आवर्त्त
From जैनकोष
अनगार धर्मामृत अधिकार 8/88-89 शुभयोगपरावर्तानावर्तान् द्वादशाहुराद्यंते साम्यस्य हि स्तवस्य च मनोंगगीः संयतं परावर्त्त्यम् ॥88॥
= मन, वचन और शरीरकी चेष्टाको अथवा उसके द्वारा होनेवाले आत्म प्रदेशोंके परिस्पंदनको योग कहते है। हिंसादिक अशुभ प्रवृत्तियोंसे रहित योग प्रशस्त समझा जाता है। इसी प्रशस्त योगको एक अवस्थासे हटाकर दूसरी अवस्थामें ले जानेका नाम परावर्त्तन है और इसका दूसरा नाम आवर्त भी है। इसके मन वचन कायकी अपेक्षा तीन भैद हैं और यह सामायिक तथा स्तवकी आदिमें तथा अंतमें किया जाता है। अतएव इसके बारह भेद होते हैं। जो मुमुक्षु साधु वंदना करनेके लिए उद्यत हैं उन्हें यह बाहरह प्रकारका आवर्त करना चाहिए अर्थात् उन्हें, अपने मन, वचन व काय सामायिक तथा स्तवकी आदि एवं अंतमें पाप व्यापारसे हटाकर अवस्थांतरको प्राप्त कराने चाहिए ॥88॥
क्रियाकलाप मुख्याधिकार संख्या 1/13 कथिता द्वादशावर्त्ता वपुर्वचनचेतसाम्। स्तवसामायिकाद्यंतपरावर्तनलक्षणाः।
= मन, वचन, कायके पलटनेको आवर्त कहते हैं। ये आवर्त बारह होते हैं। जो सामायिक दंडके आरंभ और समाप्तिमें तथा चतुर्विंशतिस्तव दंडकके आरंभ और समाप्तिके समय किये जाते हैं।
धवला पुस्तक (13/5,4,28/90/3)
भाष्यकार-जैसे “णमो अरहंताणं इत्यादि सामायिक दंडके पहले क्रिया विज्ञापन रूप मनोविकल्प होता है, उस मनोविकल्पको छोड़कर सामायिक दंडके उच्चारणके प्रति मनको लगाना सो मन परावर्तन है। उसी समायिक दंडके पहले भूमि स्पर्श रूप नमस्कार किया जाता है उस वक्त वंदना मुद्राकी जाती है, उस वंदना मुद्राको त्यागकर पुनः खड़ा होकर मुक्ताशुक्ति मुद्रा रूप दोनों हाथोंको करके तीन बार घुमाना कायपरावर्तन है। “चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करोमि? इत्यादि उच्चारणको छोड़कर “णमो अरहंताणं इत्यादि पाठका उच्चारण करना सो वाक्परावर्तन है। इस तरह सामायिक दंडके पहले मन, वचन और काय परावर्तन रूप तीन आवर्त होते हैं। इसी तरह सामायिक दंडकके अंतमें तीन-तीन आवर्त यथायोग्य होते हैं। एवं सब मिलकर एक कार्योत्सर्ग में 12 आवर्त होते हैं।
• कृतिकर्ममें आवर्त करनेका विधान - देखें कृतिकर्म - 2.8,4/2। कृतिकर्म 4.2 |