कोई निरुपाधि हैं । खैर कुछ भी हो उन सब परिणतियों में जाकर भी रहकर भी आत्मद्रव्य अपनी एकता को नहीं छोड़ता । अपना जो मूल एक चैतन्य स्वभाव है सहज भाव, उस सहज भाव को निरखना, उस रूप अपने को अनुभवना, मैं यह हूँ । देखो व्यवहार में कितने ही आदमी ऐसे होते हे कि वे काम कर न पायेंगे मगर हिम्मत और डींग बहुत बड़ी मारते हैं । शक्ति से हीन हैं, वृद्ध हैं, हाथ पैर नहीं चलते फिरते, फिर भी अपनी कला से अंदर में ऐसा जोश बतायेंगे कि जवान क्या बतायेंगे और एक अपनी शक्ति का परिचय मुख से देते हैं । तो जहाँ व्यवहार में न भी कर पाये तो भी वह अपने आपमें कैसी हिम्मत रखता है―ओह नहीं कर पाया तो दृष्टि में तो है उसके । अगर दृष्टि न हो तो अपना बल कैसे जाहिर करे? इससे भी और खास बात है यहाँ । ज्ञानस्वभाव में लीन न हो सके, न रम सके, न निर्विकल्प हो सके, न वह समाधिभाव बने, लेकिन उसकी दृष्टि ही हो, मैं यह हूँ और अपने उस कृत्य का भान हो, बस यही है, ऐसा होने से ही कल्याण है तो दृष्टि में आया हुआ यह जो सहज स्वभाव है वह बड़ी तृप्ति उत्पन्न करेगा । यहाँ संतोष बनेगा ।
119―सहज परमात्मतत्त्व की शाश्वत अंत: प्रकाशमानता―बाहर में जहाँ-जहाँ चित्त लगायेंगे वहाँ-वहाँ से धोखा मिलेगा और निज सहज परमात्मतत्त्व का आश्रय करें तो यह ही उपयोग अपनी कमजोरी को हटा देगा । कदाचित् किसी का उपयोग भी हट जाये तो हटे, मगर यह सहज परमात्मतत्त्व हटने का नहीं, अलग होने का नहीं, ऐसा यह शाश्वत मेरा सहज आत्मस्वरूप है, यह ही परमशरण है, इसका आलंबन, इस रुप में अपने को अनुभवना यह ही है परमपिता, परमशरण अपने शांति का धाम । शांति का स्रोत अपना निधान सर्वस्व अपने आपमें है । जिन्होंने अपनी इस निधि का आश्रय किया वे आज यहाँ नहीं हैं लेकिन उनके नाम पर उनकी मूर्ति बनाकर हम आप सब पूजा करने आते हैं । चाहे कोई आज नहीं समझ पाया उनको कि क्या किया था उन्होंने, जिसके प्रसाद से वे परमात्मा बने, चाहे इसका रूप कुछ न समझा हो तो भी उनके नाम पर कितने-कितने धार्मिक व्यवहार किए जाते हैं । भगवान महावीर ने क्या किया था जिससे सारा जैन समाज आज उनके नाम की माला फेरता है, 2500वां निर्वाण महोत्सव मनाने का प्रोग्राम रचा है । उनमें ऐसी कौन-सी बात थी जिससे सब लोग उनके नाम का कीर्तन गाते हैं? कितने ही लोग तो अपने कुटुंबी जनों की भी परवाह न करके सब महत्त्व उसी का दे रहे हैं, तो उनमें क्या खास बात थी? बस इसी सहज परमतत्त्व का आश्रय लेने की कला की बात थी । जिस बल पर वे परमात्मा हुए । यह चीज कहीं बाहर नहीं है । आपकी आपमें है, हमारी हम में है, वह एक स्वरूप है । यहाँ लोगों को जो यह बाह्यरूप दिख रहा, यह है मनुष्य, यह है अमुक, यह हैं फलानेचंद, यह है सेठ जी, यह हैं पंडित जी, वह हैं साधु महाराज लोग जिस बाहरी-बाहरी रूप को देखकर पहिचान बना रहे यह तो बहुत मोटी बात है, मोहित व्यवहार की है, जिसको निरखकर लोग कहा करते यह तो चर्चा में ही नहीं आना है इससे तो बहुत गहरी बात है । आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप इन रूप मैं नहीं हूँ, इन रूप कोई माने तो वह एक भ्रम में है । इससे परे होकर अपने में अपने को निरखना है । किसको? सहज स्वभाव को । चेतन हूँ ना । उस चेतन का स्वभाव और उसका सहज कार्य चेतना । केवल चेतन का चेतन के नाते से होने वाला जो कुछ भाव है उसको निरखना है यह सहज चिज्ज्योतिप्रकाश सहज अंत: प्रकाशमान हैं ।
