आगम
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
आचार्य परंपरासे आगत मूल सिद्धांतको आगम कहते हैं।
जैनागम यद्यपि मूलमें अत्यंत विस्तृत है पर काल दोषसे इसका अधिकांश भाग नष्ट हो गया है। उस आगमकी सार्थकता उसकी शब्दरचनाके कारण नहीं बल्कि उसके भाव प्रतिपादनके कारण है। इसलिए शब्द रचनाको उपचार मात्रसे आगम कहा गया है। इसके भावको ठीक-ठीक ग्रहण करनेके लिए पाँच प्रकारसे इसका अर्थ करनेकी विधि है - शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ व भावार्थ, शब्दका अर्थ यद्यपि क्षेत्र कालादिके अनुसार बदल जाता है पर भावार्थ वही रहता है, इसीसे शब्द बदल जाने पर भी आगम अनादि कहा जाता है आगम भी प्रमाण स्वीकार किया गया है क्योंकि पक्षपात रहित वीतराग गुरुओं द्वारा प्रतिपादित होनेसे पूर्वापर विरोधसे रहित है। शब्द रचनाकी अपेक्षा यद्यपि वह पौरुषेय है पर अनादिगत भावकी अपेक्षा अपौरुषेय है। आगमकी अधिकतर रचना सूत्रोमें होती है क्योंकि सूत्रों द्वारा बहुत अधिक अर्थ थोड़े शब्दोमें ही किया जाना संभव है। पीछेसे अल्पबुद्धियोंके लिए आचार्योंने उन सूत्रोंकी टीकाएँ रची हैं। वे ही टीकाएँ भी उन्हीं मूल सूत्रोंके भावका प्रतिपादन करनेके कारण प्रामाणिक हैं।
- आगम सामान्य निर्देश
- आगम सामान्यका लक्षण
- आगमाभासका लक्षण
- नोआगमका लक्षण
- शब्द या आगम प्रमाणका लक्षण
- शब्द प्रमाणका श्रुतज्ञानमें अंतर्भाव
- आगम अनादि है
- आगम गणधरादि गुरु परंपरा से आगत है
- आगम ज्ञानके अतिचार
- श्रुतके अतिचार
- द्रव्य श्रुतके अपुनरूक्त अक्षर
- श्रुतका बहुत कम भाग लिखनेमें आया है
- आगमकी बहुत सी बातें नष्ट हो चुकी हैं
- आगमके विस्तारका कारण
- आगमके विच्छेद संबंधी भविष्यवाणी
- द्रव्य भाव और ज्ञान निर्देश व समन्वय
- वास्तवमें भाव श्रुत ही ज्ञान है द्रव्यश्रुत ज्ञान नहीं
- भावका ग्रहण ही आगम है
- द्रव्य श्रुतको ज्ञान कहनेका कारण
- द्रव्य श्रुतके भेदादि जाननेका प्रयोजन
- आगमोंको श्रुतज्ञान कहना उपचार है
- आगमका अर्थ करनेकी विधि
- पाँच प्रकार अर्थ करनेका विधान
- मतार्थ करनेका कारण
- नय निक्षेपार्थ करनेकी विधि
- आगमार्थ करनेकी विधि -
- पूर्वापर मिलान पूर्वक
- परंपराका ध्यान रखकर
- शब्द का नहीं भावका ग्रहण करना चाहिए
- भावार्थ करनेकी विधि
- आगममें व्याकरणकी प्रधानता
- आगममें व्याकरणकी गौणता
- अर्थ समझने संबंधी कुछ विशेष नियम
- विरोधी बातें आनेपर दोनोंका संग्रह कर लें
- व्याख्यानकी अपेक्षा सूत्र वचन प्रमाण होता है
- यथार्थका निर्णय हो जानेपर भूल सुधार लेनी चाहिए
- शब्दार्थ संबंधी विषय
- शब्दमें अर्थ प्रतिपादनकी योग्यता व शंका
- भिन्न-भिन्न शब्दोंके भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं
- जितने शब्द हैं उतने वाच्य पदार्थ भी हैं
- अर्थ व शब्दमें वाच्य वाचक भाव कैसे हो सकता है
- शब्द अल्प हैं और अर्थ अनंत हैं
- अर्थ प्रतिपादनकी अपेक्षा शब्दमें प्रमाण व नयपना
- शब्दका अर्थ देश कालानुसार करना चाहिए
- भिन्न क्षेत्र कालादिमें शब्दका अर्थ भिन्न भी होता है
- शब्दार्थ गौणता संबंधी उदाहरण
- आगमकी प्रमाणिकतामें हेतु
- आगमकी प्रामाणिकता निर्देश
- वक्ताकी प्रामाणिकतासे वचनकी प्रामाणिकता
- आगमकी प्रामाणिकताके उदाहरण
- अर्हत् व अतिशय ज्ञान वालोंके द्वारा प्रणीत होनेके कारण
- वीतराग द्वारा प्रणीत होनेके कारण
- गणधरादि आचार्यों द्वारा कथित होनेके कारण
- प्रत्यक्षज्ञानियों द्वारा कथित होनेके कारण
- आचार्य परंपरासे आगत होनेके कारण
- समन्वयात्मक होनेके कारण प्रमाण है
- विचित्र द्रव्यों आदिका प्ररूपक होनेके कारण
- पूर्वापर अविरोधी होनेके कारण
- युक्तिसे अबाधित होनेके कारण
- प्रथमानुपयोगकी प्रामाणिकता
- आगमका प्रामाणिकता के हेतुओं संबंधी शंका समाधान
- अर्वाचीन पुरुषों द्वारा लिखित आगम प्रामाणिक कैसे हो सकते हैं
- पूर्वापर विरोध होते हुए भी प्रामाणिक कैसे
- आगम व स्वभाव तर्कके विषय ही नहीं
- छद्मस्थोका ज्ञान प्रामाणिकता का माप नहीं
- आगममें भूल सुधार व्याकरण व सूक्ष्म विषयोमें करनेको कहा है प्रयोजन भूत तत्त्वोमें नहीं
- पौरुषेय होनेके कारण अप्रमाणिक नहीं कहा जा सकता
- आगम कथंचित् अपौरुषेय तथा नित्य है
- आगमको प्रमाण माननेका प्रयोजन
- सूत्र निर्देश
- सूत्रका अर्थ द्रव्य व भाव श्रुत
- सूत्रका अर्थ श्रुतकेवली
- सूत्रका अर्थ अल्पाक्षर व महानार्थक
- वृत्ति सूत्रका लक्षण
- जिसके द्वारा अनेक अर्थ सूचित न हों वह सूत्र नहीं असूत्र है
- सूत्र वही है जो गणधर आदिके द्वारा कथित हो
- सूत्र तो जिनदेव कथित ही है परंतु गणधर कथित भी सूत्रके समान है
- प्रत्येक बुद्ध कथितमें भी कथंचित् सूत्रत्त्व पाया जाता है
• आगम व नोआगमादि द्रव्य भाव निक्षेप तथा स्थित जित आदि द्रव्य निक्षेप - देखें निक्षेप_5#5.1
• आगमकी अनंतता - देखें आगम - 1.11
• आगमके नंदा भद्रा आदि भेद - देखें वाचना
• आगमके चारों अनुयोगों संबंधी - देखें अनुयोग
• मोक्षमार्गमें आगम ज्ञानका स्थान - देखें स्वाध्याय
• आगम परंपराकी समयानुक्रमिक सारणी - दे इतिहास/7
• आगम ज्ञानमें विनयका स्थान - देखें विनय - 2
• आगमके आदान प्रदानमें पात्र अपात्रका विचार - देखें उपदेश - 3
• आगमके पठन पाठन संबंधी - देखें स्वाध्याय
• पठित ज्ञानके संस्कार साथ जाते हैं - देखें संस्कार
• आगमके ज्ञानमें सम्यक दर्शन स्थान - देखें ज्ञान - III.2
• आगम ज्ञानमें चारित्रका स्थान - देखें चारित्र - 5
• श्रुतज्ञानके अंग पूर्वादि भेदोंका परिचय - देखें श्रुतज्ञान - III
• निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान - देखें ज्ञान - IV
• शब्दार्थ - देखें आगम - 4
• सूक्ष्मादि पदार्थ केवल आगम प्रमाणसे जाने जाते हैं, वे तर्कका विषय नहीं - देखें न्याय - 1
• आगमकी परीक्षामें अनुभवकी प्रधानता - देखें अनुभव
• सूत्रोपसंयत - देखें समाचार
• सूत्रसम - देखें निक्षेप 5/8
- आगम सामान्य निर्देश
- आगम सामान्यका लक्षण
- आगमाभासका लक्षण
- नोआगमका लक्षण
- शब्द या आगम प्रमाण का लक्षण
- शब्द प्रमाणका श्रुतज्ञानमें अंतर्भाव
- आगम अनादि है
- आगम गणधरादि गुरु परंपरासे आगत है
- आगमज्ञानके अतिचार
- श्रुतके अतिचार
- द्रव्यश्रुतके अपुनरुक्त अक्षर
- श्रुतका बहुत कम भाग लिखनेमें आया है
- आगमकी बहुतसी बातें नष्ट हो चुकी हैं
- आगमके विस्तारका कारण
- आगमके विच्छेद संबंधी भविष्य वाणी
- द्रव्य भाव आगम ज्ञान निर्देश व समन्वय
- वास्तव में भावश्रुत ही ज्ञान है द्रव्यश्रुत ज्ञान नहीं
- भावका ग्रहण ही आगम है
- द्रव्य श्रुत को ज्ञान कहने का कारण
- द्रव्य श्रुत के भेदादि जानने का प्रयोजन
- आगमको श्रुतज्ञान कहना उपचार है
- आगमका अर्थ करनेकी विधि
- पाँच प्रकार अर्थ करनेका विधान
- मतार्थ करनेका कारण
- नय निक्षेपार्थ करनेकी विधि
- आगमार्थ करनेकी विधि
- पूर्वापर मिलान पूर्वक
- परंपरा का ध्यान रख कर
- शब्दका नहीं भावका ग्रहण करना चाहिए
- भावार्थ करनेकी विधि
- आगम में व्याकरण की प्रधानता
- आगम में व्याकरण की गौणता
- अर्थ समझने संबंधी कुछ विशेष नियम
- विरोधी बातें आने पर दोनों का संग्रह कर लेना चाहिए
- व्याख्यान की अपेक्षा सूत्र वचन प्रमाण होता है
- यथार्थ का निर्णय हो जाने पर भूल सुधार लेनी चाहिए
- शब्दार्थ संबंधी विषय
- शब्द में अर्थ प्रतिपादन की योग्यता व शंका
- भिन्न-भिन्न शब्दों के भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं
- जितने शब्द हैं उतने वाच्य पदार्थ भी हैं
- अर्थ व शब्द में वाच्यवाचक संबंध कैसे
- शब्द अल्प हैं और अर्थ अनंत हैं
- अर्थ प्रतिपादन की अपेक्षा शब्द में प्रमाण व नयपना
- शब्द का अर्थ देशकालानुसार करना चाहिए
- भिन्न क्षेत्र-कालादिमें शब्दका अर्थ भिन्नभी होता है
- कालकी अपेक्षा
- शास्त्रोंकी अपेक्षा
- क्षेत्र की अपेक्षा
- शब्दोकी गौणता संबंधी उदाहरण
- आगमकी प्रमाणिकतामें हेतु
- आगमकी प्रामाणिकताका निर्देश
- वक्ताकी प्रामाणिकतासे वचनकी प्रमाणिकता
- आगमकी प्रामाणिकताके उदाहरण
- अर्हत् व अतिशयज्ञानवालोंके द्वारा प्रणीत होनेके कारण
- वीतराग द्वारा प्रणीत होनेके कारण
- गणधरादि आचार्यों-द्वारा कथित होनेके कारण
- प्रत्यक्ष ज्ञानियों के द्वारा प्रणीत होने के कारण
- आचार्य परंपरा से आगत होने के कारण
- समन्वयात्मक होनेके कारण
- विचित्र द्रव्यों आदि का प्ररूपक होने के कारण
- पूर्वापर अविरोधी होनेके कारण
- युक्ति से बाधित नहीं होने के कारण
- प्रथमानुपयोग की प्रमाणिकता
- आगमकी प्रमाणिकताके हेतुओं संबंधी शंका समाधान
- अर्वाचीन पुरुषों-द्वारा लिखित आगम प्रमाणिक कैसे हो सकते हैं
- पूर्वापर विरोध होते हुऐ भी प्रमाणिक कैसे है
- आगम व स्वभाव तर्कके विषय ही नहीं है
- छद्मस्थोंका ज्ञान प्रमाणिकताका माप नहीं है
- आगममें भूल सुधार व्याकरण व सूक्ष्म विषयोमें करनेको कहा है प्रयोजनभूत तत्त्वोमें नहीं
- पौरुषेय होनेके कारण अप्रमाण नहीं कहा जा सकता
- आगम कथंचित् अपौरुषेय तथा नित्य है
- आगमको प्रमाण माननेका प्रयोजन
- सूत्र निर्देश
नियमसार / मूल या टीका गाथा . 8 तस्स मुहग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं। आगमिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था ॥8॥
= उनके मुखसे निकली हुई वाणी जो कि पूर्वापर दोष (विरोध) रहित और शुद्ध है, उसे आगम कहा है और उसे तत्त्वार्थ कहते हैं।
रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 9 आप्तोपज्ञमनुल्लङ्ध्यमदृष्टेविरोधकम्। तत्त्वोपदेशकृत्सार्व शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥9॥
= जो आप्त कहा हुआ है, वादी प्रतिवादी द्वारा खंडन करनेमें न आवे, प्रत्यक्ष अनुमानादि प्रमाणोंसे विरोध रहित हो, वस्तु स्वरूपका उपदेश करने वाला हो, सब जीवोंका हित करनेवाला और मिथ्यामार्गका खंडन करनेवाला हो, वह सत्यार्थ शास्त्र है।
धवला पुस्तक 3/1,2,2/9,11/12 पूर्वापरविरुद्धादेर्व्यपेतो दोषसंहते। द्योतकः सर्वभावनामाप्तव्याहतिरागमः ॥9॥ आगमो ह्यात्पवचनमाप्तं दोषक्षयं विदुः। त्यक्तदोषोऽनृतं वाक्यं न ब्रूयाद्धेत्वसंभवात् ॥10॥ रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम्। यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृत् कारणं नास्ति ॥11॥
= पूर्वापरविरूद्धादि दोषोंके समूहसे रहित और संपूर्ण पदार्थोंके द्योतक आप्त वचनको आगम कहते हैं ॥9॥ आप्तके वचनको आगम जानना चाहिए और जिसने जन्म जरा आदि 18 दोषोंका नाश कर दिया है उसे आप्त जानना चाहिए। इस प्रकार जो त्यक्तदोष होता है वह असत्य वचन नहीं बोलता, क्योंकि, उसके असत्य वचन बोलनेका कोई कारण ही संभव नहीं है ॥10॥ रागसे द्वेषसे अथवा मोहसे असत्य वचन बोला जाता है, परंतु जिसके ये रागादि दोष नहीं हैं उसके असत्य वचन बोलनेका कोई कारण नहीं पाया जाता है ॥11॥
राजवार्तिक अध्याय 1/12/7/54/8 आप्तेन हि क्षीणदोषेण प्रत्यक्षज्ञानेन प्रणीत आगमो भवति न सर्वः। यदि सर्वः स्यात, अविशेषः स्यात्।
= जिसके सर्व दोष क्षीण हो गये हैं ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञानियोंके द्वारा प्रणीत आगम ही आगम है, सर्व नहीं। क्योंकि, यदि ऐसा हो तो आगम और अनागममें कोई भेद नहीं रह जायेगा।
धवला पुस्तक 1/1,1,1/20/7 आगमो सिद्धंतो पवयणमिदि एयट्ठो।
= आगम, सिद्धांत और प्रवचन ये शब्द एकार्थवाची हैं।
परीक्षामुख परिच्छेद 3/99 आप्तवचनादिनिबंधनमर्थज्ञानमागमः।
= आप्तके वचनादिसे होनेवाले पदार्थोंके ज्ञानको आगम कहते हैं।
नि.स./ता.वृ.8 में उद्धृत/21 अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात्। निःसंदेहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिन:।
= जो न्यूनता बिना, अधिकता बिना, विपरीता बिना यथातथ्य वस्तुस्वरूपको निःसंदेह रूपसे जानता है उसे आगमवंतोंका ज्ञान कहते हैं।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 173/255 वीतरागसर्वज्ञप्रणीतषड़्द्रव्यादि सम्यक्श्रद्धानज्ञानव्रताद्यनुष्ठानभेदरत्नत्रयस्वरूपं यत्र प्रतिपाद्यते तदागमशास्रं भण्यते।
= वीतराग सर्वज्ञ देवके द्वारा कहे गये षड्द्रव्य व सप्त तत्त्व आदिका सम्यक्श्रद्धान व ज्ञान तथा व्रतादिके अनुष्ठान रूप चारित्र, इस प्रकार भेदरत्नत्रयका स्वरूप जिसमें प्रतिपादित किया गया है उसको आगम या शास्त्र कहते हैं।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 21/262/7 आ सामस्त्येनानंतधर्मविशिष्टतया ज्ञायन्तेऽवबुद्ध्यंते जीवाजीवादयः पदार्था यया सा आज्ञा आगमः शासनं।
= जिसके द्वारा समस्त अनंत धर्मोंसे विशिष्ट जीव अजीवादि पदार्थ जाने जाते हैं ऐसी आप्त आज्ञा आगम है, शासन है।
