उद्गम
From जैनकोष
1. आहार का एक दोष
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 421-477
उग्गम उप्पादन एसणं संजीजणं पमाणं च। इंगाल धूमकारण अट्ठविहा पिंडसुद्धी हु ॥421॥ आधाकम्मुद्देसिय अज्झावसोय पूदि मिस्से य। पामिच्छे वलि पाहुडिदे पादूकारे य कोदे य ॥422॥ पामिच्छे परियट्ठे अभिहइमच्छिण्ण मालआरोहे। आच्छिज्जे अणिसट्ठे उग्गदीसादु सेलसिमे ॥422॥ घादीदूदणिमित्ते आजीवे वणिवगे य तेगिंछे। कोधी माणी मायी लोभी य हवंति दस एदे ॥445॥ पुव्वीपच्छा संथुदि विज्जमंते य चुण्णजोगे य। उप्पादणा य दोसो सोलसमो मूलकम्मे य ॥446॥ संकिदमक्खिदपिहिदसंववहरणदायगुम्मिस्से। अपरिणदलित्तछोडिद एसणदोसइं दस एदे ॥62॥
.... उद्गम् दोष - गृहस्थ के आश्रित जो चक्की आदि आरंभ रूप कर्म वह अधःकर्म है उसका तो सामान्य रीति से साधु को त्याग ही होता है। तथा उपरोक्त मूल आठ दोषों मे-से उद्गम दोष के सोलह भेद कहते हैं - औद्देशिक दोष, अध्यधि दोष, पूतिदोष, मिश्र दोष, स्थापित दोष, बलि दोष, प्रावर्तित दोष, प्राविष्करण दोष, क्रीत दोष, प्रामृश्य दोष, परिवर्तक दोष, अभिघट दोष, अच्छिन्न दोष, मालारोह दोष, अच्छेद्य दोष, अनिसृष्ट दोष....।
- आहार के दोषों को विस्तार के जानने के लिये देखें आहार - II.4.1
2. वसतिका का एक दोष
भगवती आराधना/636-638/836 उग्गमउप्पादणएसणाविसुद्धाए अकिरियाए हु । वसइ असंसत्तए ण्णिप्पाहुडियाए-सेज्जाए ।636। सुहणिक्खवणपवेसुणघणाओ अवियडअणंधयाराओ ।637। घणकुड्डे सकवाडे गामबहिं बालबुढ्ढग-णजोग्गे ।638।
=जो उद्गम उत्पादन और एषणा दोषों से रहित है, जिसमें जंतुओं का वास न हो, अथवा बाहर से आकर जहाँ प्राणी वास न करते हों, संस्कार रहित हो, ऐसी वसतिका में मुनि रहते हैं । ( भगवती आराधना/230/443 ) - (विशेष देखें वसतिका - 7)
- देखें उद्गम के 18 दोषों के लिये वसतिका ।