ध्याता: Difference between revisions
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<p class="HindiText">धर्म व शुक्लध्यानों को ध्याने वाले योगी को ध्याता कहते हैं। उसी की विशेषताओं का परिचय | <p class="HindiText">धर्म व शुक्लध्यानों को ध्याने वाले योगी को ध्याता कहते हैं। उसी की विशेषताओं का परिचय यहाँ दिया गया है।<br /> | ||
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स.सि./९/३७/४५३/४ <span class="SanskritText">आद्ये शुक्लध्याने पूर्वविदो भवत: श्रुतकेवलिन इत्यर्थ:। (नेतरस्य (रा.वा.)) चशब्देन धर्म्यमपि समुच्चीयते।</span> =<span class="HindiText">शुक्लध्यान के भेदों में से आदि के दो शुक्लध्यान (पृथक्त्व व एकत्व वितर्कवीचार) पूर्वविद् अर्थात् श्रुतकेवली के होते हैं अन्य के नहीं।<br /> | स.सि./९/३७/४५३/४ <span class="SanskritText">आद्ये शुक्लध्याने पूर्वविदो भवत: श्रुतकेवलिन इत्यर्थ:। (नेतरस्य (रा.वा.)) चशब्देन धर्म्यमपि समुच्चीयते।</span> =<span class="HindiText">शुक्लध्यान के भेदों में से आदि के दो शुक्लध्यान (पृथक्त्व व एकत्व वितर्कवीचार) पूर्वविद् अर्थात् श्रुतकेवली के होते हैं अन्य के नहीं।<br /> | ||
सूत्र में दिये गये ‘च’ शब्द से धर्म्यध्यान का भी समुच्चय होता है। (अर्थात् शुक्लध्यान तो पूर्वविद् को ही होता है परन्तु धर्मध्यान पूर्वविद् को भी होता है और अल्पश्रुत को भी।) (रा.वा./९/३७/१/६३२/३०)</span><br /> | सूत्र में दिये गये ‘च’ शब्द से धर्म्यध्यान का भी समुच्चय होता है। (अर्थात् शुक्लध्यान तो पूर्वविद् को ही होता है परन्तु धर्मध्यान पूर्वविद् को भी होता है और अल्पश्रुत को भी।) (रा.वा./९/३७/१/६३२/३०)</span><br /> | ||
ध.१३/५,४,२६/६४/६<span class="PrakritText"> चउदस्सपुव्वहरो वा [दस] णवपुव्वहरो वा, णाणेण विणा अणवगय-णवपयत्थस्स झाणाणुववत्तीदो। ...चोद्दस-दस-णवपुव्वेहिं विणा थोवेण वि गंथेण णवपयत्थावगमोवलंभादो। ण, थोवेण गंथेण णिस्सेसमवगंतुं बीजबुद्धिमुणिणो मोत्तूण अण्णेसिमुवायाभावादो।...ण च दव्वसुदेण एत्थ अहियारो, पोग्गलवियारस्स जडस्स णाणोवलिंगभूदस्स सुदत्तविरोहादो। थोवदव्वसुदेण अवगयासेस-णवपयत्थाणं सिवभूदिआदिबीजबुद्धीणं ज्झाणाभावेण मोक्खाभावप्पसंगादो। थोवेण णाणेण जदि ज्झाणं होदि तो खवगसेडिउवसमसेडिणमप्पाओग्गधम्मज्झाणं चेव होदि। चोद्दस-दस-णवपुव्व-हरा पुण धम्मसुक्कज्झाणं दोण्णं पि सामित्तमुवणमंति, अविरोहादो। तेण तेसिं चेव एत्थ णिद्देसो कदो।</span>=<span class="HindiText">जो चौदह पूर्वों को धारण करने वाला होता है, वह ध्याता होता है, क्योंकि इतना ज्ञान हुए बिना, जिसने नौ पदार्थों को भली प्रकार नहीं जाना है, उसके ध्यान की उत्पत्ति नहीं हो सकती ? <strong>प्रश्न</strong>‒चौदह, दस और नौ पूर्वों के बिना स्तोकग्रन्थ से भी नौ पदार्थ विषयक ज्ञान देखा जाता है? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि स्तोक ग्रन्थ से बीजबुद्धि मुनि ही पूरा जान सकते हैं, उनके सिवा दूसरे मुनियों को जानने का कोई साधन नहीं है। (अर्थात् जो बीजबुद्धि नहीं है वे बिना श्रुत के पदार्थों का ज्ञान करने को समर्थ नहीं है) और द्रव्यश्रुत का | ध.१३/५,४,२६/६४/६<span class="PrakritText"> चउदस्सपुव्वहरो वा [दस] णवपुव्वहरो वा, णाणेण विणा अणवगय-णवपयत्थस्स झाणाणुववत्तीदो। ...चोद्दस-दस-णवपुव्वेहिं विणा थोवेण वि गंथेण णवपयत्थावगमोवलंभादो। ण, थोवेण गंथेण णिस्सेसमवगंतुं बीजबुद्धिमुणिणो मोत्तूण अण्णेसिमुवायाभावादो।...ण च दव्वसुदेण एत्थ अहियारो, पोग्गलवियारस्स जडस्स णाणोवलिंगभूदस्स सुदत्तविरोहादो। थोवदव्वसुदेण अवगयासेस-णवपयत्थाणं सिवभूदिआदिबीजबुद्धीणं ज्झाणाभावेण मोक्खाभावप्पसंगादो। थोवेण णाणेण जदि ज्झाणं होदि तो खवगसेडिउवसमसेडिणमप्पाओग्गधम्मज्झाणं चेव होदि। चोद्दस-दस-णवपुव्व-हरा पुण धम्मसुक्कज्झाणं दोण्णं पि सामित्तमुवणमंति, अविरोहादो। तेण तेसिं चेव एत्थ णिद्देसो कदो।</span>=<span class="HindiText">जो चौदह पूर्वों को धारण करने वाला होता है, वह ध्याता होता है, क्योंकि इतना ज्ञान हुए बिना, जिसने नौ पदार्थों को भली प्रकार नहीं जाना है, उसके ध्यान की उत्पत्ति नहीं हो सकती ? <strong>प्रश्न</strong>‒चौदह, दस और नौ पूर्वों के बिना स्तोकग्रन्थ से भी नौ पदार्थ विषयक ज्ञान देखा जाता है? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि स्तोक ग्रन्थ से बीजबुद्धि मुनि ही पूरा जान सकते हैं, उनके सिवा दूसरे मुनियों को जानने का कोई साधन नहीं है। (अर्थात् जो बीजबुद्धि नहीं है वे बिना श्रुत के पदार्थों का ज्ञान करने को समर्थ नहीं है) और द्रव्यश्रुत का यहाँ अधिकार नहीं है। क्योंकि ज्ञान के उपलिंगभूत पुद्गल के विकारस्वरूप जड़ वस्तु को श्रुत (ज्ञान) मानने में विरोध आता है। <strong>प्रश्न</strong>‒स्तोक द्रव्यश्रुत से नौ पदार्थों को पूरी तरह जानकर शिवभूति आदि बीजबुद्धि मुनियों के ध्यान नहीं मानने से मोक्ष का अभाव प्राप्त होता है? <strong>उत्तर</strong>‒स्तोक ज्ञान से यदि ध्यान होता है तो वह क्षपक व उपशमश्रेणी के अयोग्य धर्मध्यान ही होता है (धवलाकार पृथक्त्व वितर्कवीचार को धर्मध्यान मानते हैं‒ देखें - [[ धर्मध्यान#2.4 | धर्मध्यान / २ / ४ ]]-५) परन्तु चौदह, दस और नौ पूर्वों के धारी तो धर्म और शुक्ल दोनों ही ध्यानों के स्वामी होते हैं। क्योंकि ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता। इसलिए उन्हीं का यहाँ निर्देश किया गया है।</span><br /> | ||