( स्याद्वादमंजरी श्लोक 28/322/3)
न्यायदीपिका अधिकार 3/73/112 आप्तवाक्यनिबंधनमर्थज्ञानमागमः।
= आप्तके वाक्य के अनुरूप आगमके ज्ञानको आगम कहते हैं।
प.मू.6/51-54/69 रागद्वेषमोहाक्रांतपुरुषवचनाज्जातमागमाभासम्। यथा नद्यास्तीरे मोदकराशयः संति धावध्वं माणवकाः। अंगुल्यग्रहस्तियूथशतमस्ति इति च विसंवादात् ॥51-54॥
= रागी, द्वेषी और अज्ञानी मनुष्योंके वचनोंसे उत्पन्न हुए आगमको आगमाभास कहते हैं। जैसे कि बालको दौड़ो नदीके किनारे बहुत-से लड्डू पड़े हुए हैं। ये वचन हैं। और जिस प्रकार यह है कि अंगुलीके आगेके हिस्सेपर हाथियोंके सौ समुदाय हैं। विवाद होनेके कारण ये सब आगमाभास हैं। अर्थात् लोग इनमें विवाद करते हैं। इसलिए ये आगम झूठे हैं।
धवला पुस्तक 1/1,1,1/20/7 आगमादो अण्णो णो-आगमो।
= आगमसे भिन्न पदार्थको नोआगम कहते हैं।
न्या./सू./मू.1/1/7/15 आप्तोपदेशः शब्दः ॥7॥
= आप्तके उपदेशको शब्द प्रमाण कहते हैं।
राजवार्तिक अध्याय 1/20/15/78/18 शाब्दप्रमाणं श्रुतमेव।
= शब्द प्रमाणतो श्रुत है ही।
गोम्मटसार जीवकांड/ भा.313 आगम नाम परोक्ष प्रमाण श्रुतज्ञानका भेद है।
जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार 13/80-83 देवासुरिंदमहिय अणंतसुहपिंडमोक्खफलपउरं। कम्ममलपडलदलणं पुण्ण पवित्तं सिवं भद्दं ॥80॥ पुव्वंगभेदभिण्णं अणंतअत्थेहिं सजुदं दिव्वं। णिच्चं कलिकलुसहरं णिकाचिदमणुत्तरं विमलं ॥81॥ संदेहतिमिरदलणं बहुविहगुणजुत्तंसग्गसोवाणं। मोक्खग्गदारभूदं णिम्मलबुद्धिसंदोहं ॥82॥ सव्वण्हुमुहविणिग्गयपुव्वावरदोसरहिदपरिसुद्धं। अक्खयमणादिणिहणं सुदणाणपमाणं णिद्दिट्ठं ॥83॥
= पूर्व व अंग रूप भेदोंमें विभक्त, यह श्रुतज्ञान-प्रमाण देवेंद्रों व असुरेंद्रोंसे पूजित, अनंत सुखके पिंड रूप मोक्ष फलसे संयुक्त, कर्मरूप पटलके मलको नष्ट करनेवाला, पुण्य पवित्र, शिव, भद्र, अनंत अर्थोसे संयुक्त दिव्य नित्य, कलि रूप कलुषको दूर करनेवाला, निकाचित, अनुत्तर, विमल, संदेहरूप अंधकारको नष्टकरनेवाला, बहुत प्रकारके गुणोंसे युक्त, स्वर्ग की सीढ़ी, मोक्षके मुख्य द्वारभूत, निर्मल, एवं उत्तम बुद्धिके समुदाय रूप, सर्वके मुखसे निकला हुआ, पूर्वापर विरोध रूप दोषसे रहित विशुद्ध अक्षय और अनादि कहा गया है ॥80-83॥
राजवार्तिक अध्याय 6/13/2/523/29 तदुपदिष्टं बुद्ध्यतिशयर्द्धियुक्तगणधरावधारितं श्रुतम् ॥2॥
= केवली भगवान के द्वारा कहा गया तथा अतिशय बुद्धि ऋद्धिके धारक गणधर देवोंके द्वारा जो धारण किया गया है उसको श्रुत कहते हैं।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 16/62/15 अक्षरपदादीनां न्यूनताकरणं, अतिवृद्धिकरणं, विपरीत पौर्वापर्यरचनाविपरीतार्थनिरूपणा ग्रंथार्थयोर्वैपरीत्यं अमी ज्ञानातिचाराः।
= अक्षर, शब्द, वाक्य, वरण, इत्यादिकोंको कम करना बढ़ाना, पीछेका संदर्भ आगे लाना, आगेका पीछे करना, विपरीत अर्थका निरूपण करना, ग्रंथ व अर्थमें विपरीतता करना ये सब ज्ञानातिचार हैं।
( भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 487/707)
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 16/62/15 द्रव्यक्षेत्रकालभावशुद्धिमंतरेण श्रुतस्य पठनं श्रुतातिचारः।
= द्रव्यशुद्धि, क्षेत्र शुद्धि, कालशुद्धि, भावशुद्धिके बिना शास्त्रका पढ़ना यह श्रुतातिचार है।
देखें अक्षर - 33 व्यंजन, 27 स्वर और चार अयोगवाह, इस प्रकार सब अक्षर 64 होते हैं। उन अक्षरोंके संयोगोकी गणना 264=18446744073709551616 होती है।
धवला पुस्तक 13/5,5/14/18-20/266/4 सोलससदचोत्तीसं कोडी तेसीद चेव लक्खाइं। सत्तसहस्सट्ठसदा अट्ठासीदा य पदवण्णा ॥18॥ एदं पि संजोगक्खरसंखाए अवट्ठिदं, वुत्तपमाणादो अक्खरेहि वड्ढि-हाणीणभावादो।...बारससदकोडीओ तेसीदि हवंति तह य लक्खाइं। अट्ठावण्णसहस्सं पंचेव पदाणि सुदणाणे ॥20॥ एत्तियाणिपदाणि घेतूण सगलसुदणाणं होदि। एदेसु पदेसु संजोगक्खराणि चैव सरिसाणि ण संजोगक्खरावयवक्खराणि; तत्थ संखाणियमाभावादो।
= “16348307888 इतने मध्यम पदके वर्ण होते हैं ॥18॥...यह भी संयोगी अक्षरोंकी अपेक्षा (उत्तरोक्तवत्) अवस्थित हैं। क्योंकि उसमें उक्त प्रमाणसे अक्षरोंकी अपेक्षा वृद्धि और हानि नहीं होती।...श्रुतज्ञानके एक सौ बारह करोड़ तिरासी-लाख अट्ठावन हजार और पाँच (1128358005) ही (कुल मध्यम) पद होते हैं ॥19॥ इतने पदोंका आश्रय कर सकल श्रुतज्ञान होता है, इन पदोंमें संयोगी अक्षर ही समान हैं, संयोगी अक्षरोंके अवयव अक्षर नहीं, क्योंकि, उनकी संख्याका कोई नियम नहीं है।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/20/410-415; 1/20/424 की टिप्पणी जगरूप सहाय कृत) ( हरिवंश पुराण सर्ग 10/143) ( कषायपाहुड़ पुस्तक 1/$70/89-96)।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1-1/$72/92/2 मज्झिमपदं...एदेणपुव्वंगाणं पदसंखा परूविज्जदे।
= मध्यम पदके द्वारा पूर्व और अंगों पदोंकी संख्याका प्ररूपण किया जाता है।
धवला पुस्तक /9/पृ. नाम पद अक्षर प्रमाण प्रमाणलानेका उपाय
194 कुल अक्षर 64 उपरोक्तवत्
194 अपुनरुक्त संयोगी अक्षर 18446744073709551616 एक द्वि आदि संयोगी भंगों का जोड़ 64X6\1X2 इत्यादि
195 अगंश्रुतके सर्व पदोंमें अक्षर 1128358005 अपुनरूक्त अक्षर\मध्यम पद
195 मध्यम पदोंमें अक्षर 16348307888 नियत (इनसे पूर्व और अंगोके विभागका निरूपण होता है)
196 शेष अक्षर 80108175 शेष अक्षर + 32
196 14 प्रकीर्णकों के प्रमाण या खंड पदमें 2503380 * 12\32
( गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 336/733/1) ( धवला पुस्तक 13/5,5,45/247/266)
धवला पुस्तक 3/1,2,102/363/3 अत्थदो पुणो तेसिं विसेसा गणहरेहि विण वारिज्जदे।
= अर्थकी अपेक्षा जो उन दोनोंकी त्रय कायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीव तथा पंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंकी संख्या प्ररूपणा में विशेष है, उनका गणधर भी निवारण नहीं कर सकते हैं।
गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 334/731 पण्णवणिज्जाभावा अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं। पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो ॥334॥
= अनभिलप्यानां कहिए वचनगोचर नाहीं, केवलज्ञानके गोचर जे भाव कहिए जीवादिक पदार्थ तिनके अनंतवें भागमात्र जीवादिक अर्थ ते प्रज्ञापनीया कहिए तीर्थँकरकी सातिशय दिव्य ध्वनिकरि कहनेमें आवै ऐसे हैं। बहुरि तीर्थंकरकी दिव्य ध्वनिकरि पदार्थ कहनेमें आवैं हैं तिनके अनंतवें भाग मात्र द्वादशांग श्रुत विषैं व्याख्यान कीजिए है। जो श्रुतकेवली को भी गोचर नाहीं ऐसा पदार्थ कहनेकी शक्ति केवलज्ञान विषैं पाइये है। ऐसा जानना।
(सन्मति तर्क 2/16) (राजवार्तिक अध्याय 1/26/4/87) ( धवला पुस्तक 9/4/2,7,214/3/171) ( धवला पुस्तक 12/4/1,7/17/57)
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 616 वृद्धैः प्रोक्तमतः सूत्रे तत्त्वं वागतिशायि यत्। द्वादशांगांगबाह्यं वा श्रुतं स्थूलार्थगोचरम्।
= इसलिए पूर्वाचार्यों ने सूत्रमें कहा है कि जो तत्व है वह वचनातीत है और द्वादशांग तथा अंग बाह्यरूप शास्त्र-श्रुत ज्ञान स्थूल पदार्थको विषय करने वाला है।
धवला पुस्तक 9/4,1,44/126/4 दोसु वि उवएसेसु को समंजसो, एत्थ ण बाहइ जिब्भमेलाइरियवच्छवो, अलद्धोवदेत्तादो दोण्णमेक्कस्स बाहाणुपलंभादो। किंतुदोसुएक्केण दोहव्वं। तं जाणिय वत्तव्वं।
= उक्त (एक ही विषयमें) दो (पृथक्-पृथक्) उपदेशोमें कौन सा उपदेश यथार्थ है, इस विषयमें एलाचार्यका शिष्य (वीरसेन स्वामी) अपनी जीभ नहीं चलाता अर्थात् कुछ नहीं कहता, क्योंकि इस विषयका कोई न तो उपदेश प्राप्त है और न दोमें-से एकमें कोई बाधा उत्पन्न होती है। किंतु दोमें-से एक ही सत्य होना चाहिए। उसे जानकर कहना उचित है।
तिलोयपण्णत्ति अधिकार/श्लो. (यहाँ निम्न विषयोंके उपदेश नष्ट होनेका निर्देश किया गया है।) नरक लोकके प्रकरणमें श्रेणी बद्ध बिलोंके नाम (2/54); समवशरणमें नाट्यशालाओंकी लंबाई चौड़ाई (4/757); प्रथम और द्वितीय मानस्तंभ पीठोंका विस्तार (4/772); समवशरणमें स्तूपोंकी लंबाई और विस्तार (4/847); नारदोंकी ऊंचाई आयु और तीर्थँकर देवोंके प्रत्यक्ष भावादिक (4/1471); उत्सर्पिणी कालके शेष कुलकरोंकी ऊँचाई (4/1572); श्री देवीके प्रकीर्णक आदि चारोंके प्रमाण (4/1688); हैमवतके क्षेत्रमें शब्दवान पर्वत पर स्थित जिन भवनकी ऊँचाई आदिके (4/1710); पांडुक वनपर स्थित जिन भवनमें सभापुरके आगे वाले पीठके विस्तारका प्रमाण (4/1897); उपरोक्त जिन भवनमें स्थित पीठकी ऊँचाईके प्रमाण (4/1902); उपरोक्त जिन भवनमें चैत्य वृक्षोंके आगे स्थित पीठके विस्तारादि (4/1910); सौमनस वनवर्ती वापिकामें स्थित सौधर्म इंद्रके विहार प्रासादकी लंबाईका प्रमाण (4/1950); सौमनस गजदंतके कूटोंके विस्तार और लंबाई (4/2032); विद्युतत्प्रभगजदंतके कूटोंके विस्तार और लंबाई (4/2047); विदेह देवकुरुमें यमक पर्वतोंपर और भी दिव्य प्रासाद हैं, उनकी ऊँचाई व विस्तारादि (4/2082); विदेहस्थ शाल्मली व जंबू वृक्षस्थलोंकी प्रथम भूमिमें स्थित 4 वापिकाओंपर प्रतिदिशामें आठ-आठ कूट हैं, उनके विस्तार (4/2182); ऐरावत क्षेत्रमें शलाका पुरुषोंके नामदिक (4/2266); लवण समुद्रमें पातालोंके पार्श्व भागोमें स्थित कौस्तुभ और कोस्तुभाभास पर्वतोंका विस्तार (4/2462); धातकी खंडमें मंदर पर्वतोंके उत्तर-दक्षिण भागोमें भद्रशालोंका विस्तार (4/2589); मानुषोत्तर पर्वतपर 14 गुफाएँ है, उनके विस्तारादि (4/2753); पुष्करार्धमें सुमेरु पर्वतके उत्तर दक्षिण भागोमें भद्रशाल वनोंका विस्तार (4/2822); जंबूद्वीपसे लेकर अरुणाभास तक बीस द्वीप समुद्रोंके अतिरिक्त शेष द्वीप समुद्रोंके अधिपति देवोंके नाम (5/48); स्वयंभूरमण समुद्रमें स्थित पर्वतकी ऊँचाई आदि (5/240); अंजनक, हिंगुलक आदि द्वीपोंमें स्थित व्यंतरोंके प्रसादोंकी ऊँचाई आदि (6/66); व्यंतर इंद्रोंके जो प्रकीर्णक, आभियोग्य और विल्विषक देव होते हैं उनके प्रमाण (6/76); तारोंके नाम (7/32,496); गृहोंका सुमेरुसे अंतराल व वापियों आदिका कथन (7/458); सौधर्मादिकके सोमादिक लोकपालोंके आभियोग्य प्रकीर्णक और किल्विषक देव होते हैं; उनका प्रमाण (8/296); उत्तरेंद्रोंके लोकपालोंके विमानोंकी संख्या (8/302); सौधर्मादिकके प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषकोंकी देवियोंका प्रमाण (8/329); सौधर्मादिकके प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषकोंकी देवियोंकी आयु (8/523); सौधर्मोदिकके आत्मरक्षक व परिषद्की देवियोंकी आयु (8/540)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/8/30 सर्वसत्त्वानुग्रहार्थो हि सतां प्रयास इति, अधिगमाभ्युपायभेदोद्देशः कृतः।
= सज्जनोंका प्रयास सब जीवोंका उपकार करना है, इसलिए यहाँ अलग-अलगसे ज्ञानके उपायके भेदोंका निर्देश किया है।
धवला पुस्तक 1/1,1,5/153/8 नैष दोषः मंदबुद्धिसत्त्वानुग्रहार्थत्वात्।
धवला पुस्तक 1/1,1,70/311/2 द्विरस्ति-शब्दोपादानमनर्थ कमिति चेन्न, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहार्थत्वात्। संक्षेपरुचयो नानुगृहीताश्चेन्न, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहस्य संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहाविनाभावित्वात्।
= प्रश्न - (छोटा सूत्र बनाना ही पर्याप्त था, क्योंकि सूत्रका शेष भाग उसका अविनाभावी है।) उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मंदबुद्धि प्राणियोंके अनुग्रहके लिए शेष भागको सूत्रमें ग्रहण किया गया है। प्रश्न - सूत्रमें दोबार अस्ति शब्दका ग्रहण निरर्थक है। उत्तर - नहीं, क्योंकि विस्तारसे समझनेकी रूचि रखनेवाले शिष्योंके अनुग्रहके लिए सूत्रमें दो बार अस्ति शब्दका ग्रहण किया गया है। प्रश्न - इस सूत्रमें संक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले शिष्य अनुगृहीत नहीं किये गये हैं। उत्तर - नहीं, क्योंकि संक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले जीवोंका अनुग्रह विस्तारसे समझनेकी रुचि रखनेवाले शिष्योंका अविनाभावी है। अर्थात् विस्तारसे कथन कर देनेपर संक्षेपरुचिवाले शिष्योंका काम चल जाता है।
( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 15)।
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/1413 बीस सहस्स तिसदा सत्तारस वच्छराणि सुदतित्थं धम्मपयट्टणहेदू वीच्छिस्सदि कालदोसेण
= जो श्रुत तीर्थ धर्म प्रवर्तनका कारण है, वह बीस हजार तीनसौ सत्तरह (20317)वर्षोंमें काल दोषसे व्युच्छेदको प्राप्त हो जायेगा।
धवला पुस्तक 13/5,4,26/64/12 ण च दव्वसुदेण एत्थ एहियारो, पोग्गलवियारस्स जडस्स णाणोपलिंग भुदस्स मुदत्तबिरोहादो।