120―अंतस्तत्त्व की उन्नीयमानता―बिजली का लट्टू जल रहा और उसमें किसी ने हरा कागज लगा दिया तो सब ज्योति हरी हो गई । ज्ञानबल से इस हरे में भी हम क्या उस सहजप्रकाश का बोध नहीं करते? जब हरा कागज लग गया तो हरा प्रकाश चल रहा । इसमें भी हम समझते हैं कि यह हरा रंग तो औपाधिक है, उस हरे की अवस्था में भी उसे ज्ञान के द्वारा समझ तो रहे हैं ना । तो ऐसी कौनसी बात है कि इन औपाधिक परिणतियों में भी जो शाश्वत रह रहा है उसकी कुछ सही समझ न बना सकें कि वास्तव में निरपेक्ष मैं क्या हूँ । स्वर्णकार या सर्राफ सोना खरीदते हैं तो वे उस स्वर्ण को देखते ही पहचान लेते हैं कि इसमें 75 प्रतिशत स्वर्ण है, 25 प्रतिशत मलमा है, इसमें 50 प्रतिशत स्वर्ण हैं, इसमें 25 प्रतिशत स्वर्ण है, बाकी सब मलमा है । तो भला बताओ वे उस मलमा को आँखों देख रहे क्या देख तो नहीं रहे, उसे तपाने से ही समझ में सही-सही आता है, पर वे सब बात ठीक-ठीक समझ लेते हैं । तो कैसे समझ लेते? यह सब उनकी ज्ञानकला पर निर्भर है । ज्ञान में इसको उसमें बस उन्नीयमान कर देते हैं, ऐसे ज्ञान में उत्कृष्ट रूप से प्रत्यक्ष न होते हुए भी ला दिया है । तो जैसे उस मलिन स्वर्ण में कई प्रकार के स्वर्ण आये पर हर एक को बताते जाते कि इसमें 50 प्रतिशत शुद्ध स्वर्ण है, इसमें 80 प्रतिशत शुद्ध स्वर्ण है, बाकी मलमा है । कसौटी में कसते जाते और अपने को उन्नीयमान करते जाते । तो उस मलिन सोने में जब हम शुद्ध स्वर्ण को नजर में ले लेते हैं तो जान तो रहे, एक मूर्तिक चीज है, उसे भी हम इन नाना वर्णों में, नाना रूपों में ढके हुए उस शुद्धस्वर्ण को हम ज्ञानबल से कैसा बता देते हैं, ऐसे ही 9 तत्त्वों में ढके हुए इस सहजस्वरूप को, इस भेदज्ञान, अभेदज्ञान स्वरूप दृष्टि, इन कलाओं के बल से जान सकते हैं । देखो कैसा अंत: है । जब जानेंगे तब एक बार आनंद पाने के बाद जब वह आनंद फिर मिटता है याने वहीं नहीं टिक पाते तो एक बार झल्लाकर बोल उठेंगे कि तुम यहीं थे अनादिकाल से और हमें दिखे नहीं । कितने गजब की बात है । अनादि से अंदर में है और अनादि से ही अंदर में ढका हुआ है, दृष्टि, पश्चाताप, झल्लाहट, रुचि, धुन ये सब ज्ञानी के चलते हैं, वह अनुराग ही ऐसा है । आपका ही बच्चा, बड़ा घर है आपका । किसी एक कोने में जाकर छिप गया, आप उसे थोड़ा घर ढूंढ़कर बहुत-बहुत बाहर ढूंढ़ रहे, नहीं मिल रहा, वह घर के किसी कोने में छिप गया । आप सब जगह पता लगाते फिरते । पास पड़ोस में पता लगाते, पुलिस को खबर करते, दिनभर बड़ी दौड़ धूप