म.पु./२१/१०१-१०२<span class="SanskritText"> स चतुर्दशपूर्वज्ञो दशपूर्वधरोऽपि वा। नवपूर्वधरो वा स्याद् ध्याता सम्पूर्णलक्षण:।१०१। श्रुतेन विकलेनापि स्याद् ध्याता सामग्रीं प्राप्य पुष्कलाम् । क्षपकोपशमश्रेण्यो: उत्कृष्टं ध्यानमृच्छति।१०४।</span>=<span class="HindiText">यदि ध्यान करने वाला मुनि चौदह पूर्व का, या दश पूर्व का, या नौ पूर्व का जानने वाला हो तो वह ध्याता सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त कहलाता है।१०१। इसके सिवाय अल्पश्रुतज्ञानी अतिशय बुद्धिमान् और श्रेणी के पहले पहले धर्मध्यान धारण करने वाला उत्कृष्ट मुनि भी उत्तम ध्याता कहलाता है।१०२।</span><br /> | म.पु./२१/१०१-१०२<span class="SanskritText"> स चतुर्दशपूर्वज्ञो दशपूर्वधरोऽपि वा। नवपूर्वधरो वा स्याद् ध्याता सम्पूर्णलक्षण:।१०१। श्रुतेन विकलेनापि स्याद् ध्याता सामग्रीं प्राप्य पुष्कलाम् । क्षपकोपशमश्रेण्यो: उत्कृष्टं ध्यानमृच्छति।१०४।</span>=<span class="HindiText">यदि ध्यान करने वाला मुनि चौदह पूर्व का, या दश पूर्व का, या नौ पूर्व का जानने वाला हो तो वह ध्याता सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त कहलाता है।१०१। इसके सिवाय अल्पश्रुतज्ञानी अतिशय बुद्धिमान् और श्रेणी के पहले पहले धर्मध्यान धारण करने वाला उत्कृष्ट मुनि भी उत्तम ध्याता कहलाता है।१०२।</span><br /> | ||
स.सा./ता.वृ./१०/२२/११ <span class="SanskritText">ननु तर्हि स्वसंवेदनज्ञानबलेनास्मिन् कालेऽपि श्रुतकेवली भवति। तन्न; यादृशं पूर्वपुरुषाणां शुक्लध्यानरूपं स्वसंवेदनज्ञानं तादृशमिदानीं नास्ति किन्तु धर्मध्यानयोग्यमस्तीति।</span> <span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>‒स्वसंवेदनज्ञान के बल से इस काल में भी श्रुतकेवली होने चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि जिस प्रकार का शुक्लध्यान रूप स्वसंवेदन पूर्वपुरुषों के होता था, उस प्रकार का इस काल में नहीं होता। केवल धर्मध्यान योग्य होता है।</span><br /> | स.सा./ता.वृ./१०/२२/११ <span class="SanskritText">ननु तर्हि स्वसंवेदनज्ञानबलेनास्मिन् कालेऽपि श्रुतकेवली भवति। तन्न; यादृशं पूर्वपुरुषाणां शुक्लध्यानरूपं स्वसंवेदनज्ञानं तादृशमिदानीं नास्ति किन्तु धर्मध्यानयोग्यमस्तीति।</span> <span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>‒स्वसंवेदनज्ञान के बल से इस काल में भी श्रुतकेवली होने चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि जिस प्रकार का शुक्लध्यान रूप स्वसंवेदन पूर्वपुरुषों के होता था, उस प्रकार का इस काल में नहीं होता। केवल धर्मध्यान योग्य होता है।</span><br /> | ||
द्र.सं./टी./५७/२३२/९ <span class="SanskritText">यथोक्तं दशचतुर्दशपूर्वगतश्रुतज्ञानेन ध्यानं भवति तदप्युत्सर्गवचनम् । अपवादव्याख्यानेन पुन: पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादकसारभूतश्रुतेनापि ध्यानं भवति।</span>=<span class="HindiText">तथा जो ऐसा कहा है, कि ‘दश तथा चौदह पूर्व तक श्रुतज्ञान से ध्यान होता है, वह उत्सर्ग वचन हैं। अपवाद व्याख्यान से तो | द्र.सं./टी./५७/२३२/९ <span class="SanskritText">यथोक्तं दशचतुर्दशपूर्वगतश्रुतज्ञानेन ध्यानं भवति तदप्युत्सर्गवचनम् । अपवादव्याख्यानेन पुन: पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादकसारभूतश्रुतेनापि ध्यानं भवति।</span>=<span class="HindiText">तथा जो ऐसा कहा है, कि ‘दश तथा चौदह पूर्व तक श्रुतज्ञान से ध्यान होता है, वह उत्सर्ग वचन हैं। अपवाद व्याख्यान से तो पाँच समिति और तीन गुप्ति को प्रतिपादन करने वाले सारभूतश्रुतज्ञान से भी ध्यान होता है। (पं.का./ता.वृ./१४६/२१२/९); (और भी देखें - [[ श्रुतकेवली | श्रुतकेवली ]])<br /> | ||
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<li name="2" id="2"><span class="HindiText"><strong> प्रशस्त ध्यानसामान्य योग्य ध्याता</strong></span><br /> | <li name="2" id="2"><span class="HindiText"><strong> प्रशस्त ध्यानसामान्य योग्य ध्याता</strong></span><br /> | ||