= (ध्यानके प्रकरणमें) द्रव्यश्रुतका यहाँ अधिकार नहीं है, क्योंकि ज्ञानके उपलिंग भूत पुद्गलके विकार-स्वरूप जड़ वस्तुको श्रुत माननेमें विरोध आता है।
न्यायदीपिका अधिकार 3/$73 आप्तवाक्यनिबंधन ज्ञानमित्युच्यमानेऽपि, आप्तवाक्यकर्मकेश्रावणप्रत्यक्षेऽतिव्याप्तिः। तात्पर्यमेव वचसीत्यभियुक्तवचनात्।
= आप्तके वचनोंसे होनेवाले ज्ञानको आगमका लक्षण कहनेमें भी आप्तके वाक्योंको सुनकर जो श्रावण प्रत्यक्ष होता है उसमें लक्षण की अतिव्याप्ति है, अतः `अर्थ' यह पद दिया है। `अर्थ' पद तात्पर्यमें रूढ है। अर्थात् प्रयोजनार्थक है क्योंकि `अर्थ ही-तात्पर्य ही वचनोंमें है' ऐसा आचार्य वचन है।
धवला पुस्तक 9/4,1,45/162/3 कथं शब्दस्य तत्स्थापनायाश्च श्रुतव्यपदेशः। नैष दोषः, कारणे कार्योपचारात्।
= प्रश्न - शब्द और उसकी स्थापनाकी श्रुतसंज्ञा कैसे हो सकती है? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कारणमें कार्यका उपचार करनेसे शब्द या उसकी स्थापनाकी श्रुत संज्ञा बन जाती है।
( धवला पुस्तक 13/5,5,21/210/8)
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 34/45 शब्दश्रुताधारेण ज्ञप्तिरर्थपरिच्छित्तिर्ज्ञानं भण्यते स्फूटं। पूर्वोक्तद्रव्यश्रुतस्यापि व्यवहारेण ज्ञानव्यपदेशो भवति न तु निश्चयेनेति।
= शब्द श्रुतके आश्रयसे ज्ञप्तिरूप अर्थके निश्चय को निश्चय नयसे ज्ञान कहा है। पूर्वोक्त शब्द श्रुतकी अर्थात् द्रव्यश्रुतकी ज्ञानसंज्ञा (कारणमें कार्यके उपचारसे) व्यवहार नयसे है निश्चय नयसे नहीं।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 173/254/19 श्रुतभावनायाः फलं जीवादितत्त्वविषये संक्षेपण हेयोपादेयतत्त्वविषये वा संशयविमोहविभ्रमरहितो निश्चलपरिणामो भवति।
= श्रुतकी भावना अर्थात् आगमाभ्यास करनेसे, जीवादि तत्त्वोंके विषयमें वा संक्षेपसे हेय उपादेय तत्त्वके विषयमें संशय, विमोह व विभ्रमसे रहित निश्चल परिणाम होता है।
श्लोकवार्तिक पुस्तक 1/1/20/2-3/598..। श्रवणं हि श्रुत ज्ञानं न पुनः शब्दमात्र कम् ॥2॥ तच्चोपचारतो ग्राह्य श्रुतशब्दप्रयोगतः ॥3॥
= `श्रुत' पदसे तात्पर्य किसी विशेष ज्ञानसे है। हां वाच्योंके प्रतिपादक शब्द भी श्रुतपदसे पकड़े जाते हैं। किंतु केवल शब्दोंमें ही श्रुत शब्दको परिपूर्ण नहीं कर देना चाहिए ॥2॥ उपचारसे वह शब्दात्मक श्रुत (आगम) भी शुद्ध शब्द करके ग्रहण करने योग्य है...क्योंकि गुरुके शब्दोंसे शिष्योंको श्रुतज्ञान (वह विशेष ज्ञान) उत्पन्न होता है। इस कारण यह कारणमें कार्यका उपचार है।
(और भी देखें आगम - 2.3)
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 120/177 शब्दार्थव्याख्यानेन शब्दार्थों ज्ञात्व्यः। व्यवहारनिश्चयरूपेण नयार्थो ज्ञातव्यः। सांख्यं प्रति मतार्थो ज्ञातव्यः। आगमार्थस्तु प्रसिद्धः। हेयोपादानव्याख्यानरूपेण भावार्थोऽपि ज्ञातव्यः। इति शब्दनयमतागमभावार्थाः व्याख्यानकाले यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्याः।
= शब्दार्थके व्याख्यान रूपसे शब्दार्थ जानना चाहिए। व्यवहार निश्चयनयरूपसे नयार्थ जानना चाहिए। सांख्योंके प्रतिमतार्थ जानना चाहिए। आगमार्थ प्रसिद्ध है। हेय उपादेयकेव्याख्यान रूपसे भावार्थ जानना चाहिए। इस प्रकार शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ आगमार्थ तथा भावार्थको व्याख्यानके समय यथासंभव सर्वत्र जानना चाहिए।
(पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 1/4; 27/60) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 2/9/)
धवला पुस्तक 1/1,1,30/229/9 तदभिप्रायकदनार्थं वास्य सूत्रस्यावतारः।
= इन दोनों एकांतियोंके अभिप्रायके अभिप्रायके खंडन करनेके लिये ही...प्रकृत सूत्रका अवतार हुआ है।
सप्तभंग तरंगिनी पृष्ठ 77/1 ननु...सर्व वस्तु स्यादेकं स्यादनेकमिति कथं संगच्छते। सर्वस्यवस्तुनः केनापि रूपेणैकाभावात्।...तदुक्तम् `उपयोगो लक्षणम्' इति सूत्रे, तत्वार्थश्लोकवार्तिके-न हि वयं सदृशपरिणाममनेकव्यक्तिव्यापिनं युगपदुपगच्छामोऽन्यत्रोपचारात् इति...पूर्वोदाहृतपूर्वाचार्यवचनानां च सर्वथैक्य निराकरणपरत्वाद अन्यथा सत्ता सामान्यस्य सर्वथानेकत्वे पृथ्कत्वैकांतपक्ष एवाहतस्स्यात्।
= प्रश्न - सर्व वस्त कथंचित एक हैं कथंचित् अनेक हैं यह कैसे संगत हो सकता है, क्योंकि किसी प्रकारसे सर्व वस्तुओंकी एकता नहीं हो सकती? तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा भी है `उपयोगों लक्षणं' अर्थात् ज्ञान दर्शन रूप उपयोग ही जीवका लक्षण है। इस सूत्रके अंतर्गत तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिकमें `अन्य व्यक्तिमें उपचारसे एक कालमें ही सदृश परिणाम रूप अनेक व्यक्ति व्यापी एक सत्त्व हम नहीं मानते' ऐसा कहा है-
उत्तर - पूर्व उदाहरणोंमें आचार्योंके वचनोंसे जो सर्वथा एकत्व ही माना है उसीके निराकरणमें तात्पर्य है न कि कथंचित् एकत्वके निराकरणमें। और ऐसा न माननेसे सर्वथा सत्ता सामान्यके अनेकत्व माननेसे पृथक्त्व एकांत पक्षका ही आदर होगा।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/6/20 नामादिनिक्षेपविधिनोपक्षिप्तानां जीवादीनां तत्त्वं प्रमाणाभ्यां नयैश्चाधिगम्यते।
= जिन जीवादि पदार्थोंका नाम आदि निक्षेप विधिके द्वारा विस्तारसे कथन किया है उनका स्वरूप प्रमाण और नयोंके द्वारा जाना जाता है।
धवला पुस्तक 1/1,1,1/10/16 प्रमाण-नय-निक्षेपैर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते। युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ॥10॥
= जिस पदार्थका प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके द्वारा, नैगमादि नयोंके द्वारा, नामादि निक्षेपोंके द्वारा सूक्ष्म दृष्टिसे विचार नहीं किया जाता है, वह पदार्थ कभी युक्त (संगत) होते हुए भी अयुक्त (असंगत) सा प्रतीत होता है और कभी अयुक्त होते हुए भी युक्तकी तरह-सा प्रतीत होता है ॥10॥
धवला पुस्तक 1/1,1,1/3/10 विशेषार्थ
= आगमके किसी श्लोक गाथा, वाक्य, व पदके ऊपरसे अर्थका निर्णय करनेके लिए निर्दोष पद्धतिसे श्लोकादिकका उच्चारण करना चाहिए, तदनंतर पदच्छेद करना चाहिए, उसके बाद उसका अर्थ कहना चाहिए, अनंतर पद-निक्षेप अर्थात् नामादि विधिसे नयोंका अवलंबन लेकर पदार्थका ऊहापोह करना चाहिए। तभी पदार्थके स्वरूपका निर्णय होता है। पदार्थ निर्णयके इस क्रमको दृष्टिमें रखकर गाथाके अर्थ पदका उच्चारण करके, और उसमें निक्षेप करके, नयोंके द्वारा, तत्त्व निर्णयका उपदेश दिया है।
मो.मा./प्र./7/368/7 प्रश्न - तो कहा करिये? उत्तर - निश्चय नय करि जो निरूपण किया होय, ताकौं तो सत्यार्थ न मानि ताका तो श्रद्धान अंगीकार करना, अर व्यवहार नय करि जो निरूपण किया होय ताकौ असत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान छोडना...तातैं व्यवहार नयका श्रद्धान छोड़ि निश्चयनयका श्रद्धान करना योग्य है। व्यवहार नय करि स्वद्रव्य परद्रव्यकौं वा तिनकें भावनिकौं वा कारण कार्यादिकौं काहूलो काहूँविषै मिलाय निरूपण करै है। सो ऐसे ही श्रद्धानसे मिथ्यात्व है तातैं याका त्याग करना। बहुरि निश्चय नय तिनकौ यथावत् निरूपै है, काहू को काहूविषै न मिलावै है। ऐसा ही श्रद्धान तैं सम्यक्त्व हो है। तातै ताका श्रद्धान करना। प्रश्न - जो ऐसैं हैं, तो जिनमार्ग विषैं दोऊ नयनिका ग्रहण करना कह्या, सो कैसे? उत्तर - जिनमार्ग विषै कहीं तौ निश्चय नयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है ताकौं तो `सत्यार्थ ऐसे ही है' ऐसा जानना। बहुरी कहीं व्यवहार नयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है ताकौ `ऐसे है नाहिं निमित्तादिकी अपेक्षा उपचार किया है' ऐसा जानना। इस प्रकार जाननेका नाम ही दोऊ नयनिका ग्रहण है। बहुरि दोऊ नयनिके व्याख्यान कूँ समान सत्यार्थ जानि ऐसे भी है ऐसे भी है, ऐसा भ्रम रूप प्रवर्तने करि तौ दोऊ नयनिका ग्रहण किया नाहीं। प्रश्न - जो व्यवहार नय असत्यार्थ है, तौ ताका उपदेश जिनमार्ग विषैं काहें को दिया। एक निश्चय नय ही का निरूपण करना था? उत्तर - निश्चय नयको अंगीकार करावनैं कूँ व्यवहार करि उपदेश दीजिये हैं। बहुरी व्यवहार नय है, सो अंगीकार करने योग्य नाहीं।
(और भी देखें आगम - 3.8)
द्र.सं/टी.22/66 [अन्यद्वा परमागमाविरोधेन विचारणीयं...किंतु विवादो न कर्तव्यः।
= परमागमके अविरोध पूर्वक विचारना चाहिए, किंतु कथनमें विवाद नहीं करना चाहिए।
पंचाध्यायी / श्लोक 335 शेषविशेषव्याख्यानं ज्ञातव्यं चोक्तवक्ष्यमाणतया। सूत्रे पदानुवृत्तिर्ग्राह्मा सूत्रांतरादिति न्यायात् ॥335॥
= सूत्रमें पदोंकी अनुवृत्ति दूसरे सूत्रोंसे ग्रहण करनी चाहिए, इस न्यायसे यहाँ पर भी शेषविशेष कथन उक्त और वक्ष्यमाण पूर्वापर संबंधसे जानना चाहिए। रहस्यपूर्ण चिट्ठी पं. टोडरमलजी कृत/512 कथन तो अनेक प्रकार होय परंतु यह सर्व आगम अध्यात्म शास्त्रन सो विरोध न होय वैसे विवक्षा भेद करि जानना।
धवला पुस्तक 3/1,2,184/481/1 एदीए गाहाए एदस्स वक्खाणस्स किण्ण विरोहा। होउ णाम।...ण, जुत्तिसिद्धस्य आइरियपरंपरागयस्स एदीए गाहाए णाभद्दत्तं काऊण सक्किज्जदि, अइप्पसंगादो।
= प्रश्न - यदि ऐसा है तो (देश संयतमें तेरह करोड़ मनुष्य हैं) इस गाथाके साथ इस पूर्वोक्त व्याख्यानका विरोध क्यों नहीं आ जायेगा? उत्तर - यदि उक्त गाथके साथ पूर्वोक्त व्याख्यानका विरोध प्राप्त होता है तो होओ...जो युक्ति सिद्ध है और आचार्य परंपरासे आया हुआ है उसमें इस गाथासे असमीचीनता नहीं लायी जा सकती, अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जायेगा।
( धवला पुस्तक 4/1,4,4/156/2) रहस्यपूर्ण चिट्ठी पं.टोडरमल/पृ.512 देखें आगम - 3.4.1
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/33/144 अन्यार्थस्यान्यार्थेन संबंधाभावात्। लोकसमय विरोध इति चेत्। विरुध्याताम्। तत्त्वमिह मीमांस्यते, न भैषज्यमातुरेच्छानुवर्ति।
= अन्य अर्थका अन्य अर्थके साथ संबंधका अभाव है। प्रश्न - इससे लोक समयका (व्याकरण शास्त्र) का विरोध होता है? उत्तर - यदि विरोध होता है तो होने दो, इससे हानि नहीं, क्योंकि यहाँ तत्त्वकी मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ पीड़ित मनुष्यकी इच्छाका अनुकरण करनेवाली नहीं होती।
राजवार्तिक अध्याय 2/6/3,8/109 द्रव्यलिंग नामकर्मोदयापादितं तदिह नाधिकृतम्, आत्मापरिणामप्रकरणात्।....द्रव्यलेश्या पुद्गलविपाकिकर्मोदयापादितेति सा नेह परिगृह्यत आत्मनो भावप्रकरणात् ।
= चूँकि आत्मभावोंका प्रकरण है, अतः नामकर्मके उदयसे होनेवाले द्रव्यलिंगकी यहाँ विवक्षा नहीं है।...द्रव्य लेश्या पुद्गल विपाकी शरीर नाम कर्मके उदयसे होती है अतः आत्मभावोंके प्रकरणमें उसका ग्रहण नहीं किया है।
धवला पुस्तक 1/1,1,60/303/6 अन्यैराचार्यैरव्याख्यातमिममर्थं भणंतः कथं न सूत्रप्रत्यनीकाः। न, सूत्रवशवर्तिनां तद्विरोधात्।
= प्रश्न - अन्य आचार्योंके द्वारा नहीं व्याख्यान किये इस अर्थका इस प्रकार व्याख्यान करते हुए आप सूत्रके विरुद्ध जा रहे हैं ऐसा क्यों नहीं माना जाये? उत्तर - नहीं...सूत्रके वशवर्ती आचार्योंका ही पूर्वोक्त (मेरे) कथनसे विरोध आता है। (अर्थात् मैं गलत नहीं अपितु वही गलत है।)
धवला पुस्तक 3/1,2,123/408/5 आइरियवयणमणेयंतमिदि चे, होदु णाम, णत्थि मज्झेत्थ अग्गही।
= आचार्योंके वचन अनेक प्रकारके होते हैं तो होओ. इसमें हमारा आग्रह नहीं है।
धवला पुस्तक 5/1,7,3/197/6 सव्वभावाणं पारिणामियत्तं पसज्जदीदि चे होदुं, ण कोई दोसो।
= सभी भावोंके पारिणामिकपनेका प्रसंग आता है तो आने दो।
धवला पुस्तक 7/2,1,56/101/2 चक्षुषा दृश्यते वा तं तत् चक्खुदंसणं चक्षुर्द्दर्शनमिति वेति ब्रुवते। चक्खिंदियणाणादो जो पुव्वमेव सुववतीए सामण्णाए अणुहओ चक्खुणुप्पत्तिणिमित्तो तं चक्खुदंसणमिदि उत्तं होदि।...बालजणबीहणट्ठं चक्खूणं जं दिस्सदि तं चक्खूदंसणमिदि परूवणादो। गाहएगलभंजणकाऊण अज्जुवत्थो किण्ण घेप्पदि। ण, तत्थ पुव्वुत्तासेसदोसप्पसंगादो।
= जो चक्षुओंको प्रकाशित होता है अथवा आँख द्वारा देखा जाता है वह चक्षुदर्शन है इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि चक्षु इंद्रिय ज्ञानसे पूर्व ही सामान्य स्वशक्तिका अनुभव होता है जो कि चक्षु ज्ञानकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत है वह चक्षुदर्शन है।...बालक जनोंको ज्ञान करानेके लिए अंतरंगमें बाह्य पदार्थोंके उपचारसे `चक्षुओंको जो दीखता है वही चक्षु दर्शन है' ऐसा प्ररूपण किया गया है। प्रश्न - गाथाका गला न घोट कर सीधा अर्थ क्यों नही करते? उत्तर - नहीं करते, क्योंकि वैसा करनेमें पूर्वोक्त समस्त दोषोंका प्रसंग आता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 86 शब्दाब्रह्मोपासनं भावज्ञानावष्टंभदृढीकृतपरिणामेन सम्यगधीयमानमुपायांतरम्।
