कुगुरु
From जैनकोष
दर्शनपाहुड़/ मूल/13 जे वि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जागारवभएण। तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं।13। = जो दर्शनयुक्त पुरुष दर्शनभ्रष्ट को मिथ्यादृष्टि जानते हुए भी लज्जा गारव या भय के कारण उनके पाँव में पड़ते हैं अर्थात् उनकी विनय आदि करते हैं, तिनको भी बोधि की प्राप्ति नहीं होती, है, क्योंकि वे पाप के अनुमोदक हैं।13।
कुगुरु की विनय का निषेध व कारणादि–देखें विनय - 4।