मचाकर हैरान होते, पर उसका कहीं पता नहीं चलता । सारे दिन हैरान होने के बाद जब शाम को थककर अपने घर में गये तो वहीं एक कोने में छिपकर बैठा हुआ वह बच्चा दिख गया । तो उसे देखकर एक तो बड़े जोर की झल्लाहट आयेगी―अरे मैं तो सारे दिन हैरान होता फिरा और तू यही छिपा बैठा है । दूसरी ओर से यह प्रसन्नता भी छा जायेगी कि चलो बच्चा मिल तो गया । तो ऐसे ही अनादिकाल से यह जीव अपने में ढूंढ़ रहा, स्पष्ट अपने को नहीं ढूंढ़ा, बाह्य पदार्थों में ही आनंद ढूंढ़ा, पर इसे वह ज्ञान, वह आनंद न मिला । यह पुस्तक पढ़ो इसमें ज्ञान मिलेगा, यह काम करो इसमें आनंद मिलेगा । जो सहजज्ञानस्वरूप है उसकी चर्चा कर रहे । तो बाहर में ज्ञान और आनंद ढूंढ़ने का अर्थ है बाहर में अपने आपको ढूंढ़ना । इन शब्दों में नहीं जान रहा अज्ञानी । जो बाहर में ज्ञान और आनंद को खोज रहा है वह इन शब्दों में नहीं जान रहा कि मैं अपने को ढूंढ़ता । खोजते-खोजते जब पता पड़ा कि लो यह अंत यहाँ ही छिपा हुआ है, गुप्त है, ढका हुआ है । जब उसको देखा तो, जब वह अनादिकाल के परिश्रम की याद आती है तब तो झल्लाहट होती है । जैसे दिन भर परिश्रम किया, ढुढ़ावा मचाया उसकी याद आती है तो झल्लाहट उत्पन्न होती है और बच्चा मिल जाने से इसको आनंद होता है तो ऐसे ही वह सहज आत्मस्वरूप जो चिरकाल से 9 तत्त्वों में ढका हुआ है वह तो है कोई न कोई तत्त्व में, सो वह जब तक सहज आत्मस्वरूप ज्ञानबल से अपने आपमें जाना गया, उत्कृष्ट रूप से लाया गया, वह सबसे निराला है परिचय होते ही प्रसन्नता होती है । यह उन्नीयमान स्वरूप की बात है ।
121―प्रभु के दिव्योपदेशों में अमृत तत्त्व की प्राप्ति―कर्मानुभाग खिलता रहा अनादिकाल से अथवा इसकी लीला, क्रीड़ा, नाटक, क्षोभ रहा । वह अचेतन है कर्म, नहीं तो इसमें ज्यादह बरबादी अचेतन की होती । तो इतना होने पर भी उसमें कुछ अनुभूति नहीं है और उसका प्रतिफलन है यहाँ । उसकी चीज भी यहाँ नहीं आयी । कर्म में जो अनुभाग बंध हुआ वह कर्म की ही तो चीज हुई । कर्म में ही तो कुछ कर्म का रूप बना । उसकी कणिका भी हम में नहीं आयी । केवल एक प्रतिफलन हुआ । उस प्रतिफलन में हम वहाँ बेचैन हो गए । तो जिस काल में यह भेदविज्ञान करता, ओह कर्म की बात कर्म में है, उसका निमित्त पाकर जो मुझ में प्रतिफलन हुआ वह एक निमित्त नैमित्तिक योग है । अब यहाँ जो हम अधीर हो जाते हैं, उसे अपनाते हैं, उसे यह मैं हूँ इस प्रकार मानते हैं, अज्ञान रहता है उसका फल यह संसार है । ये दो तत्त्व हैं, अवस्थायें हैं, इनको दृष्टि छोड़कर, इनका उपयोग छोड़कर, इनमें न फंसकर अथवा इनसे उपयोग को हटाकर जैसे ही अपने आपमें बसे हुए इस जीव के स्वभाव को निरखते हैं तो वह एकरूप प्रकाशमान है । देखिये यह निरख, यह सबकी अपनी-अपनी कला की बात हैं । कोई समझा नहीं सकता, कोई वचनों से नहीं बोल सकता । जो करेगा सो पायेगा । जो अंत: प्रयोग बनायेगा, ज्ञान बल से अपने आपके सहज ज्ञानस्वरूप का उपयोग बनायेगा उसको