ध.१३/५,४,२६/६४/६ <span class="PrakritText">तत्थ उत्तमसंघडणो ओघवलो ओघसूरो चोहस्सपुव्वहरो वा (दस) णवपुव्वहरो वा।</span>=<span class="HindiText">जो उत्तम संहननवाला, निसर्ग से बलशाली और शूर, तथा चौदह या दस या नौ पूर्व को धारण करने वाला होता है वह ध्याता है। (म.पु./२१/८५)</span><br /> | ध.१३/५,४,२६/६४/६ <span class="PrakritText">तत्थ उत्तमसंघडणो ओघवलो ओघसूरो चोहस्सपुव्वहरो वा (दस) णवपुव्वहरो वा।</span>=<span class="HindiText">जो उत्तम संहननवाला, निसर्ग से बलशाली और शूर, तथा चौदह या दस या नौ पूर्व को धारण करने वाला होता है वह ध्याता है। (म.पु./२१/८५)</span><br /> | ||
म.पु./२१/८६-८७ <span class="SanskritText">दोरोत्सारितदुर्ध्यानो दुर्लेश्या: परिवर्जयन् । लेश्याविशुद्धिमालम्ब्य भावयन्नप्रमत्तताम् ।८६। प्रज्ञापारमितो योगी ध्याता स्याद्धीबलान्वित:। सूत्रार्थालम्बनो धीर: सोढाशेषपरीषह:।८७। अपि चोद्भूतसंवेग: प्राप्तनिर्वेदभावन:। वैराग्यभावनोत्कर्षात् पश्यन् भोगानतर्प्तकान् ।८८। सम्यग्ज्ञानभावनापास्तमिथ्याज्ञानतमोघन:। विशुद्धदर्शनापोढगाढमिथ्यात्वशल्यक:।८९।</span>=<span class="HindiText">आर्त व रौद्र ध्यानों से दूर, अशुभ लेश्याओं से रहित, लेश्याओं की विशुद्धता से अवलम्बित, अप्रमत्त अवस्था की भावना भाने वाला।८६। बुद्धि के पार को प्राप्त, योगी, बुद्धिबलयुक्त, सूत्रार्थ अवलम्बी, धीर वीर, समस्त परीषहों को सहने वाला।८७। संसार से भयभीत, वैराग्य | म.पु./२१/८६-८७ <span class="SanskritText">दोरोत्सारितदुर्ध्यानो दुर्लेश्या: परिवर्जयन् । लेश्याविशुद्धिमालम्ब्य भावयन्नप्रमत्तताम् ।८६। प्रज्ञापारमितो योगी ध्याता स्याद्धीबलान्वित:। सूत्रार्थालम्बनो धीर: सोढाशेषपरीषह:।८७। अपि चोद्भूतसंवेग: प्राप्तनिर्वेदभावन:। वैराग्यभावनोत्कर्षात् पश्यन् भोगानतर्प्तकान् ।८८। सम्यग्ज्ञानभावनापास्तमिथ्याज्ञानतमोघन:। विशुद्धदर्शनापोढगाढमिथ्यात्वशल्यक:।८९।</span>=<span class="HindiText">आर्त व रौद्र ध्यानों से दूर, अशुभ लेश्याओं से रहित, लेश्याओं की विशुद्धता से अवलम्बित, अप्रमत्त अवस्था की भावना भाने वाला।८६। बुद्धि के पार को प्राप्त, योगी, बुद्धिबलयुक्त, सूत्रार्थ अवलम्बी, धीर वीर, समस्त परीषहों को सहने वाला।८७। संसार से भयभीत, वैराग्य भावनाएँ भानेवाला, वैराग्य के कारण भोगोपभोग की सामग्री को अतृप्तिकर देखता हुआ।८८। सम्यग्ज्ञान की भावना से मिथ्याज्ञानरूपी गाढ़ अन्धकार को नष्ट करने वाला, तथा विशुद्ध सम्यग्दर्शन द्वारा मिथ्या शल्य को दूर भगाने वाला, मुनि ध्याता होता है।८९। ( देखें - [[ ध्याता#4 | ध्याता / ४ ]]त.अनु.)</span><br /> | ||
द्र.सं./मू./५७ <span class="PrakritText">तवसुदवदवं चेदा झाणरह धुरंधरो हवे जम्हा। तम्हा तत्तिय णिरदा तल्लद्धीए सदा होह।</span>=<span class="HindiText">क्योंकि तप व्रत और श्रुतज्ञान का धारक आत्मा ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने वाला होता है, इस कारण हे भव्य पुरुषो ! तुम उस ध्यान की प्राप्ति के लिए निरन्तर तप श्रुत और व्रत में तत्पर होओ।</span><br /> | द्र.सं./मू./५७ <span class="PrakritText">तवसुदवदवं चेदा झाणरह धुरंधरो हवे जम्हा। तम्हा तत्तिय णिरदा तल्लद्धीए सदा होह।</span>=<span class="HindiText">क्योंकि तप व्रत और श्रुतज्ञान का धारक आत्मा ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने वाला होता है, इस कारण हे भव्य पुरुषो ! तुम उस ध्यान की प्राप्ति के लिए निरन्तर तप श्रुत और व्रत में तत्पर होओ।</span><br /> | ||
चा.सा./१६७/२ <span class="SanskritText">ध्याता...गुप्तेन्द्रियश्च।</span> =<span class="HindiText">प्रशस्त ध्यान का ध्याता मन वचन काय को वश में रखने वाला होता है।</span><br /> | चा.सा./१६७/२ <span class="SanskritText">ध्याता...गुप्तेन्द्रियश्च।</span> =<span class="HindiText">प्रशस्त ध्यान का ध्याता मन वचन काय को वश में रखने वाला होता है।</span><br /> | ||
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<li name="3" id="3"><span class="HindiText"><strong> ध्याता न होने योग्य व्यक्ति</strong> </span><br /> | <li name="3" id="3"><span class="HindiText"><strong> ध्याता न होने योग्य व्यक्ति</strong> </span><br /> | ||
