आसुरी
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 183
अणुबंधरोसविग्गहसंसत्तवो णिमित्तपडिसेवी। णिक्किवणिराणुतावी आसुरियं भावणं होदि।
= जिसका कोप अन्य भव में भी गमन करने वाला है, और कलह करना जिसका स्वभाव बन गया है, वह मुनि रोष और कलह के साथ ही तप करता है ऐसे तप से उसको असुर-गति की प्राप्ति होती है।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 68
खुद्दी कोही माणी मायी तह संकिलिट्ठतव चरिते। अणुबंधवद्धवेरराई असुरेसुंव वज्जदे जीवो ॥68॥
= दुष्ट, क्रोधी, मानी, मायाचारी, तप तथा चारित्र पालने में क्लेशित परिणामों से सहित और जिसने वैर करने में बहुत प्रीति की है ऐसा जीव आसुरी भावना से असुरजाति के अंबरीष नामा भवनवासी देवों में उत्पन्न होता है ॥68॥
पुराणकोष से
चमरचंचपुर नगर के विद्याधर इंद्राशनि की रानी और अशनिघोष की जननी । नपु0 62.221,284