क्षेत्रोपसंयत
From जैनकोष
मूलाचार/140-143 पाहुणविणउवचारो तेसिं चावासभूमि संपुच्छा। दाणाणुवत्तणादी विणये उवसंपया णेया।140। संजमतवगुणसीला जमणियमादी य जह्मि खेत्तह्मि। वड्ढंति तह्मि वासो खेत्ते उवसंपया णेया।141। पाहुणवत्थव्वाण अण्णोण्णागमणगमणसुहपुच्छा। उवसंपदा य मग्गे संजमतवणाणजोगजुत्ताणं।142। सुहदुक्खे उवयारो वसहीआहारभेसजादीहिं। तुह्मं अहंति वयणं सुहदुक्खुवसंपया णेया।143। =..... संयम तप व उपशमादि गुण व व्रत रक्षारूप शील तथा यम, नियम, इत्यादिक जिस स्थान में रहने से बढ़ें, उस क्षेत्र में रहना वह क्षेत्रोपसंयत है।141। .....।
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