<span class="HindiText">ज्ञा./४/श्लोक नं. केवल भावार्थ‒जो मायाचारी हो।३२। मुनि होकर भी जो परिग्रहधारी हो।३३। ख्याति लाभ पूजा के व्यापार में आसक्त हो।३५। ‘नौ सौ चूहे खाके बिल्ली हज को चली’ इस उपाख्यान को सत्य करने वाला हो।४२। इन्द्रियों का दास हो।४३। विरागता को प्राप्त न हुआ हो।४४। ऐसे साधुओं को ध्यान की प्राप्ति नहीं होती।</span><br /> | <span class="HindiText">ज्ञा./४/श्लोक नं. केवल भावार्थ‒जो मायाचारी हो।३२। मुनि होकर भी जो परिग्रहधारी हो।३३। ख्याति लाभ पूजा के व्यापार में आसक्त हो।३५। ‘नौ सौ चूहे खाके बिल्ली हज को चली’ इस उपाख्यान को सत्य करने वाला हो।४२। इन्द्रियों का दास हो।४३। विरागता को प्राप्त न हुआ हो।४४। ऐसे साधुओं को ध्यान की प्राप्ति नहीं होती।</span><br /> | ||
ज्ञा./४/६२<span class="SanskritText"> एते पण्डितमानिन: शमदमस्वाध्यायचिन्तायुता:, रागादिग्रहबञ्चिता यतिगुणप्रध्वंसतृष्णानना:। व्याकृष्टा विषयैर्मदै: प्रमुदिता: शङ्काभिरङ्गीकृता, न ध्यानं न विवेचनं न च तप: कर्तु वराका: क्षमा:।६२।</span>=<span class="HindiText">जो पण्डित तो नहीं है, परन्तु अपने को पण्डित मानते हैं, और शम, दम, स्वाध्याय से रहित तथा रागद्वेषादि पिशाचों से वंचित हैं, एवं मुनिपने के गुण नष्ट करके अपना | ज्ञा./४/६२<span class="SanskritText"> एते पण्डितमानिन: शमदमस्वाध्यायचिन्तायुता:, रागादिग्रहबञ्चिता यतिगुणप्रध्वंसतृष्णानना:। व्याकृष्टा विषयैर्मदै: प्रमुदिता: शङ्काभिरङ्गीकृता, न ध्यानं न विवेचनं न च तप: कर्तु वराका: क्षमा:।६२।</span>=<span class="HindiText">जो पण्डित तो नहीं है, परन्तु अपने को पण्डित मानते हैं, और शम, दम, स्वाध्याय से रहित तथा रागद्वेषादि पिशाचों से वंचित हैं, एवं मुनिपने के गुण नष्ट करके अपना मुँह काला करने वाले हैं, विषयों से आकर्षित, मदों से प्रसन्न, और शंका सन्देह शल्यादि से ग्रस्त हों, ऐसे रंक पुरुष न ध्यान करने को समर्थ है, न भेदज्ञान करने को समर्थ हैं और न तप ही कर सकते हैं।<br /> | ||
देखें - [[ मंत्र | मंत्र ]]‒(मन्त्र यन्त्रादि की सिद्धि द्वारा वशीकरण आदि कार्यों की सिद्धि करने वालों को ध्यान की सिद्धि नहीं होती)<br /> | देखें - [[ मंत्र | मंत्र ]]‒(मन्त्र यन्त्रादि की सिद्धि द्वारा वशीकरण आदि कार्यों की सिद्धि करने वालों को ध्यान की सिद्धि नहीं होती)<br /> | ||
देखें - [[ धर्मध्यान#2.3 | धर्मध्यान / २ / ३ ]](मिथ्यादृष्टियों को यथार्थ धर्म व शुक्लध्यान होना सम्भव नहीं है)<br /> | देखें - [[ धर्मध्यान#2.3 | धर्मध्यान / २ / ३ ]](मिथ्यादृष्टियों को यथार्थ धर्म व शुक्लध्यान होना सम्भव नहीं है)<br /> | ||
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<li name="5" id="5"><span class="HindiText"><strong> शुक्लध्यान योग्य ध्याता</strong></span><br /> | <li name="5" id="5"><span class="HindiText"><strong> शुक्लध्यान योग्य ध्याता</strong></span><br /> | ||
ध.१३/५,४,२६/गा.६७-७१/८२ <span class="PrakritText">अभयासंमोहविवेगविसग्गा तस्स होंति लिंगाइं। लिंगिज्जइ जेहि मुणी सुक्कज्झाणेवगयचित्तो।६७। चालिज्जइ वीहेइ व धीरो ण परीसहोवसग्गेहि। सुहुमेसु ण सम्मुज्झइ भावेसु ण देवमायासु।६८। देह विचित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोए। देहोबहिवोसग्गं णिस्संगो सव्वदो कुणदि।६९। ण कसायसमुत्थेहि वि बाहिज्जइ माणसेहि दुक्खेहि। ईसाविसायसोगादिएहि झाणोवगयचित्तो।७०। सीयायवादिएहि मि सारीरेहिं बहुप्पयारेहिं। णो बाहिज्जइ साहू झेयम्मि सुणिच्चलो संता।७१।</span>=<span class="HindiText">अभय, असंमोह, विवेक और विसर्ग ये शुक्लध्यान के लिंग हैं, जिनके द्वारा शुक्लध्यान को प्राप्त हुआ चित्तवाला मुनि पहिचाना जाता है।६७। वह धीर परिषहों और उपसर्गों से न तो चलायमान होता है और न डरता है, तथा वह सूक्ष्म भावों व देवमाया में भी मुग्ध नहीं होता है।६८। वह देह को अपने से भिन्न अनुभव करता है, इसी प्रकार सब तरह के संयोगों से अपनी आत्मा को भी भिन्न अनुभव करता है, तथा नि:संग हुआ वह सब प्रकार से देह व उपाधि का उत्सर्ग करता है।६९। ध्यान में अपने चित्त को लीन करने वाला, वह कषायों से उत्पन्न हुए ईर्ष्या, विषाद और शोक आदि मानसिक दु:खों से भी नहीं | ध.१३/५,४,२६/गा.६७-७१/८२ <span class="PrakritText">अभयासंमोहविवेगविसग्गा तस्स होंति लिंगाइं। लिंगिज्जइ जेहि मुणी सुक्कज्झाणेवगयचित्तो।६७। चालिज्जइ वीहेइ व धीरो ण परीसहोवसग्गेहि। सुहुमेसु ण सम्मुज्झइ भावेसु ण देवमायासु।६८। देह विचित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोए। देहोबहिवोसग्गं णिस्संगो सव्वदो कुणदि।६९। ण कसायसमुत्थेहि वि बाहिज्जइ माणसेहि दुक्खेहि। ईसाविसायसोगादिएहि झाणोवगयचित्तो।७०। सीयायवादिएहि मि सारीरेहिं बहुप्पयारेहिं। णो बाहिज्जइ साहू झेयम्मि सुणिच्चलो संता।७१।</span>=<span class="HindiText">अभय, असंमोह, विवेक और विसर्ग ये शुक्लध्यान के लिंग हैं, जिनके द्वारा शुक्लध्यान को प्राप्त हुआ चित्तवाला मुनि पहिचाना जाता है।६७। वह धीर परिषहों और उपसर्गों से न तो चलायमान होता है और न डरता है, तथा वह सूक्ष्म भावों व देवमाया में भी मुग्ध नहीं होता है।