= (मोह क्षय करनेमें) परम शब्द ब्रह्म की उपासनाका, भावज्ञानके अवलंबन द्वारा दृढ किये गये परिणामसे सम्यक् प्रकार अभ्यास करना सो उपायांतर है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 277 नाचारादिशब्दश्रुतं, एकांतेन ज्ञानस्याश्रयः तत्सद्भावेऽपि...शुद्धभावेन ज्ञानस्याभावात्।
= आचारादि शब्दश्रुत एकांतसे ज्ञानका आश्रय नहीं है, क्योंकि आचारांगादिकका सद्भाव होनेपर भी शुद्धात्माका अभाव होनेसे ज्ञानका अभाव है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 3/9 स्वसमय एव शुद्धात्मनः स्वरूपं न पुनः परसमय...इति पातनिका लक्षणं सर्वत्र ज्ञानव्यम्।
= स्व समय ही शुद्धात्माका स्वरूप है पर समय नहीं।...इस प्रकार पातनिकाका लक्षण सर्वत्र जानना चाहिए।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 27/61 कर्मोपाधिजनितमिथ्यात्वरागदिरूप समस्तविभावपरिणामांस्त्यवत्वा निरुपाधिकेवलज्ञानादिगुणयुक्तशुद्धजीवास्तिकाय एव निश्चयनयेनोपादेयत्वेन भावयितव्यं इत भावार्थः।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 52/101 अस्तिन्नधिकारे यद्यप्यष्टविधज्ञानोपयोगचतुर्विधदर्शनोपयोगव्याख्यानकाले शुद्धाशुद्धविवक्षा न कृता तथापि निश्चयनयेनादिमध्यांतवर्जिते परमानंदमालिनी परमचैतन्यशालिनि भगवत्यात्मनि यदनाकुलत्वलक्षणं पारमार्थिकसुखं तस्योपादेयभूतस्योपादानकारणभूतं यत्केवलज्ञानदर्शनद्वयं तदेवोपादेमिति श्रद्धेयं ज्ञेयं तथैवार्तरौद्धादिसमस्तविकल्पजालत्यागेन ध्येयमिति भावार्थः।
= कर्मोपाधि जनित मिथ्यात्व रागादि रूप समस्त विभाव परिणामोंको छोड़कर निरुपाधि केवलज्ञानादि गुणोंसे युक्त जो शुद्ध जीवास्तिकाय है, उसीको निश्चय नयसे उपादेय रूपसे मानना चाहिए यह भावार्थ है। वा यद्यपि इस अधिकारमें आठ प्रकारके ज्ञानोपयोग तथा चार प्रकारके दर्शनोपयोगका व्याख्यान करते समय शुद्धाशुद्धकी विवक्षा नहीं की गयी है। फिर भी निश्चय नयसे आदि मध्य अंतसे रहित ऐसी परमानंदमालिनी परमचैतन्यशालिनी भगवान् आत्मामें जो अनाकुलत्व लक्षणवाला पारमार्थिक सुख है, उस उपादेय भूतका उपादान कारण जो केवलज्ञान व केवल दर्शन हैं, ये दोनों ही उपादेय हैं. यही श्रद्धेय है, यही ज्ञेय हैं, तथा इस ही को आर्त रोद्र आदि समस्त विकल्प जालको त्यागकर ध्येय बनाना चाहिए। ऐसा भावार्थ है।
(पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 61/113)
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 2/10 शुद्धनयाश्रितं जीवस्वरूपमुपादेयम् शेषं च हेयम्। इति हेयोपादेयरूपेण भावार्थोऽप्यवबोद्धव्यः।...एवं...यथासंभव व्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्य।
= शुद्ध नयके आश्रित जो जीवका स्वरूप है वह तो उपादये यानी-ग्रहण करने योग्य है और शेष सब त्याज्य है। इस प्रकार हेयोपादेय रूपसे भावार्थ भी समझना चाहिए। तथा व्याख्यानके समयमें सब जगह जानना चाहिए।
धवला पुस्तक 1/1,1,1/2/9-10/3 धाउपरूवणा किमट्ठं कीरदे। ण, अणवयधाउस्स सिस्सस्स अत्थावगमाणुव्वत्तादो। उक्तं च `शब्दात्पदप्रसिद्धः पदसिद्धेरर्थनिर्णयो भवति। अर्थात्तत्त्वज्ञानं तत्त्वज्ञानात्परं श्रेयः ॥2॥ इति।
= प्रश्न - धातुका निरूपण किस लिए किया जा रहा है (यह तो सिद्धांत ग्रंथ है)? उत्तर - ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि जो शिष्य धातुसे अपरिचित है, उसे धातुके परिज्ञानके बिना अर्थका परिज्ञान नहीं हो सकता और अर्थबोधके लिए विवक्षित शब्दका अर्थज्ञान कराना आवश्यक है, इसलिए यहाँ धातुका निरूपण किया गया है। कहा भी है-शब्दसे पदकी सिद्धि होती है, पदकी सिद्धि से अर्थका निर्णय होता है, अर्थके निर्णयसे तत्त्वज्ञान अर्थात् हेयोपादेय विवेककी प्राप्ति होती है और तत्त्वज्ञानसे परम कल्याण होता है।
महापुराण सर्ग संख्या 38/119 शब्दविद्यार्थशास्त्रादि चाध्येयं नास्यं दुष्पति। सुसंस्कारप्रबोधाय वैयात्यख्यातयेऽपि च ॥119॥
= उत्तम संस्कारोंको जागृत करनेके लिए और विद्वत्ता प्राप्त करनेके लिए इस व्याकरण आदि शब्दशास्त्र और न्याय आदि अर्थशास्त्रका भी अभ्यास करना चाहिए क्योंकि आचार विषयक ज्ञान होनेपर इनके अध्ययन करनेमें कोई दोष नहीं है।
मो.मा.प्र.8/432/17 बहुरि व्याकरण न्यायादिक शास्त्र है, तिनका भी थोरा बहुत अभ्यास करना। जातैं इनका ज्ञान बिन बड़े शास्त्रनि का अर्थ भासै नाहीं। बहुरि वस्तुका भी स्वरूप इनकी पद्धति माने जैसा भासै तैसा भाषादिक करि भासै नाहीं। तातै परंपरा कार्यकारी जानि इनका भी अभ्यास करना।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 1/3 प्राथमिकशिष्यप्रतिसुखाबोधार्थमत्र ग्रंथे संधेर्नियमो नास्तीति सर्वत्र ज्ञानव्यम्।
= प्राथमिक शिष्योंका सरलतासे ज्ञान हो जावे इसिलए ग्रंथमें संधिका नियम नहीं रखा गया है ऐसा सर्वत्र जानना चाहिए।
धवला पुस्तक 1/1,1,111/349/4 सिद्धासिद्धाश्रया हि कथामार्गा ।
धवला पुस्तक 1/1,1,117/362/10 समान्यबोधनाश्च विशेषेष्वतिष्ठंते।
= कथन परंपराएँ प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध इन दोनोंके आश्रयसे प्रवृत्त होती हैं। सामान्य विषयका बोध कराने वाले वाक्य विशेषोमें रहा करते हैं।
धवला पुस्तक 2/1,1/441/17 विशेषविधिना सामान्यविधिर्बाध्यते।
धवला पुस्तक 2/1,1,/442/20 परा विधिर्बाधको भवति।
= विशेष विधिसे सामान्य विधि बाधित हो जाती है।...पर विधि बाधक होती है।
धवला पुस्तक 3/1,2,2/18/10 व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिरिति।
धवला पुस्तक 3/1,2,82/315/1 जहा उद्देसो तहा णिद्देसो।
= व्याख्यासे विशेषकी प्रतिपत्ति होती है। उद्देशके अनुसार निर्देश होता है।
धवला पुस्तक 4/1,5,145/403/4 गौण-मुख्ययोर्मूख्ये संप्रत्ययः।
= गौण और मुख्यमें विवाद होनेपर मुख्यमें ही संप्रत्यय होता है।
परीक्षामुख परिच्छेद 3/19 तर्कात्तन्निर्णयः।
= तर्कसे इसका (क्रमभावका) निर्णय होता है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 70 भावार्थ-साधन व्याप्त साधनरूप धर्मके मिल जानेपर पक्षकी सिद्धि हुआ करती है।...दृष्टांतको ही साधन व्याप्त साध्य रूप धर्म कहते हैं।
पंचाध्यायी / श्लोक 72 नामैकदेशेन नामग्रहणम्।
= नामके एकदेशसे ही पूरे नामका ग्रहण हो जाता है, जैसे रा.ल कहने से रामलाल।
पंचाध्यायी / श्लोक 494...। व्यतिरेकेण विना यन्नान्वयपक्षः स्वपक्षरक्षार्थम्।
= व्यतिरेकके बिना केवल अन्वय पक्ष अपने पक्षकी रक्षाके लियए समर्थ नहीं होता है।
धवला पुस्तक 1/1,1,27/222/2 उस्सुतं लिहंता आहिरिया कथं वज्जभीरुणो। इदि चे ण एस दोसो, दोण्हं मज्झे एक्कस्सेव संगहे कीरणामे वज्जभीरुत्तं णिवट्टति। दोण्हं पि संगहकरेंताणमाइरियाणं वज्ज-भीरुत्ताविणासाभावादो।
धवला पुस्तक 1/1,1,37/262/2 उवदेसमंतरेण तदवगमाभावा दोण्हं पि संगहो कायव्वो। दोण्हं संगहं करेंतो संसयमिच्छाइट्ठी होदि त्ति तण्ण, सुत्तुद्दिट्ठमेव अत्थि त्ति सद्दहंतस्स संदेहाभावादो।
= प्रश्न - उत्सूत्र लिखने वाले आचार्य पापभीरु कैसे माने जा सकते हैं? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों का वचनोमें-से किसी एक ही वचनके संग्रह करनेपर पापभीरूता निकल जाती है अर्थात् उच्छंखलता आ जाती है। अतएव दोनों प्रकारके वचनोंका संग्रह करनेवाले आचार्योंके पापभीरुता नष्ट नहीं होती है, अर्थात् बनी रहती है। उपदेशके बिना दोनोंमें-से कौन वचनसूत्र रूप है यह नहीं जाना जा सकता, इसलिए दोनों वचनोंका संग्रह कर लेना चाहिए। प्रश्न - दोनों वचनोंका संग्रह करनेवाला संशय मिथ्यादृष्टि हो जायेगा? उत्तर - नहीं, क्योंकि संग्रह करनेवालेके `यह सूत्र कथित ही हैं इस प्रकारका श्रद्धान पाया जाता है, अतएव उसके संदेह नहीं हो सकता है।
धवला पुस्तक 1/1,1,13/110/173 सम्माइट्ठी जीवो उवइट्ठं पवयणं तु सद्दहदि। सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरु णियोगा ॥110॥
= सम्यग्दृष्टि जीव जिनेंद्र भगवानके द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका तो श्रद्धान करता ही है, किंतु किसी तत्त्वको नहीं जानता हुआ गुरुके उपदेशसे विपरीत अर्थका भी श्रद्धान कर लेता है ॥110॥
( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 27), ( लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 105)।
कषायपाहुड़ पुस्तक 2/1,15/$463/417/7 सुत्तेण वक्खाणं बाहज्जदि ण वक्खाणेण वक्खाणं। एत्थ पुणो दो वि परूवेयेव्वा दोण्हमेक्कदरस्स सुत्ताणुसारितागमाभावादो।...एत्थ पुण विसंयोजणापक्खो चेव पहाणभावेणावलंबियव्वो पवाइज्जमाणत्तादो।
= सूत्रके द्वारा व्याख्यान बाधित हो जाता है, परंतु एक व्याख्यानके द्वारा दूसरा व्याख्यान बाधित नहीं होता। इसलिए उपशम सम्यग्दृष्टिके अनंतानुबंधीकी विसंयोजना नहीं होती यह वचन अप्रमाण नहीं है। फिर भी यहाँ दोनों ही उपदेशोंका ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि दोनोंमें-से अमुक उपदेश सूत्रानुसारी है, इस प्रकारके ज्ञान करनेका कोई साधन नहीं पाया जाता।...फिर भी यहाँ उपशम सम्यग्दृष्टिके अनंतानुबंधीकी विसंयोजना होती है, यह पक्ष ही प्रधान रूपसे स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि इस प्रकारका उपदेश परंपरासे चला आ रहा है।
धवला पुस्तक 1/1,1,37/143/262 सुत्तादो तं सम्मं दरिसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि। सो चेय हवदि मिच्छाइट्ठी हु तदो पहुडि जीवो।
= सूत्रसे भले प्रकार आचार्यादिकके द्वारा समझाये जाने पर भी यदि जो जीव विपरीत अर्थको छोड़कर समीचीन अर्थका श्रद्धान नहीं करता तो उसी समयसे वह सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है।
( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 28) ( लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 106)
धवला पुस्तक 13/5,5,120/381/5 एत्थ उवदेसं लद्धूणं एदं चेव वक्खाणं सच्चमण्णं असच्चमिदि णिच्छओ कायव्वो। एदे च दो वि उवएसा सुत्तसिद्धा।
= यहाँ पर उपदेशको प्राप्त करके यही व्याख्यान सत्य है, अन्य व्याख्यान असत्य है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। ये दोनों ही उपदेशसूत्र सिद्ध हैं।
( धवला पुस्तक 14/5,6,66/4), ( धवला पुस्तक 14/5,6,116/151/6), ( धवला पुस्तक 14/5,6,652/508/6), ( धवला पुस्तक 15/317/9)
परीक्षामुख परिच्छेद 3/100,101 सहजयोग्यतासंकेतवशाद्धि शब्दादयो वस्तु प्रतिपत्तिहेतवः ॥100॥
= शब्द और अर्थमें वाचक वाच्य शक्ति है। उसमें संकेत होनेसे अर्थात् इस शब्दका वाच्य यह अर्थ है ऐसा ज्ञान हो जानेसे शब्द आदिसे पदार्थोंका ज्ञान होता है। जिस प्रकार मेरु आदि पदार्थ हैं अर्थात् मेरु शब्दके उच्चारण करनेसे ही जंबूद्वीपके मध्यमें स्थित मेरुका ज्ञान हो जाता है। (इसी प्रकार अन्य पदार्थोंको भी समझ लेना चाहिए।)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/33/144 शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यम्।
= यदि शब्दोंमें भेद है तो अर्थोंमें भेद अवश्य होना चाहिए।
(राजवार्तिक अध्याय 1/33/10/98/31)
राजवार्तिक अध्याय 1/6/5/34/18 शब्दभेदे ध्रुवोऽर्थभेद इति।
= शब्दका भेद होने पर अर्थ अर्थात् वाच्य पदार्थ का भेद ध्रुव है।
आप्त.भी./मू.27 संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादृते क्वचित् ॥27॥
= जो संज्ञावान पदार्थ प्रतिषेध्य कहिए निषेध करने योग्य वस्तु तिस बिना प्रतिषेध कहूँ नाहीं होय है।
राजवार्तिक अध्याय 1/6/5/34/18 में उद्धृत (यावन्मात्राः शब्दाः तावन्मात्राः परमार्थाः भवंति) जित्तियमित्ता सद्दा तित्तियमित्ता होंति परमत्था।
= जितने शब्द होते हैं उतने ही परम अर्थ हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 252 कि बहुणा उत्तेण य जेत्तिय-मेत्ताणि संति णामाणि, तेत्तिय-मेत्ता अत्था संति य णियमेण परमत्था।
= अधिक कहनेसे क्या? जितने नाम हैं उतने ही नियमसे परमार्थ रूप पदार्थ हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/13-14/$198-200/238/1 शब्दोऽर्थस्य निस्संबंधस्य कथ वाचक इति चेत्। प्रमाणमर्थस्य निस्संबंधस्य कथं ग्राहकमिति समानमेतत्। प्रमाणार्थयोर्जन्यजनकलक्षणः प्रतिबंधोऽस्तीति चेत्; न; वस्तुसामर्थ्यस्यांतः समुत्पत्तिविरोधात् ॥$198॥ प्रमाणार्थयोः स्वभावत एव ग्राह्यग्राहकमभावश्चेत्; तर्हि शब्दार्थयोः स्वभावत एव वाच्यवाचकभावः किमिति नेष्यते अविशेषात्। प्रमाणेन स्वभावतोऽर्थसंबद्धेन किमितींद्रियमालोको वा अपेक्ष्यत इति समानमेतत्। शब्दार्थसबंधः कृत्रिमत्वाद्वा पुरुषव्यापारमपेक्षते ॥$199॥...
