इति
From जैनकोष
राजवार्तिक अध्याय 1/13/1/57/11 इतिशब्दोऽनेकार्थः संभवति। क्वचिद्धेतौ वर्तते-`हंतीति पलायते, वर्षतीति धावति'। क्वचिदेवमित्यस्यार्थे वर्तते-`इति स्म उपाध्यायः कथयति' एवं स्म इति गम्यते। क्वचित्प्रकारे वर्तते-यथा `गौरश्वः' शुक्लो नीलः, चरति प्लवते, जिन दत्ती देवदत्तः' `इति, एवं प्रकाराः इत्यर्थः। क्वचिद्व्यवस्थायां वर्तते-यथा `ज्वलितिकसंताण्णः' [जैने. 2/112] इति। क्वचिदर्थविपर्यासे वर्तते - यथा `गौरित्ययमाह-गौरिति जानीते' इति। क्वचित्समाप्तौ वर्तते-`इति प्रथकमाह्निकम्, इति द्वितीयमाह्निकम्' इति। कच्छिब्दप्रादुर्भावे वर्तते-`इति श्रीदत्तम, इति सिद्धसेनमिति।'
= इति शब्दके अनेक अर्थ होते हैं-यथा-
1. हंतीति पलायते-`मारा इसलिए भागा' यहाँ इति शब्दका अर्थ हेतु है।
2. इति स्म उपाध्यायः कथयति-उपाध्याय इस प्रकार कहता है। यहाँ `इस प्रकार' अर्थ है।
3. `गौः अश्वः इति'-गाय, घोड़ा आदि प्रकार। यहाँ इति शब्द प्रकारवाची है।
4. प्रथममाह्निकमिति' यहाँ इति शब्द का अर्थ समाप्ति है।
5. इसी तरह व्यवस्था अर्थविपर्यास शब्द प्रादुर्भाव आदि अनेक अर्थ हैं।