६८। वह देह को अपने से भिन्न अनुभव करता है, इसी प्रकार सब तरह के संयोगों से अपनी आत्मा को भी भिन्न अनुभव करता है, तथा नि:संग हुआ वह सब प्रकार से देह व उपाधि का उत्सर्ग करता है।६९। ध्यान में अपने चित्त को लीन करने वाला, वह कषायों से उत्पन्न हुए ईर्ष्या, विषाद और शोक आदि मानसिक दु:खों से भी नहीं बाँधा जाता है।७०। ध्येय में निश्चल हुआ वह साधु शीत व आतप आदि बहुत प्रकार की बाधाओं के द्वारा भी नहीं बाँधा जाता है।७१। </span><br>त.अनु./३५ <span class="SanskritText">वज्रसंहननोपेता: पूर्वश्रुतसमन्विता:। दध्यु: शुक्लमिहातीता: श्रेण्यारोहणक्षमा:।३५।</span>=<span class="HindiText">वज्रऋषभ संहनन के धारक, पूर्वनामक श्रुतज्ञान से संयुक्त और उपशम व क्षपक दोनों श्रेणियों के आरोहण में समर्थ, ऐसे अतीत महापुरुषों ने इस भूमण्डल पर शुक्लध्यान को ध्याया है। </span></li> | ||
<li name="6" id="6"><span class="HindiText"><strong> ध्याताओं के उत्तम आदि भेद निर्देश</strong> | <li name="6" id="6"><span class="HindiText"><strong> ध्याताओं के उत्तम आदि भेद निर्देश</strong> | ||
</span><br>पं.का./ता.वृ./१७३/२५३/२६ <span class="SanskritText">तत्त्वानुशासनध्यानग्रन्थादौ कथितमार्गेण जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रिधा ध्यातारो ध्यानानि च भवन्ति। तदपि कस्मात् । तत्रैवोक्तमास्ते द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपा ध्यानसामग्री जघन्यादिभेदेन त्रिधेति वचनात् । अथवातिसंक्षेपेण द्विधा ध्यातारो भवन्ति शुद्धात्मभावना प्रारम्भका: पुरुषा: सूक्ष्मसविकल्पावस्थायां प्रारब्धयोगिनो भण्यन्ते, निर्विकल्पशुद्धात्मावस्थायां पुनर्निष्पन्नयोगिन इति संक्षेपेणाध्यात्मभाषया ध्यातृध्यानध्येयानि...ज्ञातव्या:।</span>=<span class="HindiText">तत्त्वानुशासन नामक ध्यानविषयक ग्रन्थ के आदि में ( देखें - [[ ध्यान#3.1 | ध्यान / ३ / १ ]]) कहे अनुसार ध्याता व ध्यान जघन्य मध्यम व उत्कृष्ट के भेद से तीन-तीन प्रकार के हैं क्योंकि | </span><br>पं.का./ता.वृ./१७३/२५३/२६ <span class="SanskritText">तत्त्वानुशासनध्यानग्रन्थादौ कथितमार्गेण जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रिधा ध्यातारो ध्यानानि च भवन्ति। तदपि कस्मात् । तत्रैवोक्तमास्ते द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपा ध्यानसामग्री जघन्यादिभेदेन त्रिधेति वचनात् । अथवातिसंक्षेपेण द्विधा ध्यातारो भवन्ति शुद्धात्मभावना प्रारम्भका: पुरुषा: सूक्ष्मसविकल्पावस्थायां प्रारब्धयोगिनो भण्यन्ते, निर्विकल्पशुद्धात्मावस्थायां पुनर्निष्पन्नयोगिन इति संक्षेपेणाध्यात्मभाषया ध्यातृध्यानध्येयानि...ज्ञातव्या:।</span>=<span class="HindiText">तत्त्वानुशासन नामक ध्यानविषयक ग्रन्थ के आदि में ( देखें - [[ ध्यान#3.1 | ध्यान / ३ / १ ]]) कहे अनुसार ध्याता व ध्यान जघन्य मध्यम व उत्कृष्ट के भेद से तीन-तीन प्रकार के हैं क्योंकि वहाँ ही उनको द्रव्य क्षेत्र काल व भावरूप सामग्री की अपेक्षा तीन-तीन प्रकार का बताया गया है। अथवा अतिसंक्षेप से कहें तो ध्याता दो प्रकार का है‒प्रारब्धयोगी और निष्पन्नयोगी। शुद्धात्मभावना को प्रारम्भ करने वाले पुरुष सूक्ष्म सविकल्पावस्था में प्रारब्धयोगी कहे जाते हैं। और निर्विकल्प शुद्धात्मावस्था में निष्पन्नयोगी कहे जाते हैं। इस प्रकार संक्षेप से अध्यात्मभाषा में ध्याता ध्यान व ध्येय जानने चाहिए। </span></li> | ||
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Revision as of 22:20, 1 March 2015
धर्म व शुक्लध्यानों को ध्याने वाले योगी को ध्याता कहते हैं। उसी की विशेषताओं का परिचय यहाँ दिया गया है।
- प्रशस्त ध्याता में ज्ञान सम्बन्धी नियम व स्पष्टीकरण
त.सू./९/३७ शुक्ले चाद्ये पूर्वविद:।३७।
स.सि./९/३७/४५३/४ आद्ये शुक्लध्याने पूर्वविदो भवत: श्रुतकेवलिन इत्यर्थ:। (नेतरस्य (रा.वा.)) चशब्देन धर्म्यमपि समुच्चीयते। =शुक्लध्यान के भेदों में से आदि के दो शुक्लध्यान (पृथक्त्व व एकत्व वितर्कवीचार) पूर्वविद् अर्थात् श्रुतकेवली के होते हैं अन्य के नहीं।
सूत्र में दिये गये ‘च’ शब्द से धर्म्यध्यान का भी समुच्चय होता है। (अर्थात् शुक्लध्यान तो पूर्वविद् को ही होता है परन्तु धर्मध्यान पूर्वविद् को भी होता है और अल्पश्रुत को भी।) (रा.वा./९/३७/१/६३२/३०)
