चक्रव्यूह: Difference between revisions
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<p> एक विशिष्ट सैन्य-रचना । इसमें राजा मध्य में रहता है और उसके चारों ओर अंग-रक्षक होते हैं । यह रचना चक्राकार की जाती है । इसमें चक्र के एक हजार आरे होते हैं । प्रत्येक आरे में एक राजा रहता है । प्रत्येक राजा के साथ-साथ सौ हाथी, दो हजार रथ, पाँच हजार घोड़े और सोलह हजार पैदल सैनिक रहते हैं । चक्र की नेमि के पास हजारों नृप रहते हैं । ऐसे ही एक व्यूह की रचना जरासंध ने की थी । गरुडव्यूह की रचना से इस व्यूह को भग्न किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 44.111-113, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 50. 102-112, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 19. 104 </span>राजा अर्ककीर्ति ने भी चक्रव्यूह की रचना से शत्रु पर विजय पायी थी । <span class="GRef"> पांडवपुराण 3.97 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> एक विशिष्ट सैन्य-रचना । इसमें राजा मध्य में रहता है और उसके चारों ओर अंग-रक्षक होते हैं । यह रचना चक्राकार की जाती है । इसमें चक्र के एक हजार आरे होते हैं । प्रत्येक आरे में एक राजा रहता है । प्रत्येक राजा के साथ-साथ सौ हाथी, दो हजार रथ, पाँच हजार घोड़े और सोलह हजार पैदल सैनिक रहते हैं । चक्र की नेमि के पास हजारों नृप रहते हैं । ऐसे ही एक व्यूह की रचना जरासंध ने की थी । गरुडव्यूह की रचना से इस व्यूह को भग्न किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 44.111-113, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 50. 102-112, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 19. 104 </span>राजा अर्ककीर्ति ने भी चक्रव्यूह की रचना से शत्रु पर विजय पायी थी । <span class="GRef"> पांडवपुराण 3.97 </span></p> | ||
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Revision as of 16:53, 14 November 2020
एक विशिष्ट सैन्य-रचना । इसमें राजा मध्य में रहता है और उसके चारों ओर अंग-रक्षक होते हैं । यह रचना चक्राकार की जाती है । इसमें चक्र के एक हजार आरे होते हैं । प्रत्येक आरे में एक राजा रहता है । प्रत्येक राजा के साथ-साथ सौ हाथी, दो हजार रथ, पाँच हजार घोड़े और सोलह हजार पैदल सैनिक रहते हैं । चक्र की नेमि के पास हजारों नृप रहते हैं । ऐसे ही एक व्यूह की रचना जरासंध ने की थी । गरुडव्यूह की रचना से इस व्यूह को भग्न किया जाता है । महापुराण 44.111-113, हरिवंशपुराण 50. 102-112, पांडवपुराण 19. 104 राजा अर्ककीर्ति ने भी चक्रव्यूह की रचना से शत्रु पर विजय पायी थी । पांडवपुराण 3.97