अथ स्यात्, न शब्दो वस्तु धर्मः; तस्य ततो भेदात्। नाभेदः भिंनेंद्रियग्राह्यत्वात् भिन्नार्थक्रियाकारित्वात् भिन्नसाधनत्वात् उपायोपेयभावोपलंभाच्च। न विशेष्याद्भिन्नं विशेषणम्; अव्यवस्थापत्तेः। ततो न वाचकभेदाद्वाच्यभेद इति; न; प्रकाश्याद्भिन्नामेव प्रमाण-प्रदीप-सूर्य-मणींद्वादीनां प्रकाशकत्वोपलंभात्, सर्वथैकत्वेतदनुपलंभात् ततो भिन्नोऽपि शब्दोऽर्थप्रतिपादक इति प्रतिपत्तव्यम् ॥$200॥
धवला पुस्तक 9/4,1,45/179/3 अथ स्यान्न, नशब्दो...अव्यवस्थापत्ते; (ऊपर कषायपाहुड़ में भी यही शंका की गयी है) नैष दोषः, भिन्नानामपि वस्त्राभरणादीनां विशेषणत्वोपलंभात्।...कृतो योग्यता शब्दार्थानाम्। स्वपराभ्याम्। न चैकांतेनात्यत एव तदुत्पत्तिः, स्वती विवर्तमानानामर्थानां सहायकत्वेन वर्तमानबाह्यार्थोपलंभात्।
= प्रश्न - शब्द व अर्थमें कोई संबंध न होते हुए भी वह अर्थका वाचक कैसे हो सकता है? उत्तर - प्रमाणका अर्थके साथ कोई संबंध न होते हुए भी वह अर्थका ग्राहक कैसे हो सकता है? प्रश्न - प्रमाण व अर्थमें जन्यजनक लक्षण पाया जाता है। उत्तर - नहीं, वस्तुकी सामर्थ्यकी अन्यसे उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। प्रश्न - प्रमाण व अर्थमें तो स्वभावसे ही ग्राह्यग्राहक संबंध है। उत्तर - तो शब्द व अर्थमें भी स्वभावसे ही वाच्य-वाचक संबंध क्यों नहीं मान लेते? प्रश्न - यदि इसमें स्वभावसे ही वाच्यवाचक भाव है तो वह पुरूषव्यापारकी अपेक्षा क्यों करता है? उत्तर - प्रमाण यदि स्वभावसे ही अर्थके साथ संबद्ध है तो फिर वह इंद्रियव्यापार व आलोक (प्रकाश) की अपेक्षा क्यों करता है? इस प्रकार प्रमाण व शब्द दोनोंमें शंका व समाधान समान हैं। अतः प्रमाणकी भाँति ही शब्दमें भी अर्थ प्रतिपादन की शक्ति माननी चाहिए। अथवा, शब्द और पदार्थका संबंध कृत्रिम है। अर्थात् पुरुषके द्वारा किया हुआ है, इसलिए वह पुरुषके व्यापारकी अपेक्षा रखता है। प्रश्न - शब्द वस्तुका धर्म नहीं है, क्योंकि उसका वस्तुसे भेद है। उन दोनोंमें अभेद नहीं कहा जा सकता क्योंकि दोनों भिन्न इंद्रियोंके विषय हैं, और वस्तु उपेय है। इन दोनोंमें विशेष्य विशेषण भावकी अपेक्षा भी एकत्व नहीं माना जा सकता, क्योंकि विशेष्यसे भिन्न विशेषण नहीं होता है, कारण कि ऐसा माननेसे अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है।
[धवला पुस्तक 9/4,1,45/179/3 पर यही शंका करते हुए शंकाकारने उपरोक्त हेतुओँके अतिरिक्त ये हेतु और भी उपस्थित किये हैं - दोनों भिन्न इंद्रियोंके विषय हैं। वस्तु त्वगिंद्रियसे ग्राह्य है और शब्द त्वगिंद्रियसे ग्राह्य नहीं है। दूसरे, उन दोनोंमें अभेद माननेसे `छुरा' और `मोदक' शब्दोंका उच्चारण करनेपर क्रमसे मुख कटने तथा पूर्ण होनेका प्रसंग आता है; अतः दोनोंमें सामानाधिकरण्य नहीं हो सकता।] (और भी देखें नय - 4.5) अतः शब्द वस्तुका धर्म न होनेसे उसके भेदसे अर्थभेद नहीं हो सकता? उत्तर - नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार प्रमाण, प्रदीप, सूर्य, मणि और चंद्रमा आदि पदार्थ घट पट आदि प्रकाश्यभूत पदार्थोंसे भिन्न रहकर ही उनके प्रकाशक देखे जाते हैं, तथा यदि उन्हें सर्वथा अभिन्न माना जाय तो उनके प्रकाश्य-प्रकाशकभाव नहीं बन सकता है; उसी प्रकार शब्द अर्थसे भिन्न होकर भी अर्थका वाचक होता है, ऐसा समझना चाहिए। दूसरे, विशेष्यसे अभिन्न भी वस्त्राभरणादिकोंको विशेषणता पायी जाती है। (जैसे-घड़ीवाला या लाल पगड़ीवाला) प्रश्न - शब्द व अर्थ में यह योग्यता कहाँसे आती है कि नियत शब्द नियतही अर्थका प्रतिपादक हो? उत्तर - स्व व परसे उनके यह योग्यता आती है। सर्वथा अन्यसे ही उसकी उत्पत्ति हो, ऐसा नहीं है; क्योंकि, स्वयं बर्तनेवाले पदार्थोंकी सहायतासे वर्तते हुए बाह्य पदार्थ पाये जाते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/13-14/$215-216/265-268 अथ स्यात् न पदवाक्यान्यर्थप्रतिपादिकानि; तेषामसत्त्वात। कुतस्तदसत्त्वम्। [अनुपलंभात् सोऽपि कुतः।] वर्णानां क्रमोत्पन्नानामनित्यानामेतेषां नामधेयाति (पाठ छूटा हुआ है) समुदायाभावात्। न च तत्समुदय (पाठ छूटा हुआ है) अनुपलंभात्। न च वर्णादर्थप्रतिपत्तिः; प्रतिवर्णमर्थप्रतिपत्तिप्रसंगात्। नित्यानित्योभयपक्षेषु संकेतग्रहणानुपपत्तेश्च न पदवाक्येभ्योऽर्थप्रतिपत्तिः। नासंकेतितः शब्दोऽर्थप्रतिपादकः अनुपलंभात्। ततो न शब्दार्थप्रतिपत्तिरिति सिद्धम् ॥$215॥ न च वर्ण-पद-वाक्यव्यतिरिक्तः नित्योऽक्रम अमूर्तो निरवयवः सर्वगतः अर्थप्रतिपत्तिनिमित्तं स्फोट इति; अनुपलंभात् ॥$216॥...न; बहिरंगशब्दात्मकनिमित्तं च (तेभ्यः) क्रमेणोत्पन्नवर्णप्रत्ययेभ्यः अक्रमस्थितिभ्यः समुत्पन्नपदवाक्याभ्यामर्थविषयप्रत्ययोत्पत्त्युपलंभात्। न च वर्णप्रत्ययानां क्रमोत्पन्नानां पदवाक्यप्रत्ययोत्पत्तिनिमित्तानामक्रमेण स्थितिर्विरुद्धा; उपलभ्यमानत्वात्।...न चानेकांते एकांतवाद इव संकेतग्रहणमनुपपन्नम्; सर्वव्यवहाराणा [मनेकांत एवं सुघटत्वात्। ततः] वाच्यवाचकभावो घटत इति स्थितम्।
= प्रश्न - क्रमसे उत्पन्न होनेवाले अनित्य वर्णोंका समुदाय असत् होनेसे पद और वाक्योंका ही जब अभाव है, तो वे अर्थप्रतिपादक कैसे हो सकते हैं? और केवल वर्णोंसे ही अर्थका ज्ञान हो जाय ऐसा है नहीं, क्योंकि `घ' `ट' आदि प्रत्येक वर्णसे अर्थके ज्ञानका प्रसंग आता है? सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य और सर्वथा उभय इन तीनों पक्षोमें ही संकेतका ग्रहण नहीं बन सकता इसलिए पद और वाक्योंसे अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता; क्योंकि संकेत रहित शब्द पदार्थका प्रतिपादक होता हुआ नहीं देखा जाता? वर्ण, पद और वाक्यसे भिन्न, नित्य, क्रमरहित, अमूर्त, निरवयव, सर्वगत `स्फोट' नामके तत्त्वको पदार्थोंकी प्रतिपत्तिका कारण मानना भी ठीक नहीं; क्योंकि, उस प्रकारकी कोई वस्तु उपलब्ध नहीं हो रही है? उत्तर - नहीं, क्योंकि, बाह्य शब्दात्मक निमित्तोंसे क्रमपूर्वक जो `घ' `ट' आदि वर्णज्ञान उत्पन्न होते हैं, और जो ज्ञानमें अक्रमसे स्थित रहते हैं, उनसे उत्पन्न होनेवाले पद और वाक्योंसे अर्थ विषयक ज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है। पद और वाक्योंके ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारणभूत तथा क्रमसे उत्पन्न वर्ण विषयक ज्ञानोंकी अक्रमसे स्थिति माननेमें भी विरोध नहीं आता; क्योंकि, वह उपलब्ध होती है। तथा जिस प्रकार एकांतवादमें संकेतका ग्रहण नहीं बनता है, उसी प्रकार अनेकांतमें भी न बनता हो, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि समस्त व्यवहार अनेकांतवादमें ही सुघटित होते हैं। (अर्थात् वर्ण व वर्णज्ञान कथंचित् भिन्न भी है और कथंचित् अभिन्न भी) अतः वाच्यवाचक भाव बनता है, यह सिद्ध होता है।
राजवार्तिक अध्याय 1/26/4/87/23 शब्दाश्च सर्वे संख्येया एव, द्रव्यपर्यायाः पुनः संख्येयाऽसंख्येयानंतभेदाः।
= सर्व शब्द तो संख्यात ही होतें हैं। परंतु द्रव्योंकी पर्यायोंके संख्यात असंख्यात व अनंतभेद होते हैं।
राजवार्तिक अध्याय 4/42/13/252/22 यदा वक्ष्यमाणैः कालादिभिरस्तित्वादीनां धर्माणां भेदेन विवक्षा तदैकस्य शब्दस्यानेकार्थप्रत्यायनशक्त्याभावात् क्रमः। यदा तु तेषामेव धर्माणां कालदिभिरभेदेन वृत्तमात्मरुपमुच्यते तदैकेनापि शब्देन एकधर्मप्रत्यायनमुखेन तदात्मकत्वापन्नस्य अनेकाशेषरूपस्य प्रतिपादनसंभवात् यौगपद्यम्। तत्र यदा यौगपद्यं तदा सकलादेशः; स एव प्रमाणनित्युच्येते।...यदा तु क्रमः तदा विकलादेशः स एव नय इति व्यपदिश्यते।
= जब अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादि को अपेक्षा भिन्न-भिन्न विवक्षित होते हैं, उस समय एक शब्दमें अनेक अर्थोंके प्रतिपादनकी शक्ति न होनेसे क्रमसे प्रतिपादन होता है। इसे विकलादेश कहते हैं। परंतु जब उन्हीं अस्तित्वादि धर्मोंकी कालादिककी दृष्टिसे अभेद विवक्षा होती है, तब एक भी शब्दके द्वारा एक धर्ममुखेन तादात्म्य रूपसे एकत्वको प्राप्त सभी धर्मोंका अखंड भावसे युगपत् कथन हो जाता है। यह सकलादेश कहलाता है। विकलादेश नय रूप है और सकलादेश प्रमाण रूप है।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 14/179/29 में उद्धृत “स्वाभाविकसामर्थ्यसमयाभ्यामर्थबोध निबंधनं शब्दः।”
= स्वाभाविक शक्ति तथा संकेतसे अर्थका ज्ञान करानेवालेको शब्द कहते हैं।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 14/178/30 कालापेक्षया पुनर्यथा जैनानां प्रायश्चित्तविधौ...प्राचीनकाले षड्गुरुशब्देन शतमशीत्यधिकमुपवासानामुच्यते स्म, सांप्रतकाले तु तद्विपरीते तेनैव षड्गुरुशब्देन उपवासत्रयमेव संकेत्यते जीवकल्पव्यवहारनुसारात्।
= जितकल्प व्यवहारके अनुसार प्रायश्चित्त विधिमें प्राचीन समयमें `षड्गुरु' शब्दका अर्थ एक सौ अस्सी उपवास किया जाता था, परंतु आजकल उसी `षड्गुरु' का अर्थ केवल तीन उपवास किया जाता है।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 14/179/4 शास्त्रापेक्षया तु यथा पुराणेषु द्वादशीशब्देनैकादशी। त्रिपुरार्णवे च अलिशब्देन मदाराभिषिक्तं च मैथुनशब्देन मधुसर्पिषोर्ग्रहणम् इत्यादि।
= पुराणोंमें उपवास के नियमोंका वर्णन करते समय `द्वादशी' का अर्थ एकादशी किया जाता हैं; शाक्त लोगोंके ग्रंथोमें `अलि' शब्द मदिरा और `मैथुन' शब्द शहद और घी के अर्थमें प्रयुक्त होते हैं।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 14/178/28 चौरशब्दोऽन्यत्र तस्करे रूढोऽपि दाक्षिणात्यानामोदने प्रसिद्धः। यथा च कुमारशब्दः पूर्वदेशे आश्विनमासे रूढः। एवं कर्कटीशब्दादयोऽपि तत्तद्देशापेक्षया योन्यादिवाचका ज्ञेयाः।
= `चौर' शब्दका साधारण अर्थ तस्कर होता है, परंतु दक्षिण देशमें इस शब्दका अर्थ चावल होता है। `कुमार' शब्दका सामान्य अर्थ युवराज होनेपर भी पूर्व देशमें इसका अर्थ आश्विन मास किया जाता है। `कर्कटी' शब्दका अर्थ ककड़ी होनेपर भी कहीं-कहीं इसका अर्थ योनि किया जाता है।
सप्तभंग तरंगिनी पृष्ठ 70/4 उक्तिश्चावाच्यतैकांतेनावाच्यमिति युज्यते। इति स्वामिसमंतभद्राचार्यवचनं कथं संघटते।...ने तदर्थापरिज्ञानात्। अयं खलु तदर्थः, सत्त्वाद्येकैकधर्ममुखेन वाच्यमेव वस्तु युगपत्प्रधानभूतसत्त्वासत्त्वोभयधर्मावच्छिन्नत्वेनावाच्यम्।
= प्रश्न - अवाच्याताका जो कथन है वह एकांत रूपसे अकथनीय है. ऐसा माननेसे `अवाच्यता युक्त न होगी', यह श्री समंतभद्राचार्यका कथन कैसे संगत होगा? उत्तर - ऐसी शंका भी नहीं की जा सकती, क्योंकि तुमने स्वामी समंतभद्राचार्यजीके वचनोंको नहीं समझा। उस वचनका निश्चय रूपसे अर्थ यह है कि सत्त्व आदि धर्मोंमें-से एक-एक धर्मके द्वारा जो पदार्थ वाच्य है अर्थात् कहने योग्य है, वही पदार्थ प्रधान भूत सत्त्व असत्त्व इस उभय धर्म सहित रूपसे अवाच्य है।
राजवार्तिक अध्याय 2/7/5/11/2 रूढिशब्देषु हि क्रियोपात्तकाला व्युत्पत्त्यर्थैव न तंत्रम्। यथा गच्छतीति गौरिति।...