ध.१३/५,४,२६/६४/६ चउदस्सपुव्वहरो वा [दस] णवपुव्वहरो वा, णाणेण विणा अणवगय-णवपयत्थस्स झाणाणुववत्तीदो। ...चोद्दस-दस-णवपुव्वेहिं विणा थोवेण वि गंथेण णवपयत्थावगमोवलंभादो। ण, थोवेण गंथेण णिस्सेसमवगंतुं बीजबुद्धिमुणिणो मोत्तूण अण्णेसिमुवायाभावादो।...ण च दव्वसुदेण एत्थ अहियारो, पोग्गलवियारस्स जडस्स णाणोवलिंगभूदस्स सुदत्तविरोहादो। थोवदव्वसुदेण अवगयासेस-णवपयत्थाणं सिवभूदिआदिबीजबुद्धीणं ज्झाणाभावेण मोक्खाभावप्पसंगादो। थोवेण णाणेण जदि ज्झाणं होदि तो खवगसेडिउवसमसेडिणमप्पाओग्गधम्मज्झाणं चेव होदि। चोद्दस-दस-णवपुव्व-हरा पुण धम्मसुक्कज्झाणं दोण्णं पि सामित्तमुवणमंति, अविरोहादो। तेण तेसिं चेव एत्थ णिद्देसो कदो।=जो चौदह पूर्वों को धारण करने वाला होता है, वह ध्याता होता है, क्योंकि इतना ज्ञान हुए बिना, जिसने नौ पदार्थों को भली प्रकार नहीं जाना है, उसके ध्यान की उत्पत्ति नहीं हो सकती ? प्रश्न‒चौदह, दस और नौ पूर्वों के बिना स्तोकग्रन्थ से भी नौ पदार्थ विषयक ज्ञान देखा जाता है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि स्तोक ग्रन्थ से बीजबुद्धि मुनि ही पूरा जान सकते हैं, उनके सिवा दूसरे मुनियों को जानने का कोई साधन नहीं है। (अर्थात् जो बीजबुद्धि नहीं है वे बिना श्रुत के पदार्थों का ज्ञान करने को समर्थ नहीं है) और द्रव्यश्रुत का यहाँ अधिकार नहीं है। क्योंकि ज्ञान के उपलिंगभूत पुद्गल के विकारस्वरूप जड़ वस्तु को श्रुत (ज्ञान) मानने में विरोध आता है। प्रश्न‒स्तोक द्रव्यश्रुत से नौ पदार्थों को पूरी तरह जानकर शिवभूति आदि बीजबुद्धि मुनियों के ध्यान नहीं मानने से मोक्ष का अभाव प्राप्त होता है? उत्तर‒स्तोक ज्ञान से यदि ध्यान होता है तो वह क्षपक व उपशमश्रेणी के अयोग्य धर्मध्यान ही होता है (धवलाकार पृथक्त्व वितर्कवीचार को धर्मध्यान मानते हैं‒ देखें - धर्मध्यान / २ / ४ -५) परन्तु चौदह, दस और नौ पूर्वों के धारी तो धर्म और शुक्ल दोनों ही ध्यानों के स्वामी होते हैं। क्योंकि ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता। इसलिए उन्हीं का यहाँ निर्देश किया गया है।
म.पु./२१/१०१-१०२ स चतुर्दशपूर्वज्ञो दशपूर्वधरोऽपि वा। नवपूर्वधरो वा स्याद् ध्याता सम्पूर्णलक्षण:।१०१। श्रुतेन विकलेनापि स्याद् ध्याता सामग्रीं प्राप्य पुष्कलाम् । क्षपकोपशमश्रेण्यो: उत्कृष्टं ध्यानमृच्छति।१०४।=यदि ध्यान करने वाला मुनि चौदह पूर्व का, या दश पूर्व का, या नौ पूर्व का जानने वाला हो तो वह ध्याता सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त कहलाता है।१०१। इसके सिवाय अल्पश्रुतज्ञानी अतिशय बुद्धिमान् और श्रेणी के पहले पहले धर्मध्यान धारण करने वाला उत्कृष्ट मुनि भी उत्तम ध्याता कहलाता है।१०२।
स.सा./ता.वृ./१०/२२/११ ननु तर्हि स्वसंवेदनज्ञानबलेनास्मिन् कालेऽपि श्रुतकेवली भवति। तन्न; यादृशं पूर्वपुरुषाणां शुक्लध्यानरूपं स्वसंवेदनज्ञानं तादृशमिदानीं नास्ति किन्तु धर्मध्यानयोग्यमस्तीति। =प्रश्न‒स्वसंवेदनज्ञान के बल से इस काल में भी श्रुतकेवली होने चाहिए ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि जिस प्रकार का शुक्लध्यान रूप स्वसंवेदन पूर्वपुरुषों के होता था, उस प्रकार का इस काल में नहीं होता। केवल धर्मध्यान योग्य होता है।
द्र.सं./टी./५७/२३२/९ यथोक्तं दशचतुर्दशपूर्वगतश्रुतज्ञानेन ध्यानं भवति तदप्युत्सर्गवचनम् । अपवादव्याख्यानेन पुन: पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादकसारभूतश्रुतेनापि ध्यानं भवति।=तथा जो ऐसा कहा है, कि ‘दश तथा चौदह पूर्व तक श्रुतज्ञान से ध्यान होता है, वह उत्सर्ग वचन हैं। अपवाद व्याख्यान से तो पाँच समिति और तीन गुप्ति को प्रतिपादन करने वाले सारभूतश्रुतज्ञान से भी ध्यान होता है। (पं.का./ता.वृ./१४६/२१२/९); (और भी देखें - श्रुतकेवली )
- प्रशस्त ध्यानसामान्य योग्य ध्याता
ध.१३/५,४,२६/६४/६ तत्थ उत्तमसंघडणो ओघवलो ओघसूरो चोहस्सपुव्वहरो वा (दस) णवपुव्वहरो वा।=जो उत्तम संहननवाला, निसर्ग से बलशाली और शूर, तथा चौदह या दस या नौ पूर्व को धारण करने वाला होता है वह ध्याता है। (म.पु./२१/८५)
म.पु./२१/८६-८७ दोरोत्सारितदुर्ध्यानो दुर्लेश्या: परिवर्जयन् । लेश्याविशुद्धिमालम्ब्य भावयन्नप्रमत्तताम् ।८६। प्रज्ञापारमितो योगी ध्याता स्याद्धीबलान्वित:। सूत्रार्थालम्बनो धीर: सोढाशेषपरीषह:।८७। अपि चोद्भूतसंवेग: प्राप्तनिर्वेदभावन:। वैराग्यभावनोत्कर्षात् पश्यन् भोगानतर्प्तकान् ।८८। सम्यग्ज्ञानभावनापास्तमिथ्याज्ञानतमोघन:। विशुद्धदर्शनापोढगाढमिथ्यात्वशल्यक:।८९।=आर्त व रौद्र ध्यानों से दूर, अशुभ लेश्याओं से रहित, लेश्याओं की विशुद्धता से अवलम्बित, अप्रमत्त अवस्था की भावना भाने वाला।८६। बुद्धि के पार को प्राप्त, योगी, बुद्धिबलयुक्त, सूत्रार्थ अवलम्बी, धीर वीर, समस्त परीषहों को सहने वाला।८७। संसार से भयभीत, वैराग्य भावनाएँ भानेवाला, वैराग्य के कारण भोगोपभोग की सामग्री को अतृप्तिकर देखता हुआ।८८। सम्यग्ज्ञान की भावना से मिथ्याज्ञानरूपी गाढ़ अन्धकार को नष्ट करने वाला, तथा विशुद्ध सम्यग्दर्शन द्वारा मिथ्या शल्य को दूर भगाने वाला, मुनि ध्याता होता है।८९। ( देखें - ध्याता / ४ त.अनु.)