मिलेगा और वह जब जानेगा कि ओह यह बात है, शास्त्र की कथनी से अपना मिलाप, अपने मिलाप से शास्त्र की कथनी का परिचय, जिसको आत्मानुभव हुआ, ज्ञानोपयोग हुआ, यह ज्ञानस्वरूप उपयोग में आया, कुछ भी बाहर उपयोग न रहा, परम आनंद आया, सत्य आनंद जगा, ऐसा वह तृप्ति की अवस्था को प्राप्त हुआ, जिसे वह यह समझेगा कि शास्त्र में देखो यह ही लिखा है और जब-जब वह शास्त्र में पढ़ेगा यह बात कि हाँ देखो ठीक लिखा, यह ही तो बात है । देखो तत्त्वश्रद्धान आत्मानुभूति एक ऐसा दृढ़ ज्ञेय तत्त्व है कि जिसके श्रद्धान से यह श्रद्धान होता कि भगवान के वचन सब सत्य होते । भगवान ने नरक की बात बतायी, स्वर्ग की बात बतायी, तीन काल की बात भी आयी ऐसा कौन होता है, कौन कैसे होते रहेंगे, यह सब निर्देश बड़े परोपकार के हैं । स्वर्ग है इसकी पहिचान क्या? जाकर बतावे कोई, तो हम मानें । कोई यों हठ करने लगे कि नरक की बात बताये कोई तो हम मान लें । जितने भी कथन हैं सब परोक्षभूत कथन हैं, उन सब परोक्ष कथनों में श्रद्धापने की जान डालने वाला श्रद्धान है तो तत्त्वश्रद्धान । जब प्रयोजनभूत इन 7 तत्त्वों में हम परख करते हैं तब वहाँ जैन शासन में कही हुई बात से जरा भी हटकर बात नहीं है, ठीक सही-सही है हम अपनी अनुभूति में जिस विषय को उतार सकते हैं वह विषय जैनशासन में बिल्कुल सही-सही है । यह ज्ञान हो तो इसके बल पर यह पूरा प्रमाण हो जाता है कि ऐसे प्रभु के उपदेश में जो-जो कुछ कथन आया वह सब सही है । अनुभव का बल बहुत बड़ा बल है और पूर्ण प्रमाणीभूत बल है ।
122―अंतस्तत्त्व की प्रतिपद अंत: उद्योतमानता―जो एकस्वरूप, मेरा सहजस्वरूप जो चिरकाल से ढका हुआ है, व ज्ञानबल से उसमें से निकाल कर नजर के सामने रखा है, ज्ञानबल से उस तत्त्व को बस निरखते रहो । सबसे बड़ा काम, महान काम याने जिससे बढ़कर और कुछ बात न हो, बस यही बात है । अपने आपमें निरंतर उस सहजस्वरूप को निरखने का प्रयोग बनावें । एक ही काम करने का है । जब इसमें नहीं टिकते, यह ज्ञान वाला काम है ना, केवल जानता रहे, इसमें न टिके तो ध्यान बना लो । इसका बार-बार चिंतन करें, इसमें न टिके तो तपश्चरण में लगें, संयम में लगें, तप में लगें । सब कुछ करना है-केवल एक इस परम ब्रह्म के लिए, क्योंकि “परमब्रह्म का दर्शन चहुंगति दुःखहारी” समस्त संसार संकटों को टालने वाला परम ब्रह्म का दर्शन है । जिसके परमब्रह्म पूर्ण प्रकट हो गया ऐसे परमात्मा की हम भक्ति करते हैं और वहाँ स्वरूप को समझा कि यह हूँ मैं । मैं वह हूँ जो हैं भगवान, जो मैं हूँ वह है भगवान । मैं के मायने स्वरूप, न कि आदमी न कि गधा, न कुत्ता । इनकी तुलना नहीं करना है । मेरा जो सहज प्रकाशमान चैतन्यस्वरूप है उसे ‘मैं’ स्वीकार करके बोलें । जो मैं हूँ वह हैं भगवान सहज आत्मस्वरूप निरखा ना, इसीलिए इतना निकट संबंध है भक्त में प्रभु से । तो ऐसा यह मेरा सहज स्वरूप जो निरंतर सबसे निराला है यह रूप है और प्रत्येक पर्याय में, हर तत्त्व में, प्रत्येक पद में जो अंत: उद्योतमान है वह नहीं छूटा । मनुष्य मिट गया, मगर जीवत्व नहीं मिटा । देव मिट गया मगर जीवत्व नहीं मिटा । अनेक पर्यायें बदल गई, गुणस्थान बदल गए, मगर जीवत्व नहीं मिटा । प्रत्येक पद में जो अंत: उद्योतमान है ऐसे इस सहज चैतन्यस्वरूप को नमस्कार हो ।
