विभाव
From जैनकोष
कर्मों के उदय से होने वाले जीव के रागादि विकारी भावों को विभाव कहते हैं। निमित्त की अपेक्षा कथन करने पर ये कर्मों के हैं और जीव की अपेक्षा कथन करने पर ये जीव के हैं। संयोगी होने के कारण वास्तव में ये किसी एक के नहीं कहे जा सकते। शुद्धनय से देखने पर इनकी सत्ता ही नहीं है।
- [[ विभाव व वैमाविक शक्ति निर्देश ]]
- वैभाविकी शक्ति केवल जीव व पुद्गल में ही है।–दे. गुण ३/८।
- वैभाविकी शक्ति केवल जीव व पुद्गल में ही है।–दे. गुण ३/८।
- [[रागादिक में कथंचित् स्वभाव-विभावपना ]]
- कषाय जीव का स्वभाव नहीं।–दे. कषाय/२/३।
- संयोगी होने के कारण विभाव की सत्त ही नहीं है।–दे. विभाव/५/६।
- रागादि जीव के नहीं पुद्गल के हैं।–दे. मूर्त/९।
- विभाव का कथंचित् सहेतुकपना
- जीव व कर्म का निमित्त-नैमित्तिकपना।–दे. कारण/III/३/५।
- जीव व कर्म का निमित्त-नैमित्तिकपना।–दे. कारण/III/३/५।
- विभाव का कथंचित् अहेतुकपना
- जीव भावों का निमित्त पाकर पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमता है।–दे. कारण/III/३।
- जीव भावों का निमित्त पाकर पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमता है।–दे. कारण/III/३।
- विभाव के सहेतुक-अहेतुकपने का समन्वय
- कर्म जीव का पराभव कैसे करता है?
- रागादि भाव संयोगी होने के कारण किसी एक के नहीं कहे जा सकते।
- ज्ञानी व अज्ञानी की अपेक्षा से दोनों बातें ठीक हैं।
- दोनों का नयार्थ व मतार्थ।
- दोनों बातों का कारण व प्रयोजन।
- विभाव का अभाव सम्भव है।–दे. राग/५।
- कर्म जीव का पराभव कैसे करता है?