द्र.सं./मू./५७ तवसुदवदवं चेदा झाणरह धुरंधरो हवे जम्हा। तम्हा तत्तिय णिरदा तल्लद्धीए सदा होह।=क्योंकि तप व्रत और श्रुतज्ञान का धारक आत्मा ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने वाला होता है, इस कारण हे भव्य पुरुषो ! तुम उस ध्यान की प्राप्ति के लिए निरन्तर तप श्रुत और व्रत में तत्पर होओ।
चा.सा./१६७/२ ध्याता...गुप्तेन्द्रियश्च। =प्रशस्त ध्यान का ध्याता मन वचन काय को वश में रखने वाला होता है।
ज्ञा./४/६ मुमुक्षुर्जन्मनिर्विण्य: शान्तचित्तो वशी स्थिर:। जिताक्ष: संवृतो धीरो ध्याता शास्त्रे प्रशस्यते।६।=मुमुक्षु हो, संसार से विरक्त हो, शान्तचित्त हो, मन को वश करने वाला हो, शरीर व आसन जिसका स्थिर हो, जितेन्द्रिय हो, चित्त संवरयुक्त हो (विषयों में विकल न हो), धीर हो, अर्थात् उपसर्ग आने पर न डिगे, ऐसे ध्याता की ही शास्त्रों में प्रशंसा की गयी है। (म.पु./२१/९०-९५); (ज्ञा./२७/३)
- ध्याता न होने योग्य व्यक्ति
ज्ञा./४/श्लोक नं. केवल भावार्थ‒जो मायाचारी हो।३२। मुनि होकर भी जो परिग्रहधारी हो।३३। ख्याति लाभ पूजा के व्यापार में आसक्त हो।३५। ‘नौ सौ चूहे खाके बिल्ली हज को चली’ इस उपाख्यान को सत्य करने वाला हो।४२। इन्द्रियों का दास हो।४३। विरागता को प्राप्त न हुआ हो।४४। ऐसे साधुओं को ध्यान की प्राप्ति नहीं होती।
ज्ञा./४/६२ एते पण्डितमानिन: शमदमस्वाध्यायचिन्तायुता:, रागादिग्रहबञ्चिता यतिगुणप्रध्वंसतृष्णानना:। व्याकृष्टा विषयैर्मदै: प्रमुदिता: शङ्काभिरङ्गीकृता, न ध्यानं न विवेचनं न च तप: कर्तु वराका: क्षमा:।६२।=जो पण्डित तो नहीं है, परन्तु अपने को पण्डित मानते हैं, और शम, दम, स्वाध्याय से रहित तथा रागद्वेषादि पिशाचों से वंचित हैं, एवं मुनिपने के गुण नष्ट करके अपना मुँह काला करने वाले हैं, विषयों से आकर्षित, मदों से प्रसन्न, और शंका सन्देह शल्यादि से ग्रस्त हों, ऐसे रंक पुरुष न ध्यान करने को समर्थ है, न भेदज्ञान करने को समर्थ हैं और न तप ही कर सकते हैं।
देखें - मंत्र ‒(मन्त्र यन्त्रादि की सिद्धि द्वारा वशीकरण आदि कार्यों की सिद्धि करने वालों को ध्यान की सिद्धि नहीं होती)
देखें - धर्मध्यान / २ / ३ (मिथ्यादृष्टियों को यथार्थ धर्म व शुक्लध्यान होना सम्भव नहीं है)
देखें - अनुभव / ५ / ५ (साधु को ही निश्चयध्यान सम्भव है गृहस्थ को नहीं, क्योंकि प्रपंचग्रस्त होने के कारण उसका मन सदा चंचल रहता है।
- धर्मध्यान के योग्य ध्याता
का.अ./मू./४७९ धम्मे एयग्गमणो जो णवि वेदेदि पंचहा विसयं। वेरग्गमओ णाणी धम्मज्झाणं हवे तस्स।४७९।=जो ज्ञानी पुरुष धर्म में एकाग्रमन रहता है, और इन्द्रियों के विषयों का अनुभव नहीं करता, उनसे सदा विरक्त रहता है, उसी के धर्मध्यान होता है। ( देखें - ध्याता / २ में ज्ञा./४/६)
त.अनु./४१-४५ तत्रासन्नीभवन्मुक्ति: किंचिदासाद्य कारणम् । विरक्त: कामभोगेभ्यस्त्यक्त-सर्वपरिग्रह:।४१। अभ्येत्य सम्यगाचार्यं दीक्षां जैनेश्वरीं श्रित:। तपोसंयमसंपन्न: प्रमादरहिताशय:।४२। सम्यग्निर्णीतजीवादिध्येयवस्तुव्यवस्थिति:। आर्तरौद्रपरित्यागाल्लब्धचित्तप्रसक्तिक:।४३। मुक्तलोकद्वयापेक्ष: सोढाऽशेषपरीषह:। अनुष्ठितक्रियायोगो ध्यानयोगे कृतोद्यम:।४४। महासत्त्व: परित्यक्तदुर्लेश्याऽशुभभावना:। इतीदृग्लक्षणो ध्याता धर्मध्यानस्य संमत:।४५। =धर्मध्यान का ध्याता इस प्रकार के लक्षणों वाला माना गया है‒जिसकी मुक्ति निकट आ रही हो, जो कोई भी कारण पाकर कामसेवा तथा इन्द्रियभोगों से विरक्त हो गया हो, जिसने समस्त परिग्रह का त्याग किया हो, जिसने आचार्य के पास जाकर भले प्रकार जैनेश्वरी दीक्षा धारण की हो, जो जैनधर्म में दीक्षित होकर मुनि बना हो, जो तप और संयम से सम्पन्न हो, जिसका आश्रय प्रमाद रहित हो, जिसने जीवादि ध्येय वस्तु की व्यवस्थिति को भले प्रकार निर्णीत कर लिया हो, आर्त्त और रौद्र ध्यानों के त्याग से जिसने चित्त की प्रसन्नता प्राप्त की हो, जो इस लोक और परलोक दोनों की अपेक्षा से रहित हो, जिसने सभी परिषहों को सहन किया हो, जो क्रियायोग का अनुष्ठान किये हुए हो (सिद्धभक्ति आदि क्रियाओं के अनुष्ठान में तत्पर हो।) ध्यानयोग में जिसने उद्यम किया हो (ध्यान लगाने का अभ्यास किया हो) जो महासामर्थ्यवान हो, और जिसने अशुभ लेश्याओं तथा बुरी भावनाओं का त्याग किया हो। (ध्याता/२/में म.पु.)
