अशुद्ध
From जैनकोष
आलाप पद्धति अधिकार 6. शुद्धं केवलभावमशुद्धं तस्यापि विपरीतम्।
= केवल अर्थात् असंयोगी भाव को शुद्ध कहते हैं और अशुद्ध उससे विपरीत है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 102 औपाधिकमुपादानमशुद्धं, तप्तायःपिंडवत्।
= औपाधिक पदार्थ को अशुद्ध कहते हैं जैसे अग्नि से तपाया हुआ लोहे का गोला।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 16/36/3 परद्रव्यसंबंधेनाशुद्धपर्यार्यः।
= पर द्रव्य के संबंध से अशुद्ध पर्याय होती है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 221 शुद्धं सामान्यमात्रत्वादशुद्धं तद्विशेषतः। वस्तु सामान्यरूपणे स्वदते स्वादु सद्विदास् ॥221॥
= वस्तु सम्यग्ज्ञानियों को सामान्यरूप से अनुभव में आती है इसलिए वह वस्तु केवल सामान्य रूप से शुद्ध कहलाती है और विशेष भेदों की अपेक्षा अशुद्ध कहलाती है।
(विशेष-देखें नय - IV.2.4)