राजवार्तिक अध्याय 2/12/2/126/30 कथं तर्ह्यस्य निष्पत्तिः `त्रस्यंतीति त्रसाः' इति। व्युत्पत्तिमात्रमेव नार्थः प्राधान्यनाश्रीयते गोशब्दप्रवृत्तिवत्। ...एवंरूढिविशेषबललाभात् क्वचिदेव वर्तते।
= जितने रूढि शब्द हैं उनकी भूत भविष्यत् वर्तमान कालके आधीन जो भी क्रिया हैं वे केवल उन्हें सिद्ध करनेके लिए हैं। उनसे जो अर्थ द्योतित होता है वह नहीं लिया जाता है। प्रश्न - जो भयभीत होकर गति करे सो त्रस यह व्युत्पत्ति अर्थ ठीक नहीं हैं। (क्योंकि गर्भस्थ अंडस्थ आदि जीव त्रस होते हुए भी भयभीत होकर गमन नहीं करते। उत्तर - `त्रस्यंतीति त्रसाः' यह केवल ”गच्छतीति गौः” की तरह व्युत्पत्ति मात्र है।
(राजवार्तिक अध्याय 2/13/1/127) (राजवार्तिक अध्याय 2/36/3/145)
धवला पुस्तक 1/1,1,75/314/5 चेत्स्वाभाव्यात्प्रत्यक्षस्येव।
= जैसे प्रत्यक्ष स्वभावतः प्रमाण है उसी प्रकार आर्ष भी स्वभावतः प्रमाण है।
धवला पुस्तक 1/1,1,22/196/4 वक्तृप्रामाण्याद्वचनप्रामाण्यम्।
= वक्ताकी प्रमाणता से वचनमें प्रमाणता आती है।
( जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार 13/84)
पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 4/10 सर्वविद्वीतरागोक्तो धर्मः सूनृततां व्रजेत्। प्रामाण्यतो यतः पुंसो वाचः प्रामाण्यमिष्यते ॥10॥
= जो धर्म सर्वज्ञ और वीतरागके द्वारा कहा गया है वही यथार्थताको प्राप्त हो सकता है, क्योंकि पुरुषकी प्रमाणतासे ही वचनमें प्रमाणता मानी जाती है।
धवला पुस्तक 4/1,5,320/382/11 तं कधं णव्वदे। आइरियपरंपारगदोवदेसादो।
= यह कैसे जाना जाता है कि उपशम सम्यक्त्वक शलाकाएँ पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होती है? उत्तर - आचार्य परंपरागत उपदेशसे यह जाना जाता है।
( धवला पुस्तक 5/1,6,36/31/5/) ( धवला पुस्तक 14/164/6; 169/2; 170/13; 208/11; 209/11; 370/10; 510/2)
धवला पुस्तक 6/1,9-1,28/65/2 एइंदियादिसु अव्वत्तचेट्ठेसु कधं सुहवदुहवभावा णज्जंते। ण तत्थ तेसिमव्वत्ताणमागमेण अत्थित्तसिद्धीदो।
= प्रश्न - अव्यक्त चेष्टावाले एकेंद्रिय आदि जीवोंमें सुभग और दुर्भग भाव कैसे जाने जाते हैं? उत्तर - नहीं, क्योंकि एकेंद्रिय आदिमें अव्यक्त रूपसे विद्यमान उन भावोंका अस्तित्व आगमसे सिद्ध है।
धवला पुस्तक 7/2,1,56/96/8 ण दंसणमत्थि विसयाभावादो।
धवला पुस्तक 7/2,1.56/98/1 अत्थि दंसणं, सुत्तम्मिअट्ठकम्मणिद्देसाददो।...इच्चादिउवसंहारसुत्तदंसणादो च।
= प्रश्न - दर्शन है नहीं, क्योंकि उसका कोई विषय नही है? उत्तर - दर्शन है क्योंकि, सूत्रमें आठ कर्मोंका निर्देश किया गया है।...इस प्रकारके अनेक उपसंहार सूत्र देखनेसे भी, यही सिद्ध होता है कि दर्शन है।
राजवार्तिक अध्याय 8/16/562 तदसिद्धिरिति चेत्; न; अतिशयज्ञानाकरत्वात् ॥16॥ अन्यत्राप्यतिशयज्ञानदर्शनादिति चेत्; न; अतएव तेषां सभवात् ॥17॥...आर्हतमेव प्रवचनं तेषां प्रभवः। उक्तं च-सुनिश्चितं न; परतंत्रुयक्तिषु स्फुरंति याः काश्चन सूक्तसंपदः। तवैव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिता जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविप्रुषः (द्वात्रि.1/3) श्रद्धामात्रमिति चेत्; न; भूयसामुपलब्धेः रत्नाकरवत् ॥18॥ तदुद्भवत्वात्तेषामपि प्रामाण्यमिति चेत्; न; निःसारत्वात् काचादिवत् ॥19॥
= प्रश्न - अर्हत् का आगम पुरुषकृत होनेसे अप्रमाण है? उत्तर - ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि वह अतिशय ज्ञानोंका आकार है। प्रश्न - अतिशय ज्ञान अन्यत्र भी देखे जाते हैं? अतएव अर्हत् आगमको ही ज्ञानका आकार कहना उपयुक्त नहीं है? उत्तर - अन्यत्र देखे जानेवाले अतिशय ज्ञानोंका मूल उद्भवस्थान आर्हत प्रवचन ही है। कहा भी है कि `यह अच्छी तरह निश्चित है कि अन्य मतोंमें जो युक्तिवाद और अच्छी बातें चमकती हैं वे तुम्हारी ही हैं। वे चतुर्दश पूर्व रूपी महासागरसे निकली हुई जिनवाक्य रूपी बिंदुएँ हैं। प्रश्न - यह सर्व बातें केवल श्रद्धानमात्र गम्य हैं? उत्तर - श्रद्धामात्र गम्य नहीं अपितु युक्तिसिद्ध हैं जैसे गाँव, नगर या बाजारोंमें कुछ रत्न देखे जाते हैं फिर भी उनकी उत्पत्तिका स्थान रत्नाकर समुद्र ही माना जाता है। प्रश्न - यदि वे व्याकरण आदि अर्हत्प्रवचनसे निकले हैं तो उनकी तरह प्रमाण भी होने चाहिए? उत्तर - नहीं, क्योंकि वे निस्सार हैं। जैसे नकली रत्न क्षार और सीप आदि भी रत्नाकरसे उत्पन्न होते हैं परंतु निःसार होनेसे त्याज्य हैं। उसी तरह जिनशासन समुद्रसे निकले वेदादि निःसार होनेसे प्रमाण नहीं हैं।
राजवार्तिक अध्याय 6/27/5/532 अतिशयज्ञानदृष्टत्वात्, भगवतामर्हतामतिशयवज्ज्ञानं युगपत्सर्वार्थावभासनसमर्थं प्रत्यक्षम्, तेन दृष्टं तद्दृष्टं यच्छास्त्रं तद् यथार्थोपदेशकम्, अतस्तत्प्रमाण्याद् ज्ञानावरणाद्यास्रवनियमप्रसिद्धिः।
= शात्र अतिशय ज्ञानवाले युगपत् सर्वावभासनसमर्थ प्रत्यक्षज्ञानी केवलीके द्वारा प्रतीत है, अतः प्रमाण है। इसलिए शास्त्रमें वर्णित ज्ञानावरणादिकके आस्रवके कारण आगमानुगृहीत है।
गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 196/438/1 किं बहुना सर्वतत्त्वानां प्रवक्तरिपुरुषे आप्ते सिद्धेसति तद्वाक्यस्यागमस्य सूक्ष्मांतरितदूरार्थेषु प्रामाण्यसुप्रसिद्धेः।
= बहुत कहने करि कहा? सर्व तत्त्वनिका वक्ता पुरुष जो है आप्तताकी सिद्धि होतै तिस आप्तके वचन रूप जो आगम ताकी सूक्ष्म अंतरित दूरी पदार्थ निविषैं प्रमाणताकी सिद्धि हो है।
राजवार्तिक अध्याय 6/27/527 अर्हंत सर्वज्ञ...के वचन प्रमाणभूत हैं...स्वभाव विषै तर्क नाहीं।
धवला पुस्तक 1/1,1,22/196/5 विगतादेषदोषावरणत्वात् प्राप्ताशेषवस्तुविषयबोधस्तस्य व्याख्यातेति प्रतिपत्तव्यम् अन्यथास्यापौरुषेयत्वस्यापि पौरुषेयवदप्रामाण्यप्रंगात्
= जिसने संपूर्ण भावकर्म व द्रव्यकर्मको दूर कर देनेसे संपूर्ण वस्तु विषयक ज्ञानको प्राप्त कर लिया है वही आगमका व्याख्याता हो सकता है। ऐसा समझना चाहिए। अन्यथा पौरुषेयत्व रहित इस आगमको भी पौरुषेय आगमके समान अप्रमाणताका प्रसंग आ जायेगा।
धवला पुस्तक 3/1,2,2/10-11/12 आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षयं विदुः। त्यक्तदोषोऽनृतं वाक्यं न ब्रूयाद्धेत्वसंभवात् ॥10॥ रागाद्वा द्वेषादा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्युनृतम्। यस्य तु नैते दोषास्तस्यनृतकारणं नास्ति।
= आप्तके वचनको आगम जानना चाहिए और जिसने जन्म जरादि अठारह दोषोंका नाश कर दिया है उसे आप्त जानना चाहिए। इस प्रकार जो त्यक्त दोष होता है, वह असत्य वचन नहीं बोलता है, क्योंकि उसके असत्य वचन बोलनेका कोई कारण ही संभव नहीं है ॥10॥ रागसे, द्वेषसे, अथवा मोहसे असत्य वचन बोला जाता है, परंतु जिसके ये रागादि दोष नहीं हैं उसके असत्य वचन बोलनेका कोई कारण भी नहीं पाया जाता है ॥10॥
( धवला पुस्तक 10/4,2,460/280/2)
धवला पुस्तक 10/5,5,121/382/1 पमाणत्तं कुदो णव्वदे। रागदोषमोहभावेण पमाणीभूदपुरिसपरंपराए आगमत्तादो।
= प्रश्न - सूत्रकी प्रमाणता कैसे जानी जाती है? उत्तर - राग, द्वेष और मोहका अभाव हो जाने से प्रमाणीभूत पुरुष परंपरासे प्राप्त होनेके कारण उसकी प्रमाणता जोनी जाती है।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 17/237/9 तदेवमाप्तेन सर्वविदा प्रणीत आगमः प्रमाणमेव। तदप्रामाण्यं हि प्रमाणयकदोषनिबंधनम्।
= सर्वज्ञ आप्त-द्वारा बनाया आगम ही प्रमाण है। जिस आगमका बनानेवाला सदोष होता है, वही आगम अप्रमाण होता है।
अनगार धर्मामृत अधिकार 2/20 जिनोक्ते वा कुतो हेतुबाधगंधोऽपि शंक्यते। रागादिना विना को हि करोति विवथं वचः ॥20॥
= कौन पुरुष होगा जो कि रागद्वेषके बिना वितथ मिथ्या वचन बोले। अतएव वीतरागके वचनोंमे अंश मात्र भी बाधाकी संभावना किस तरह हो सकती है।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,15/$119/153 णेदाओ गाहाओ सुत्तं गणहरपत्तेयबुद्ध-सुदकेवलि-अभिण्णदसपुव्वीसु गुणहरभडारयस्स अभावादो; ण; णिद्दोसपक्खरसहेउपमाणेहि सुत्तेण सरिसत्तमत्थि त्ति गुणहराइरियगाहाणं पि सुत्तत्तुवलंभावादो..एदं सव्वं पि सुत्तलक्खणं जिणवयणकमलविणिग्गयअत्थपदाणं चेव संभवइ ण गणहरमुहविणिग्गयगंथरयणाए, ण सच्च (सुत्त) सारिच्छमस्सिदूण तत्थ वि सुत्तत्तं पडि विरोहाभावादो।
= प्रश्न - (कषाय प्राभृत संबंधी) एक सौ अस्सी गाथाएँ सूत्र नहीं हो सकती है, क्योंकि गुणधर भट्टारक न गणधर हैं, न प्रत्येक बुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं, और न अभिन्न दशपूर्वी ही हैं? उत्तर - नहीं, क्योंकि गुणधर भट्टाकरकी गाथाएं निर्दोष हैं, अल्प अक्षरवाली हैं, सहेतुक हैं, अतः वे सूत्रके समान हैं, इसिलए गुणधर आचार्य की गाथाओंमें सूत्रत्व पाया जाता है। प्रश्न - यह संपूर्ण सूत्र लक्षण तो जिनदेवके मुखकमलसे निकले हुए अर्थ पदोंमें ही संभव हैं, गणधरके मुखसे निकली ग्रंथ रचनामें नहीं? उत्तर - नहीं, क्योंकि गणधरके वचन भी सूत्रके समान होते हैं। इसलिए उनके वचनोंमे सूत्रत्व होनेके प्रति विरोधका अभाव है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 8/26/405 व्याख्यातो सप्रपंचः बंधपदार्थः। अविधमनःपर्ययकेवलज्ञानप्रत्यक्षप्रमाणगम्यस्तदुपदिष्टागमानुमेयः।
= इस प्रकार विस्तारके साथ बंध पदार्थका व्याख्यान किया। यह अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञानरूप प्रत्यय-प्रमाण-गम्य है, और इन ज्ञानवाले जीवोंके द्वारा उपदिष्ट आगमसे अनुमेय है।
धवला पुस्तक 13/5,5,121/382/1 प्रमाणत्तं कुदो णव्वदे।..पमाणीभूदपुरिसपरंपराए आगमदत्तादो।
= प्रश्न - सूत्रमें प्रमाणता कैसे जानी जाती है? उत्तर - प्रमाणीभूत पुरुष परंपरासे प्राप्त होनेके कारण उसकी प्रमाणता जानी जाती है।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,15/$63/82/2 तं च उपदेसं लहिय वत्तव्वं।
= उपदेश ग्रहण करके अर्थ कहना चाहिए।
धवला पुस्तक 1/1,1,27/222/4 दोण्हं वयणाणं मज्झे कं वयणं सच्चमिदि चे सुदकेलवी केवली वा जाणादि।
= प्रश्न - दोनों प्रकारके वचनोंमें-से किसको सत्य माना जाये? उत्तर - इस बातको केवली या श्रुतकेवली ही जान सकते हैं।
( धवला पुस्तक 1/1,1,37/262/1) ( धवला पुस्तक 7/2/11,75/540/4)
धवला पुस्तक 9/4,1,71/333/3 दोण्हं सुत्ताणं विरोहे संतेत्थप्पावलंबणस्स णाइयत्तादो।
= दो सूत्रोंके मध्य विरोध होनेपर चुप्पीका अवलंबन करना ही न्याय है।
( धवला पुस्तक 9/4,1,44/126/4), ( धवला पुस्तक 14/5,6,116/151/5)
धवला पुस्तक 14/5,6,116/11 सच्चमेदमेक्केणेव होदव्वमिदि, किंतु अणेणेव होदव्वमिदि ण वट्टमाणकाले णिच्छओ कादुं सक्किज्जदे, जिण-गणहरपत्तेयबुद्ध-पण्णसमण-सुदकेवलिआदीणमभावादो॥
= यह सत्य है कि इन दोनोंमें-से कोई एक अल्पबहुत्व होना चाहिए किंतु यही अल्पबहुत्व होना चाहिए इसका वर्तमान कालमें निश्चय करना शक्य नहीं है, क्योंकि इस समय जिन, गणधर, प्रत्येकबुद्ध, प्रज्ञाश्रमण, और श्रुतकेवलो आदिका अभाव है।
( गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 288/616/2-4) (और भी देखें आगम - 3.9)
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 235 आगमेन तावत्सर्वाण्यपि द्रव्याणि प्रमीयंते..विचित्र गुणपर्यायविशिष्टानि च प्रतीयंते, सहक्रमप्रवृत्तानेकधर्मवयापकानेकांतमयत्वेनैवागमस्य प्रमात्वोपपत्तेः।
= आगम-द्वारा सभी द्रव्य प्रमेय (ज्ञेय) होते हैं। आगमसे वे द्रव्य विचित्र गुण पर्यायवाले प्रतीत होते हैं. क्योंकि आगमको सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनेक धर्मोंके व्यापक अनेकांतमय होनेसे प्रमाणताकी उपपत्ति है।
अष्टसहस्री पृ. 62 (निर्णय सागर बंबई) `अविरोधश्च यस्मादिष्टं (प्रयोजनभूतं) मोक्षादिकं तत्त्वं ते प्रसिद्धेन प्रमाणेन न बाध्यते। तथा हि यत्र यस्याभिमतं तत्त्वं प्रमाणेन न बाध्यते स तत्र युक्तिशास्त्राविरोधी वाक्...।”
= इष्ट अर्थात् प्रयोजनभूत मोक्ष आदित्तत्त्व किसी भी प्रसिद्ध प्रमाणसे बाधित न होनेके कारण अविरोधी हैं। जहाँपर जिसका अभिमत प्रमाणसे बाधित नहीं होता, वह वहाँ युक्ति और शास्त्रसे अविरोधी वचनवाला होता है।
अनगार धर्मामृत अधिकार 2/18/133 दृष्टेऽर्थेऽध्यक्षतो वाक्यमनुमेयेऽनुमानतः। पूर्वापरा, विरोधेन परोक्षे च प्रमाण्यताम् ॥18॥
