असमीक्षाधिकरण
From जैनकोष
राजवार्तिक अध्याय 7/32,4-5/556/22
असमीक्ष्य प्रयोजनमाधिक्येन करणमधिकरणम् ॥4॥ अधिरुपरिभावे वर्तते, करोति चापूर्वप्रादुर्भावे प्रयोजनमसमीक्ष्य आधिक्येन प्रवर्तनमधिकरणम्। तत्त्रेधा कायवाङ्मनोविषयभेदात् ॥5॥ तदधिकरणं त्रेधा व्यवतिष्ठते। कुतः कायवाङ्मनो विषयभेदात्। तत्र मानसं परानर्थककाव्यादिचिंतनम्, वाग्गतं निष्प्रयोजनकथाख्यानं परपीडाप्रधानं यत्किंचनवक्तृत्वम्, कायिकं च प्रयोजनमंतरेण गच्छंस्तिष्ठन्नासीनो वा सचित्तेतरपत्रपुष्पफलच्छेदनभेदनकुट्टनक्षेपणादीनि कुर्यात्। अग्निविषक्षारादिप्रदानं चारभेत इत्येवमादि, तत्सर्वमसमीक्ष्याधिकरणम्।
= प्रयोजन के बिना ही आधिक्य रूप से प्रवर्तन अधिकरण कहलाता है। मन, वचन और काय के भेद से वह तीन प्रकार का है। निरर्थक काव्य आदि का चिंतन मानस अधिकरण है। निष्प्रयोजन परपीड़ादायक कुछ भी बकवास वाचनिक अधिकरण है। बिना प्रयोजन बैठे या चलते हुए सचित्त या अचित्त पत्र, पुष्प, फलों का छेदन, भेदन, मर्दन, कुट्टन या क्षेपण आदि करना तथा अग्नि, विष, क्षार आदि देना कायिक असमीक्ष्याधिकरण है।
देखें अधिकरण