123―परिस्थितिवश करने पड़ रहे काम में ज्ञानी की अनास्था―लोक में अब तक चैतन्यस्वरूप को निरखने का ही काम नहीं किया, इसका फल है कि संसार में हम आप रुलते चले आ रहे, जन्म मरण पाते चले आ रहे । तो क्यों जी, कोई कहे कि रोजगार में न जायें क्या? हाँ न जाओ । अगर यह करते बने तो मत जाओ । चेतना के अतिरिक्त सब बेकार बात है । करो, यह ही करो । जब यह करते नहीं बनता तो सब कुछ और बातें करनी पड़ती है । करने का काम तो यह है और करने पड़ने के काम बहुत हैं । क्या करें? जब नहीं है इतना साहस । इतना साहस कब बन सकता जब तत्त्वबोध हो, निरारंभ हो, निष्परिग्रह हो । तब ऐसी स्थिति बन सकती, वहाँ भी सदा नहीं बनती, किसी के बनती । तब फिर यहाँ श्रावक स्थिति में जहाँ शुभोपयोग की प्रधानता है, इस स्थिति में जितना हम पा सकें उसकी रुचि करें । तो यह करना पड़ रहा है सब रोजगार । करना पड़ रहा है, ऐसा मानो । यह जीवन में करने का काम है यह विश्वास न करो नहीं तो बड़ा अंधेरा रहेगा, तिरने का समय न आयेगा । करना पड़ रहा है, सम्हालना पड़ रहा है । इस सहज चैतन्यस्वरूप में सहज परमात्मतत्त्व को यह काम करने के हैं क्या? परिस्थितियाँ हैं ऐसी । इन सब कामों में त्रिवर्ग का साधन गृहस्थ को करना पड़ता है और जब गृहस्थ धर्म में आये हैं, सब कुछ करना पड़ता है तो इतने पर भी विवेक बुद्धि ज्ञान सही रहे, जिंदगी हमारी इसलिए है यह प्रकट नजर में रहे । गले पड़े बजाये सरे । लौकिक बातों में यह न फँसे । यह कहावत प्रसिद्ध है―क्या करें, गले पड़े बजाय सरे । कोई समस्या ऐसी आ गई कि जिससे परिस्थितिवश उससे हट नहीं सकते, करना पड़ रहा है तो कहते हैं कि क्या करें, गले पड़े बजाये सरे । यह अहाना कैसे चला? एक ऐसा चित्रण करो कि होली के दिनों जब बहुत से लोग इकट्ठे होते हैं तो सभी लोग एक दूसरे पर रंग, गुलाल, कीचड़ आदि छोड़ते हैं, एक दूसरे के गले मिलते हैं, एक दूसरे से हँसी मजाक करते हैं । एक कोई ऐसी ही कुछ मित्रों की टोली थी, एक मित्र ने धोखे से एक मित्र के गले में ढोल डाल दिया याने उसकी हँसी उड़ाने के लिए मजाक किया तो उसने उस समय क्या चतुराई खेली कि झट दो लकड़ियां उठाकर-बजाना, नाचना शुरू कर दिया । लो उसकी वह मजाक शोभा के रूप में परिणत हो गई । तो यही दशा श्रावक जनों की है । श्रावकजन यह समझें कि ये गृहस्थी के प्रसंग सब करने पड़ रहे हैं, ये मेरे कर्तव्य नहीं हैं । इनको भली भाँति विधिपूर्वक निपटाने में ही शोभा है, इस श्रावक दशा में निष्परिग्रहता की स्थिति बन नहीं पाती, यही कारण है कि मुनिजन इस गृहस्थी के जंजाल को सदा के लिए छोड़कर एकांत वन में रहकर तपश्चरण कर अपना कल्याण करते हैं ।