ऋषभनाथ
From जैनकोष
( महापुराण /सर्ग/श्लोक) पूर्वके 11 वें भवमें `जयवर्मा' थे (5/105);
10 वें भवमें राजा `महाबल' हुए (4/133) तब किसी मुनिने बताया कि अगले दसवें भवमें भरत क्षेत्रके प्रथम तीर्थंकर होंगे।
9 पूर्वके नवें भवमें `ललितांग' देव हुए (5/253);
8 वें भवमें `वज्रजंघ' (6/29);
7 वें भवमें भोग-भूमिज आर्य (9/33);
6 ठे भवमें `श्रीधर' नामक देव (9/185);
5 वें भवमें `सुविधि' (9/121-122);
4 चौथे भवमें `अच्युतेंद्र' (10/171);
3 तीसरे भवमें `वज्रनाभि' (11/8,9) और
2 पूर्वके दूसरे भवमें अर्थात् तीर्थंकरसे पूर्ववाले भवमें सर्वार्थसिद्धिमें `अहमिंद्र' हुए (11/121);
वर्तमान भवमें इस चौबीसीके प्रथम तीर्थंकर हुए। (13/1);
( महापुराण सर्ग संख्या 47/357-359) आप अंतिम कुलकर नाभिरायके पुत्र थे। (13/1) उस समय प्रजाको असि, मसि आदि छह कर्म सिखाये (16/179, 180)। ( त्रिलोकसार गाथा 802); तथा क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन वर्गोंकी स्थापना की (16/183)। आषाढ़ कृ. 1 को कृतयुगका आरंभ होनेपर आप प्रजापतिकी उपाधिसे विभूषित हुए। (16/190) नृत्य करते-करते नीलांजना नामकी अप्सराके मर जानेपर आपको संसारसे वैराग्य आ गया (17/7,11) एक वर्ष तक आहारका अंतराय रहा। एक वर्ष पश्चात् राजा श्रेयांसके यहाँ प्रथम पारणा हुआ (20/80); यद्यपि दीक्षा लेते समय आपने केश लोंच कर लिया था पर एक वर्षके योगके कारण केश बढ़कर लंबी लंबी जटाएँ हो गयी थीं।-देखें केश लोंच । जन्म व निर्वाण काल संबंधी-देखें मोक्ष (4/3) उनके पाँच कल्याणकोंका क्षेत्र, काल, उनकी आयु व राज्य काल आदि तथा उनका संघ आदि संबंधी परिचय-देखें तीर्थंकर - 5।