कुलगिरि
From जैनकोष
अभ्यंतर पुष्करार्ध में धातकी खंडवत् ही दो इष्वाकार पर्वत हैं जिनके कारण यह पूर्व व पश्चिम के दो भागों में विभक्त हो जाता है। दोनों भागों में धातकी खंडवत् रचना है। ( तत्त्वार्थसूत्र/3/34 ); ( तिलोयपण्णत्ति/4/2784-2785 ); ( हरिवंशपुराण/5/578 )। धातकी खंड के समान यहाँ ये सब कुलगिरि तो पहिये के आरोंवत् समान विस्तार वाले और क्षेत्र उनके मध्य छिद्रों में हीनाधिक विस्तारवाले हैं। दक्षिण इष्वाकार के दोनों तरफ दो भरत क्षेत्र और इष्वाकार के दोनों तरफ दो ऐरावत क्षेत्र हैं। क्षेत्रों, पर्वतों आदि के नाम जंबूद्वीपवत् हैं।