उष्ण परीषह: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/9/421/6 निवाते निर्जले ग्रीष्मरविकिरणपरिशुष्कपतितपर्णव्यपेतच्छायातरुण्यटव्यन्तरे यदृच्छयोपनिपतितस्यानशनाद्यभ्यन्तरसाधनोत्पादितदाहस्य दवाग्निदाहपुरुषवातातपजनितगलतालुशोषस्य तत्प्रतीकारहेतून् बहूननुभूतानचिन्तयतः प्राणिपीडापरिहारावहितचेतसश्चारित्ररक्षणमुष्णसहनमित्युपवर्ण्यते।</p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/9/421/6 निवाते निर्जले ग्रीष्मरविकिरणपरिशुष्कपतितपर्णव्यपेतच्छायातरुण्यटव्यन्तरे यदृच्छयोपनिपतितस्यानशनाद्यभ्यन्तरसाधनोत्पादितदाहस्य दवाग्निदाहपुरुषवातातपजनितगलतालुशोषस्य तत्प्रतीकारहेतून् बहूननुभूतानचिन्तयतः प्राणिपीडापरिहारावहितचेतसश्चारित्ररक्षणमुष्णसहनमित्युपवर्ण्यते।</p> | ||
<p>= निर्वात और निर्जल तथा ग्रीष्मकालीन सूर्यकी किरणोंसे सूखकर पत्तोंके गिर जानेसे छायारहित वृक्षोंसे युक्त ऐसे वनके मध्य जो अपनी इच्छानुसार प्राप्त हुआ है, अनशन आदि अभ्यन्तर साधन वश जिसे दाह उत्पन्न हुई है, दवाग्निजन्य दाह, अतिकठोर वायु और आतपके कारण जिसे गले और तालुमें शोष उत्पन्न हुआ है, जो उसके प्रतीकारके बहुत-से अनुभूत हेतुओंको जानता हुआ भी उनका चिंतवन नहीं करता है तथा जिसका प्राणियोंकी पीड़ाके परिहारमें चित्त लगा हुआ है, उस साधुके चारित्रके रक्षणरूप उष्णपरीषहजय कही जाती है।</p> | <p class="HindiText">= निर्वात और निर्जल तथा ग्रीष्मकालीन सूर्यकी किरणोंसे सूखकर पत्तोंके गिर जानेसे छायारहित वृक्षोंसे युक्त ऐसे वनके मध्य जो अपनी इच्छानुसार प्राप्त हुआ है, अनशन आदि अभ्यन्तर साधन वश जिसे दाह उत्पन्न हुई है, दवाग्निजन्य दाह, अतिकठोर वायु और आतपके कारण जिसे गले और तालुमें शोष उत्पन्न हुआ है, जो उसके प्रतीकारके बहुत-से अनुभूत हेतुओंको जानता हुआ भी उनका चिंतवन नहीं करता है तथा जिसका प्राणियोंकी पीड़ाके परिहारमें चित्त लगा हुआ है, उस साधुके चारित्रके रक्षणरूप उष्णपरीषहजय कही जाती है।</p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/9/7/609/12), ( चारित्रसार पृष्ठ 112/4)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 9/9/7/609/12), ( चारित्रसार पृष्ठ 112/4)।</p> | ||
<noinclude> | <noinclude> |
Revision as of 13:48, 10 July 2020
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/9/421/6 निवाते निर्जले ग्रीष्मरविकिरणपरिशुष्कपतितपर्णव्यपेतच्छायातरुण्यटव्यन्तरे यदृच्छयोपनिपतितस्यानशनाद्यभ्यन्तरसाधनोत्पादितदाहस्य दवाग्निदाहपुरुषवातातपजनितगलतालुशोषस्य तत्प्रतीकारहेतून् बहूननुभूतानचिन्तयतः प्राणिपीडापरिहारावहितचेतसश्चारित्ररक्षणमुष्णसहनमित्युपवर्ण्यते।
= निर्वात और निर्जल तथा ग्रीष्मकालीन सूर्यकी किरणोंसे सूखकर पत्तोंके गिर जानेसे छायारहित वृक्षोंसे युक्त ऐसे वनके मध्य जो अपनी इच्छानुसार प्राप्त हुआ है, अनशन आदि अभ्यन्तर साधन वश जिसे दाह उत्पन्न हुई है, दवाग्निजन्य दाह, अतिकठोर वायु और आतपके कारण जिसे गले और तालुमें शोष उत्पन्न हुआ है, जो उसके प्रतीकारके बहुत-से अनुभूत हेतुओंको जानता हुआ भी उनका चिंतवन नहीं करता है तथा जिसका प्राणियोंकी पीड़ाके परिहारमें चित्त लगा हुआ है, उस साधुके चारित्रके रक्षणरूप उष्णपरीषहजय कही जाती है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/9/7/609/12), ( चारित्रसार पृष्ठ 112/4)।