और भी देखें - धर्म्यध्यान / १ / २ जिनाज्ञा पर श्रद्धान करने वाला, साधु का गुण कीर्तन करने वाला, दान, श्रुत, शील, संयम में तत्पर, प्रसन्न चित्त, प्रेमी, शुभ योगी, शास्त्राभ्यासी, स्थिरचित्त, वैराग्य भावना में भाने वाला ये सब धर्मध्यानी के बाह्य व अन्तरंग चिह्न हैं। शरीर की नीरोगता, विषय लम्पटता व निष्ठुरता का अभाव, शुभ गन्ध, मलमूत्र अल्प होना, इत्यादि भी उसके बाह्य चिह्न है।
देखें - धर्मध्यान / १ / ३ वैराग्य, तत्त्वज्ञान, परिग्रह त्याग, परिषहजय, कषाय निग्रह आदि धर्मध्यान की सामग्री है।
- शुक्लध्यान योग्य ध्याता
ध.१३/५,४,२६/गा.६७-७१/८२ अभयासंमोहविवेगविसग्गा तस्स होंति लिंगाइं। लिंगिज्जइ जेहि मुणी सुक्कज्झाणेवगयचित्तो।६७। चालिज्जइ वीहेइ व धीरो ण परीसहोवसग्गेहि। सुहुमेसु ण सम्मुज्झइ भावेसु ण देवमायासु।६८। देह विचित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोए। देहोबहिवोसग्गं णिस्संगो सव्वदो कुणदि।६९। ण कसायसमुत्थेहि वि बाहिज्जइ माणसेहि दुक्खेहि। ईसाविसायसोगादिएहि झाणोवगयचित्तो।७०। सीयायवादिएहि मि सारीरेहिं बहुप्पयारेहिं। णो बाहिज्जइ साहू झेयम्मि सुणिच्चलो संता।७१।=अभय, असंमोह, विवेक और विसर्ग ये शुक्लध्यान के लिंग हैं, जिनके द्वारा शुक्लध्यान को प्राप्त हुआ चित्तवाला मुनि पहिचाना जाता है।६७। वह धीर परिषहों और उपसर्गों से न तो चलायमान होता है और न डरता है, तथा वह सूक्ष्म भावों व देवमाया में भी मुग्ध नहीं होता है।६८। वह देह को अपने से भिन्न अनुभव करता है, इसी प्रकार सब तरह के संयोगों से अपनी आत्मा को भी भिन्न अनुभव करता है, तथा नि:संग हुआ वह सब प्रकार से देह व उपाधि का उत्सर्ग करता है।६९। ध्यान में अपने चित्त को लीन करने वाला, वह कषायों से उत्पन्न हुए ईर्ष्या, विषाद और शोक आदि मानसिक दु:खों से भी नहीं बाँधा जाता है।७०। ध्येय में निश्चल हुआ वह साधु शीत व आतप आदि बहुत प्रकार की बाधाओं के द्वारा भी नहीं बाँधा जाता है।७१।
त.अनु./३५ वज्रसंहननोपेता: पूर्वश्रुतसमन्विता:। दध्यु: शुक्लमिहातीता: श्रेण्यारोहणक्षमा:।३५।=वज्रऋषभ संहनन के धारक, पूर्वनामक श्रुतज्ञान से संयुक्त और उपशम व क्षपक दोनों श्रेणियों के आरोहण में समर्थ, ऐसे अतीत महापुरुषों ने इस भूमण्डल पर शुक्लध्यान को ध्याया है। - ध्याताओं के उत्तम आदि भेद निर्देश
पं.का./ता.वृ./१७३/२५३/२६ तत्त्वानुशासनध्यानग्रन्थादौ कथितमार्गेण जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रिधा ध्यातारो ध्यानानि च भवन्ति। तदपि कस्मात् । तत्रैवोक्तमास्ते द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपा ध्यानसामग्री जघन्यादिभेदेन त्रिधेति वचनात् । अथवातिसंक्षेपेण द्विधा ध्यातारो भवन्ति शुद्धात्मभावना प्रारम्भका: पुरुषा: सूक्ष्मसविकल्पावस्थायां प्रारब्धयोगिनो भण्यन्ते, निर्विकल्पशुद्धात्मावस्थायां पुनर्निष्पन्नयोगिन इति संक्षेपेणाध्यात्मभाषया ध्यातृध्यानध्येयानि...ज्ञातव्या:।=तत्त्वानुशासन नामक ध्यानविषयक ग्रन्थ के आदि में ( देखें - ध्यान / ३ / १ ) कहे अनुसार ध्याता व ध्यान जघन्य मध्यम व उत्कृष्ट के भेद से तीन-तीन प्रकार के हैं क्योंकि वहाँ ही उनको द्रव्य क्षेत्र काल व भावरूप सामग्री की अपेक्षा तीन-तीन प्रकार का बताया गया है। अथवा अतिसंक्षेप से कहें तो ध्याता दो प्रकार का है‒प्रारब्धयोगी और निष्पन्नयोगी। शुद्धात्मभावना को प्रारम्भ करने वाले पुरुष सूक्ष्म सविकल्पावस्था में प्रारब्धयोगी कहे जाते हैं। और निर्विकल्प शुद्धात्मावस्था में निष्पन्नयोगी कहे जाते हैं। इस प्रकार संक्षेप से अध्यात्मभाषा में ध्याता ध्यान व ध्येय जानने चाहिए। - अन्य सम्बन्धित विषय
- पृथकत्व एकत्व वितर्क विचार आदि शुक्लध्यानों के ध्याता।‒देखें - शुक्लध्यान।
- धर्म व शुक्लध्यान के ध्याताओं में संहनन सम्बन्धी चर्चा।‒देखें - संहनन।
- चारों ध्यानों के ध्याताओं में भाव व लेश्या आदि।‒दे०वह वह नाम।
- चारों ध्यानों का गुणस्थानों की अपेक्षा स्वामित्व।‒दे०वह वह नाम।
- आर्त रौद्र ध्यानों के बाह्य चिह्न।‒दे०वह वह नाम।