काय शुद्धि
From जैनकोष
राजवार्तिक/9/6/16/597/4 .... कायशुद्धिर्निरावरणाभरणा निरस्तसंस्कारा यथाजातमलधारिणी निराकृतांगविकारा सर्वत्र प्रयतवृत्ति: प्रशमसुखं मूर्तिमिव प्रदर्शयंतीति। तस्यां सत्यां। न स्वतोऽन्यस्य भयमुपजायते नाप्यन्यतस्तस्य। .... = ....कायशुद्धि-यह समस्त आवरण और आभरणों से रहित, शरीर संस्कार से शून्य, यथाजात मल को धारण करने वाली, अंगविकार से रहित, और सर्वत्र यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्तिरूप है। यह मूर्तिमान् प्रशमसुख की तरह है। इसके होने पर न तो दूसरों से अपने को भय होता है और न अपने से दूसरों को। .....
देखें शुद्धि ।