= आगममें तीन प्रकारके पदार्थ बताये हैं - दृष्ट, अनुमेय और परोक्ष। इनमें-से जिस तरहके पदार्थको बतानेके लिए आगममें जो वाक्य आया हो उसको उसी तरहसे प्रमाण करना चाहिए। यदि दृष्ट विषयमें आया हो तो प्रत्यक्षसे और अनुमेय विषयमें आया हो तो अनुमानसे तथा परोक्ष विषयमें आया हो तो पूर्वापर का अविरोध देखकर प्रमाणित करना चाहिए।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,15/$30/44/4 कथं णामसण्णिदाण पदवक्काणं पमाणत्तं। ण, तेसु विसंवादाणुवलंभादो।
= प्रश्न - नाम शब्दसे बोधित होने वाले पद और वाक्योंको प्रमाणता कैसे? उत्तर - नहीं, क्योंकि, इन पदोंमें विसंवाद नहीं पाया जाता, इसलिए वे प्रमाण हैं।
अष्टसहस्री.पृ.62 ( नियमसार बंबई) “यत्र यस्याभिमतं तत्त्वं प्रमाणेन न बाध्यते स तत्र युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्।”
= जहाँ जिसका अभिमत तत्त्व प्रमाणसे बाधित नहीं होता, वहाँ वह युक्ति और शास्त्रसे अविरोधी वचनवाला है।
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 7/613/766/3 तदो ण एत्थ इदमित्थमेवेति एयंतपरिग्गहेण असग्गाहो कायव्वो, परमगुरुपरंपरागउवएसस्स जुत्तिबलेण विहडावेदुमसक्कियत्तादो।
= `यह ऐसा ही है' इस प्रकार एकांत कदाग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुरु पंरपरासे आये उपदेशको युक्तिके बलसे विघटित नहीं किया जा सकता।
धवला पुस्तक 7/2,1,56/98/10 आगमपमाणेण होदु णाम दंसणस्स अत्थित्तं ण जुत्तीए चे। ण, जुत्तीहि आगमस्स बाहाभावादो आगमेण वि जच्चा जुत्ती ण बाहिज्जदि ति चे। सच्चं ण बाहिज्जदि जच्चा जुत्ती, किंतु इमा बहाहिज्जदि जच्चात्ताभावादो।
= प्रश्न - आगम प्रमाणसे भले दर्शनका अस्तित्व हो, किंतु युक्तिसे तो दर्शनका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता? उत्तर - होता है, क्योंकि युक्तियोंसे आगमकी बाधा नहीं होती। प्रश्न - आगमसे भी तो जात्य अर्थात् उत्तम युक्तिकी बाधा नहीं होनी चाहिए? उत्तर - सचमुच ही आगमसे युक्तिकी बाधा नहीं होती, किंतु प्रस्तुत युक्तिकी बाधा अवश्य होती है, क्योंकि वह उत्तम युक्ति नहीं है।
धवला पुस्तक 12/4,2,13,55/399/13 ण च जुत्तिविरुद्धत्तादो ण सुत्तमेदमिदिवोत्तुं सकिज्जदे, सुत्तविरुद्धाए जुत्तित्ताभावादो। ण च अप्पमाणेण पमाणं बाहिज्जदे, विरोहादो।
= प्रश्न - युक्ति विरुद्ध होनेसे यह सूत्र ही नहीं है? उत्तर - ऐसा कहना शक्य नहीं है। क्योंकि जो युक्ति सूत्रके विरुद्ध हो वह वास्तवमें युक्ति ही संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त अप्रमाणके द्वारा प्रमाणको बाधा नहीं पहुँचायी जा सकती क्योंकि वैसा होनेके विरोध है।
( गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 196/436/15)
धवला पुस्तक 12/4,2,14,38/494/15 ण च सुत्तपडिकूलं वक्खाणं होदि, वक्खाणाभासहत्तादो। ण च जुत्तीए सुत्तस्स बाहा संभवदि, संयलबाहादीदस्स सुत्तववएसादो।
= सूत्रके प्रतिकूल व्याख्यान होता नहीं है। क्योंकि वह व्याख्यानाभास कहा जाता है। प्रश्न - यदि कहा जाय कि युक्तिसे सूत्रको बाधा पहुँचायी जा सकती है? उत्तर - सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो समस्त बाधाओँसे रहित है उसकी सूत्र संज्ञा है।
( धवला पुस्तक 14/5,6,552/459/10)
नोट- भगवती आराधना मूलमें स्थल-स्थलपर अनेकों कथानक दृष्टांत रूपमें दिये गये हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि प्रथमानुयोग जो बहुत पीछेसे लिपिबद्ध हुआ वह पहलेसे आचार्योंको ज्ञात था।
धवला पुस्तक 1/1,1,22/197/1 अप्रमाणमिदानींतनः आगमः आरातीयपुरुषव्याख्यातार्थत्वादिति चेन्न, ऐदंयुगीनज्ञानविज्ञानसंपन्नतया प्राप्तप्रामाण्यराचार्यैर्व्याख्यातार्थत्वात्। कथं छद्मस्थानां सत्यवादित्वमिति चेन्न, यथाश्रुतव्याख्यातृणां तदविरोधात्। प्रमाणीभूतगुरुपर्वक्रमेणायातोऽयमर्थ इति कथमवसीयत इति चेन्न, दृष्टिविषये सर्वत्राविसंवादात्। अदृष्टविषयेऽप्यविसंवादिनागमभावेनैकत्वे सति सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणकत्वात्। ऐदंयुगीनज्ञानविज्ञानसंपन्नभूयसामाचार्याणामुपदेशाद्वा तदवगतेः।
= प्रश्न - आधुनिक आगम अप्रमाण है, क्योंकि अर्वाचीन पुरुषोने इसके व्याख्यानका अर्थ किया है? उत्तर - यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस काल संबंधी ज्ञान-विज्ञानसे युक्त होनेके कारण प्रमाणताको प्राप्त आचार्योंके द्वारा इसके अर्थका व्याख्यान किया गया है, इसलिए आधुनिक आगम भी प्रमाण है। प्रश्न - छद्मस्थोंके सत्यवादीपना कैसे माना जा सकता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि श्रुतके अनुसार व्याख्यान करनेवाले आचार्यों के प्रमाणता माननेमें विरोध नहीं है। प्रश्न - आगमका विवक्षित अर्थ प्रामाणिक गुरुपरंपरासे प्राप्त हुआ है वह कैसे निश्चित किया जाये? उत्तर - नहीं, क्योंकि प्रत्यक्षभूत विषयमें तो सब जगह विसंवाद उत्पन्न नहीं होनेसे निश्चय किया जा सकता है। और परोक्ष विषयमें भी, जिसमें परोक्ष विषयका वर्णन किया गया है। वह भाग अविसंवादी आगमके दूसरे भागोंके साथ आगमकी अपेक्षा एकताको प्राप्त होनेपर अनुमानादि प्रमाणोंके द्वारा बाधक प्रमाणोंका अभाव सुनिश्चित होनेसे उसका निश्चय किया जा सकता है। अथवा आधुनिक ज्ञान विज्ञान से युक्त आचार्योंके उपदेशसे उसकी प्रामाणिकता जाननी चाहिए।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,15/$64/82 जिणउवदिट्ठतासो होदु दव्वागमो पमाणं, किंतु अप्पमाणीभूदपुरिसपव्वोलोकमेण आगयत्तादो अप्पमाणं वट्टमाणकलादव्वागमो, त्ति ण पच्चबट्ठादुं जुत्तं; राग-द्वेष-भयादीदआयरियपव्वोलीकमेण आगयस्स अपमाणत्तविरोहादो।
= प्रश्न - जिनेंद्रदेवके द्वारा उपदिष्ट होनेसे द्रव्यागम प्रमाण होओ, किंतु वह अप्रमाणीभूत पुरुष परंपरासे आया हुआ है...अतएव वर्तमान कालीन द्रव्यागममें अप्रमाण है? उत्तर - ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यागम राग, द्वेष और भयसे रहित आचार्य परंपरासे आया हुआ है, इसलिए उसे अप्रमाण माननेमें विरोध आता है।
धवला पुस्तक 1/1,1,27/221/4 दोण्हं वयणाणं मज्झे एक्कमेवसुत्तं दोहि, तदो जिणा ण अण्णहा वाइयो, तदो तव्वयणाणं विप्पडिसेहो इदि चे सच्चमेयं, किंतु ण तव्वयणाणि एयाइं आइल्लु आइरिय-वयाणाइं, तदो एयाणं विरोहस्सत्थि संभवो इदि।
= प्रश्न - दोनों प्रकारके वचनोंमें-से कोई एक ही सूत्र रूप हो सकता है? क्योंकि जिन अन्यथावादी नहीं होते, अतः इनके वचनोंमें विरोध नहीं होना चाहिए? उत्तर - यह कहना सत्य है कि वचनोंमें विरोध नहीं होना चाहिए। परंतु ये जिनेंद्र देवके वचन न होकर उनके पश्चात् आचार्योंके वचन हैं, इसलिए उनमें विरोध होना संभव है।
धवला पुस्तक 8/2,28/56/10 कसायपाहुडसुत्तेणेदं सुत्तं विरुज्झदि त्ति वुत्ते सच्चं विरुज्झई ...कधं सुत्ताणं विरोहो। ण, सुत्तोवसंहारणमसयलसुदधारयाइरियपरतंताणं विरोहसंभवदंसणादो।
= प्रश्न - कषायप्राभृतके सूत्रसे तो यह सूत्र विरोधका प्राप्त होता है? उत्तर - ...सचमुचमें यह सूत्र कषायप्राभृतके सूत्रसे विरुद्ध है। प्रश्न - ...सूत्रमें विरोध कैसे आ सकता है? उत्तर - अल्प श्रुतज्ञानके धारक आचार्योंके परतंत्र सूत्र व उपसंहारों के विरोधकी संभावना देखी जाती है।
धवला पुस्तक 1/1,1,27/221/7 कथ सुत्तत्तणमिदि। आइरियपरंपराए णिरंतरमागयाणं...बुद्धिसु ओहट्टंतीसु ...वज्जभीरुहि गहिदत्थेहि आइरिएहि पोत्थएसु चडावियाणं असुत्तत्तण-विरोहादो। जदि एवं, तो एयाणं पि वयणाणं तदवयत्तादो सुत्तत्तणं पावदि त्त चे भवदु दोण्हं मज्झे एक्कस्स सुत्तत्तणं, ण दोण्हं पि परोप्पर-विरोहाददो।
= प्रश्न - तो फिर (उन विरोधि वचनोंको) ...सूत्रपना कैसे प्राप्त होता है? उत्तर - आचार्य परंपरासे निरंतर चले आ रहे (सूत्रोंको) ...बुद्धि क्षीण होनेपर...पार भीरु (तथा) जिन्होंने गुरु परंपरासे श्रुतार्थ ग्रहण किया था, उन आचार्योने तीर्थं व्युच्छेदके भयसे उस समय अवशिष्ट रहे हुए...अर्थको पोथियोंमें लिपिबद्ध किया, अतएव उनमें असूत्रपना नहीं आ सकता।
( धवला पुस्तक 13/5,5,120/381/5)
प्रश्न - यदि ऐसा है तो दोनों ही वचनोंको द्वादशांगका अवयव होनेसे सूत्रपना प्राप्त हो जायेगा? उत्तर - दोनोंमें से किसी एक वचनको सूत्रपना भले हो प्राप्त होओ, किंतु दोनोंको सूत्रपना प्राप्त नहीं हो सकता है, क्योंकि उन दोनों वचनोंमे परस्पर विरोध पाया जाता है।
( धवला पुस्तक 1/1,1,36/261/1)
धवला पुस्तक 13/5,5,120/381/7 विरुद्धाणं दोण्णमत्थाणं कधं सुत्तं होदि त्ति वुत्ते-सच्चं, जं सुत्तं तमविरुद्धत्थपरूपयं चेव। किंतु णेदं सुत्तं सुत्तमिव सुत्तमिदि एदस्स उवयारेण सुत्तत्तब्भुवगमोदो। किं पुण सुत्तं। गणहर...पत्तेयबुद्ध-सुदकेवलि..अभिण्णदसपुव्विकहियं ॥34॥ ण च भूदबलिभडारओ गणहरो पत्तेयबुद्धो सुदकेवली अभिण्ण दसपुव्वी वा जेणेदं सुत्तं होज्ज।
= प्रश्न - विरुद्ध दो अर्थोंका कथन करनेवाला सूत्र कैसे हो सकता है? उत्तर - यह कहना सत्य है, क्योंकि जो सूत्र है वह अविरुद्ध अर्थका ही प्ररूपण करनेवाला होता है। किंतु यह सूत्र नहीं है, क्योंकि सूत्रके समान जो होता है वह सूत्र कहलाता है, इस प्रकार इसमें उपचारसे सूत्रपना स्वीकार किया गया है। प्रश्न - तो फिर सूत्र क्या है? उत्तर - जिसका गणधर देवोंने, प्रत्येक बुद्धोंने ...श्रुतकेवलियोंने...तथा अभिन्न दश पूर्वियोंने कथन किया वह सूत्र है। परंतु भूतबली भट्टारक न गणधर हैं, न प्रत्येक बुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं, न अभिन्नदशपूर्वी ही हैं; जिससे कि यह सूत्र हो सके।
कषायपाहुड़ पुस्तक 3/3-22/$513/292/1 पुव्विल्लवक्खाणं ण भद्दयं, सुत्तविरुद्धत्तादो। ण, वक्खाणभेदसंदरिसणट्ठं तप्पवुत्तीदो पडिवक्खणयणिरायरणमुहेण पउत्तणओ ण भद्दओ। ण च एत्थ पडिवक्खणिरायणमत्थि तम्हा वे वि णिरवज्जे त्ति घेत्तव्वं।
= प्रश्न - पूर्वोक्त व्याख्यान समीचीन नहीं हैं? क्योंकि वे सूत्र विरुद्ध हैं। उत्तर - नहीं क्योंकि व्याख्यान भेदके दिखलानेके लिए पूर्वोक्त व्याख्यान की प्रवृत्ति हुई है। जो नय प्रतिपक्ष नयके निराकरणमें प्रवृत्ति करता है, वह समीचीन नहीं होता है। परंतु यहाँ पर प्रतिपक्ष नयका निराकरण नहीं किया गया है, अतः दोनों उपदेश निर्दोष हैं ऐसा प्रकृतमें ग्रहण करना चाहिए।
धवला पुस्तक 1/1,1,25/206/6 आगमस्यातर्कगोचरत्वात्
= आगम तर्कका विषय नहीं है।
( धवला पुस्तक 4/14/5,6,116/151/8)
धवला पुस्तक 1/1,1,24/204/3 प्रतिज्ञावाक्यत्वाद्धेतुप्रयोगः कर्तव्यः प्रतिज्ञामात्रतः साध्यसिद्ध्यनुपपत्तिरिति चेन्नेदं प्रतिज्ञावाक्यं प्रमाणत्वात्, ण हि प्रमाणांतरमपेक्षतेऽनवस्थापत्तेः।
= प्रश्न - (`नरक गति है') इत्यादि प्रतिज्ञा वाक्य होनेसे इनके अस्तित्वकी सिद्धिके लिए हेतुका प्रयोग करना चाहिए, `क्योंकि केवल प्रतिज्ञा वाक्यसे साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती? उत्तर - नहीं, क्योंकि, (`नरकगति हैं' इत्यादि) वचन प्रतिज्ञा वाक्य न होकर प्रमाण वाक्य है। जो स्वयं प्रमाण स्वरूप होते हैं वे दूसरे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करते हैं। यदि स्वयं प्रमाण होते हुए भी दूसरे प्रमाणोंकी अपेक्षा की जावे तो अनवस्था दोष आता है।
धवला पुस्तक 1/1,1,41/271/3 ते तादृक्षाः संतीति कथमवगम्यत इति, चेन्न, आगमस्यातर्कगोचरत्वात्। न हि प्रमाणप्रकाशितार्थावगतिः प्रमाणांतरप्रकारमपेक्षते।
= प्रश्न - साधारण जीव उक्त लक्षण (अभी तक जिन्होंने त्रस पर्याय नहीं प्राप्त की) होते हैं यह कैसे जाना जाता है? उत्तर - ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि आगम तर्कका विषय नहीं है। एक प्रमाणसे प्रकाशित अर्थज्ञान दूसरे प्रमाणके प्रकाशकी अपेक्षा नही करता है।
धवला पुस्तक 6/1,9-6,6/151/1 आगमो हि णाम केवलणाणपुरस्सरो पाएण अणिंदियत्थविसओ अचिंतियसहाओ जुत्तिगोयरादीदि।
= जो केवलज्ञानपूर्वक उत्पन्न हुआ है, प्रायः अतींद्रिय पदार्थोंको विषय करनेवाला है, अचिंत्य स्वभावी है और युक्तिके विषयसे परे हैं, उसका नाम आगम है।
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 7/613/पृ.766/पं.4 अदिंदिएसु पदत्थेसु छदुमत्थवियप्पाणमविसंवादणियमाभावादो। तम्हा पुव्वाइरियवक्खाणापरिच्चाएण एसा वि दिसा हेदुवादाणुसावियुपण्णसिस्साणुग्गहण-अवुप्पण्णजणउप्पायणट्ठं चदरिसेदव्वा। तदो ण एत्थ संपदायविरोधो कायव्वो त्ति।
