अनित्य अनुप्रेक्षा
From जैनकोष
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/102
तत्सर्वमध्रुवमिति भावयितव्यम्। तद्भावनासहितपुरुषस्य तेषां वियोगेऽपि सत्युच्छिष्टेष्विव ममत्वं न भवति तत्र ममत्वाभावादविनश्वरनिजपरमात्मानमेव भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भावयति, यादृशमविनश्वरमात्मान भावयति तादृशमेवाक्षयानंतसुखस्वभावं मुक्तात्मानं प्राप्नोति। इत्यध्रुवानुप्रेक्षा मता।
= (धन स्त्री आदि) सो सब अनित्य हैं, इस प्रकार चिंतवन करना चाहिए। उस भावना सहित पुरुष के उन स्त्री आदि के वियोग होने पर भी जूठे भोजनों के समान ममत्व नहीं होता। उनमें ममत्व का अभाव होने से अविनाशी निज परमात्मा का ही भेद, अभेद रत्नत्रय की भावना द्वारा भाता है। जैसी अविनश्वर आत्मा को भाता है, वैसी ही अक्षय, अनंत सुख स्वभाव वाली मुक्त आत्मा को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार अध्रुव भावना है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/413
इमानि शरीरेंद्रियविषयोपभोगद्रव्याणि जलबुद्बुद्वदनवस्थितस्वभावानिगर्भादिष्ववस्थाविशेषेषुसदोपलभ्यमानसयोगविपर्ययाणि, मोहादत्राज्ञो नित्यतां मन्यते। न किंचिंत्संसारे समुदितं ध्रुवमस्ति आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावादन्यदिति चिंतनमनुप्रेक्षा।
= ये समुदाय रूप शरीर, इंद्रिय विषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य, जल बुद्बु द्के समान अनवस्थित स्वभाव वाले होते हैं तथा गर्भादि अवस्था विशेषों में सदा प्राप्त होने वाले संयोगों से विपरीत स्वभाव वाले होते हैं। मोह वश अज्ञ प्राणी इनमें नित्यता का अनुभव करता है, पर वस्तुतः आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के सिवा इस संसार में कोई भी पदार्थ ध्रुव नहीं है, इस प्रकार चिंतन करना अनित्यानुप्रेक्षा है।
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