= अतिंद्रिय पदार्थोंके विषयमें अल्पज्ञोंके द्वारा किये गये विकल्पोंके विरोध न होनेका कोई नियम भी नहीं है। इसलिए पूर्वाचार्यों के व्याख्यानका परित्याग न कर हेतुवादका अनुसरण करनेवाले अव्युत्पन्न शिष्योंके अनुग्रह और अव्युत्पन्न जनोंके व्युत्पादनके लिए इस दिशाका दिखलाना योग्य ही है, अतएव यहाँ संप्रदाय विरोधकी भी आशंका नहीं करनी चाहिए।
धवला पुस्तक 13/5,5,137/389/2 न च केवलज्ञानविषयीकृतेष्वर्थेषु सकलेष्वपि रजोजुषां ज्ञानानि प्रवर्त्तंते येनानुपलंभाज्जिनवचसस्याप्रमाणत्वमुच्येत।
= केवलज्ञानके द्वारा विषय किये गये सभी अर्थोंमें छद्मस्थोंके ज्ञान प्रवृत्त भी नहीं होते हैं। इसलिए यदि छद्मस्थोंको कोई अर्थ नहीं उपलब्ध होते हैं तो जिनवचनोंको अप्रमाण नहीं कहा जा सकता।
धवला पुस्तक 15/317/9 सयलसुदविसयावगमें पयडिजीवभेदेण णाणाभेदभिण्णे असंते एदं ण होदि त्ति वोत्तुमसक्कियत्तादो। तम्हा सुत्ताणुसारिणा सुत्ताविरुद्धवक्खाणमवलंबेयव्वं।
= समस्त श्रुतविषयक ज्ञान होनेपर तथा प्रकृति एवं जीवके भेदसे नाना रूप भेदके न होनेपर यह नहीं हो सकता `ऐसा कहना शक्य नहीं है। इस कारण सूत्रका अनुसरण करनेवाले प्राणीको सूत्रसे अविरुद्ध व्याख्यानका अवलंबन करना चाहिए।
पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 1/125 यः कल्पयेत् किमपि सर्वविदोऽपि वाचि संदिह्य तत्त्वमसमंजसमात्मबुद्ध्या। खे पत्रिणां विचरतां सदृशेक्षितानां संख्यां प्रति प्रविदधाति स वादमंधः ॥125॥
= जो सर्वज्ञके भी वचनोंमें संदिग्ध होकर अपनी बुद्धिसे तत्त्वके विषयमें भी कुछ कल्पना करता है, वह अज्ञानी पुरुष निर्मल नेत्रोंवाले व्यक्तिके द्वारा देखे गये आकाशमें विचरते हुए पक्षियोंकी संख्याके विषयमें विवाद करनेवाले अंधेके समान आचरण करता है ॥125॥
( पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 13/34)
नियमसार / मूल या टीका गाथा .187 णियभावाणिमित्तं मए कदं णियमसारणाम् सुदं। णच्चा जिणोवदेसं पुव्वावरदोष विम्मुक्कं ॥187॥
= पूर्वापर दोष रहित जिनोपदेशको जानकर मैंने निज भावनाके निमित्तसे नियमसार नामका शास्त्र किया है।
नियमसार / मूल या टीका गाथा 187/क.310 अस्मिन् लक्षणशास्त्रस्य विरुद्धं पदमस्ति चेत्। लुप्त्वा तत्कवयो भद्राः कुर्वंतु पदमुत्तमम् ॥310॥
= इसमें यदि कोई पद लक्षण शास्त्रसे विरुद्ध हो तो भद्र कवि उसका लोप करके उत्तम पद कहना।
धवला पुस्तक 3/1,2,5/38/2 अइंदियत्थविसए छदुवेत्थवियप्पिदजुत्तीणं णिण्णयहेयत्ताणुववत्तादो। तम्हा उवएसं लद्धूण विसेसणिण्णयो एत्थ कायव्वो त्ति।
= अतींद्रिय पदार्थोंके विषयमें छद्मस्थ जीवोंके द्वारा कल्पित युक्तियोंके विकल्प रहित निर्णयके लिए हेतुता नहीं पायी जाती है। इसलिए उपदेशको प्राप्त करके इस विषयमें निर्णय करना चाहिए।
परमात्मप्रकाश 2/214/316/2 लिंगवचनक्रियाकारकसंधिसमासविशेष्यविशेषणवाक्यसमाप्त्यादिकं दूषणमत्र न ग्राह्यं विद्वद्भिरिति।
= लिंग, वचन, क्रिया, कारण, संधि, विशेष्य विशेषणके दोष विद्वद्जन ग्रहण न करें।
वसुनंदि श्रावकाचार गाथा 545 जं किं पि एत्थ भणियं अयाणमाणेण पवयणविरुद्धं। खमिऊण पवयणधरा सोहित्ता तं पयासंतु ॥545॥
= अजानकार होने से जो कुछ भी इसमें प्रवचन विरुद्ध कहा गया हो, सो प्रवचनके धारक (जानकार) आचार्य मुझे क्षमा करें और शोधकर प्रकाशित करें।
राजवार्तिक अध्याय 1/20/7/71/32 ततश्च पुरुषकृतित्वादप्रामाण्यं स्याद्।...न चापुरुषकृतित्वं प्रमाण्यकारणम्; चौर्याद्युपदेशस्यास्मर्यमाणकर्तृकस्य प्रमाण्यप्रसंगात्। अनित्यस्य च प्रत्यक्षादेः प्रमाण्ये को विरोधः।
= प्रश्न - पुरुषकृत होनेके कारण श्रुत अप्रमाण होगा? उत्तर - अपौरुषैयता प्रमाणताका कारण नहीं है। अन्यथा चोरी आदिके उपदेश भी प्रमाण हो जायेंगे क्योंकि इनका कोई आदि प्रणेता ज्ञात नहीं है। त्यक्ष आदि प्रमाण अनित्य हैं पर इससे उनकी प्रमाणतामें कोई कसर नहीं आती है।
धवला पुस्तक 13/5,5,50/286/2 अभूत इति भूतम्, भवनीति भव्यम्, भविष्यतीति भविष्यत्, अतीतानागत-वर्तमानकालेष्यस्तीत्यर्थः। एवं सत्यागम्य नित्यत्वम्। सत्येवमागमस्यापौरुषेयत्वं प्रसजतीति चेत्-न, वाच्य-वाचकभावेनवर्ण-पद-पंक्तिभिश्च प्रवाहरूपेण चापौरुषेयत्वाभ्युपगमात्।
= आगम अतीत कालमें था इसलिए उसकी भूत संज्ञा है, वर्तमान कालमें है इसलिए उसकी भव्य संज्ञा है और भविष्यत् कालमे रहेगा इसलिए उसकी भविष्य संज्ञा है और आगम अतीत, अनागत और वर्तमान कालमें है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार वह आगम नित्य है। प्रश्न - ऐसा होनेपर आगमको अपौरुषेयता का प्रसंग आता है। उत्तर - नहीं, क्योंकि वाच्य वाचक भावसे तथा वर्ण, पद व पंक्तियोंके द्वारा प्रवाह रूपसे आनेके कारण आगमको अपौरुषेय स्वीकार किया गया है।
पंचाध्यायी / श्लोक 736 वेदाः प्रमाणमत्र तु हेतुः केवलमपौरुषेयत्वम्। आगम गोचरतया हेतोरन्याश्रितादहेतुरत्वम् ॥736॥
= वेद प्रमाण है यहाँ पर केवल अपौरुषेयपना हेतु है, किंतु अपौरुषेय रूप हेतुको आगम गोचर होनेसे अन्याश्रित है इस लिए वह समीचीन हेतु नहीं है।
आप्तमीमांसा श्लोक 2/पृ.9 प्रयोजन विशेष होय तहाँ प्रमाण संप्लव इष्ट है। पहले प्रमाण सिद्ध प्रामाण्य आगम तैं सिद्ध भया तौऊ तथा हेतुकू प्रत्यक्ष देखि अनुमान तैं सिद्धि करैं पीछैं ताकूं प्रत्यक्ष जाणैं तहाँ प्रयोजन विशेष होय है, ऐसैं प्रमाण सप्लव होय है। केवल आगम ही तैं तथा आगमाश्रित हेतुजनित अनुमान तैं प्रमाण कहि काहै कं प्रमाण संप्लव कहनां।
- सूत्रका अर्थ द्रव्य व भाव श्रुत
- सूत्र का अर्थ श्रुतकेवली
- सूत्र का अर्थ अल्पाक्षर व महानार्थक
- वृत्तिसूत्र का लक्षण
- जिसके द्वारा अनेक अर्थ सूचित न हों वह सूत्र नहीं असूत्र है
- सूत्र वहीं है जो गणधरादि के द्वारा कथित हो
- सूत्र तो जिनदेव कथित ही है परंतु गणधर कथित भी सूत्रके समान है
- प्रत्येक बुद्ध कथितमें भी कथंचित् सूत्रत्व पाया जाता है
1. द्रव्य श्रुत
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 34 श्रुतं हि, तावत्सूत्रं। तच्च भगवदर्हत्सर्वज्ञोपज्ञं स्यात्कारकेतनं पौद्गलिकं शब्दब्रह्म।
= श्रुत ही सूत्र है, और वह सूत्र भगवान् अर्हंत सर्वज्ञके द्वारा स्वयं जानकर उपदिष्ट, स्यात्कारचिह्नयुक्त पौद्गलिक शब्द ब्रह्म है।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 8/74/6 सूत्रं तु सूचनाकारि ग्रंथे तंतुव्यवस्थयोः।
= सूत्र शब्द ग्रंथ, तंतु और व्यवस्था इन तीन अर्थोंको सूचित करता है।
2. भाव श्रुत
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 15/पृ.40 सूत्रं परिच्छित्तिरूपं भावश्रुत ज्ञानसमय इति।
= परिच्छिति रूप भावश्रुत ज्ञान समयको सूत्र कहते हैं।
धवला पुस्तक 14/5,6,12/8/6 सुत्तं सुदकेवली।
= सूत्रका अर्थ श्रुतकेवली है।
धवला पुस्तक 9/4,1,54/117/259 अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् गूढनिर्णयम्। निर्दोषहेतुमत्तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधैः ॥117॥
= जो थोड़े अक्षरोंसे संयुक्त हो, संदेहसे रहित हो, परमार्थ सहित हो, गूढ पदार्थोंका निर्णय करनेवाला हो, निर्दोष हो, युक्तियुक्त हो और यथार्थ हो, उसे पंडित जन सूत्र कहते हैं ॥117॥
( कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,15/68/154) (आवश्यक निर्युक्ति सू.886)
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,15/73/171 अर्थस्य सूचनात्सभ्यक् सूतेर्वार्थस्य सूरिणा। सूत्रमुक्तमनल्पार्थं सूत्रकारेण तत्त्वतः ॥73॥
= जो भले प्रकार अर्थका सूचन करे, अथवा अर्थको जन्म दे उस बहुअर्थ गर्भित रचनाको सूत्रकार आचार्यने निश्चयसे सूत्र कहा है।
(वृ.कल्पभाष्य गा.314) (पाराशरोपपुराण अ.18), (मव्व भाष्य 1/11), (मुग्धबोध व्याकरण टीका), (न्यायवार्तिक तात्पर्य टी.1/1/12), (प्रमाणमीमांसा पृ.35) (कल्पभाष्य गा.285)
आवश्यकनिर्युक्ति सू.880 अल्पग्रंथमहत्त्वं द्वात्रिंसद्दोषविरहितं यं च। लक्षणयुक्तं सूत्रं अष्टेन च गुणेन उपमेयं।
= अल्प परिमाण हो, महत्त्वपूर्ण हो, बत्तीस दोषोंसे रहित हो, आठ गुणोंसे युक्त हो, वह सूत्र है।
(अनुयोगद्वारसूत्र गा.सू.127), (बृहत्कल्पभाष्य/गा.277,282), (व्यावहारभाष्य 190)
कषायपाहुड़ पुस्तक 2/2/$29/14/6 सुत्तस्सेव विवरणाए संखित्त सद्दरयणाए संगहियसुत्तसेसत्थाए वित्तिसुत्तववएसादो।
= जो सूत्रका ही व्याख्यान करता है, किंतु जिसकी शब्द रचना संक्षिप्त है, और जिसमें सूत्रके समस्त अर्थको संगृहीत कर लिया गया है, उसे वृत्ति सूत्र कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,15/$133/168/5 सूचिदाणेगत्था। अवरा असुत्तगाहा।
= जिसके द्वारा अनेक अर्थ सूचित हों वह सूत्र गाथा है, और जिससे विपरीत अर्थ अर्थात् जिसके द्वारा अनेक अर्थ सूचित न हों वह असूत्र गाथा है।
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 34 सुत्तं गणधरगधिद तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च। सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुव्विगधिदं च ॥34॥
= गणधर रचित आगमको सूत्र कहतै हैं। प्रत्येक बुद्ध ऋषियोंके द्वारा कहे गये आगमको भी सूत्र कहते हैं, श्रुतकेवली और अभिन्नदशपूर्व धारक आचार्योंके रचे हुआ आगम ग्रंथको भी सूत्र कहते हैं।
( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 277) ( धवला पुस्तक 13/5,5,120/34/381), ( कषायपाहुड़ पुस्तक 1/67/153)
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,15/$120/154 एदं सव्वं पि सुत्तलक्खणं जिणवयणकमलविणिग्गयअत्थपदाणं चेव संभवइ ण गणहरमुहविणिग्गयगंथरयणाए, तत्त्थ महापरिमाणत्तुवलंभादो; ण; सच्च (सुत्त-) सारिच्छमस्सिदूण।
= प्रश्न - यह संपूर्ण सूत्र लक्षण तो जिनदेवके मुख कमलसे निकले हुए अर्थ पदोमें संभव है, गणधरके मुखकमलसे निकली ग्रंथ रचनामें नहीं, क्योंकि उनमें महापरिमाण पाया जाता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि गणधरके वचन भी सूत्रके समान होते हैं। इसलिए उनकी रचनामें भी सूत्रत्वके प्रति कोई विरोध नहीं है।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/15/$119/153/6 णेदाओ गाहाओ सुत्तं गणहर पत्तेय-बुद्ध-सुदकेवलि-अभिण्णदसपुव्वीसु गुणहरभडारस्स अभावादो; ण; णिद्दोसपक्खरसहेउपताणेहि सुत्तेण सरिसत्तममत्थित्ति गुणहराइरियगाहाणं पि सुत्तत्तुवलंभादो।
= प्रश्न - यह (कषाय पाहुडकी 180) गाथाएँ सूत्र नहीं हो सकतीं, क्योंकि (इनके कर्ता) गुणधर भट्टारक न गणधर हैं, न प्रत्येक बुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं, और न अभिन्नदश पूर्वी ही हैं। उत्तर - नहीं, क्योंकि निर्दोषत्व, अल्पाक्षरत्व, और सहेतुकत्व रूप प्रमाणोंके द्वारा गुणधर भट्टारककी गाथाओंकी सूत्र संज्ञाके साथ समानता है।
पुराणकोष से
सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित, समस्त प्राणियों का हितैषी, सर्व दोष रहित शास्त्र । इसमें नय तथा प्रमाणों द्वारा पदार्थ के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव और चारों पुरुषार्थों का वर्णन किया गया है । यह प्रमाणपुरुषोदित रचना है । इसके मूलकर्ता तीर्थंकर महावीर और उत्तरकर्त्ता गौतम गणधर थे । उनके पश्चात् अनेक आचार्य हुए जो प्रमाणभूत है । ऐसे आचार्यों में तीन केवली, पाँच चौदह पूर्वों के ज्ञाता (श्रुतकेवली) पाँच ग्यारह अगो के धारक, ग्यारह दसपूर्वों के जानकार और चार आचारांग के ज्ञाता इस प्रकार पांच प्रकार के मुनि हुए है । मुनियों के नाम है― तीन केवली, इंद्रभूति (गौतम) सुधर्माचार्य और जंबूस्वामी, पांच श्रुतकेवली― विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु, ग्यारह दसपूर्वधारी आचार्य-विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिमान (बुद्धिल), गंगदेव और धर्मसेन, पाँच ग्यारह अंगधारी आचार्य-नक्षत्र, जयमाल (यशपाल), पांडु ध्रुवसेन और कंसाचार्य । चार आचारांग के ज्ञाता मुनि-सुभद्र, (यशोभद्र) भद्रबाहु, यशोबाहु और लोहाचार्य । महापुराण 2.137-149,9.121, 24.126, 67.191-192, हरिवंशपुराण 1.55-65