• जैनकोष
    जैनकोष
  • Menu
  • Main page
    • Home
    • Dictionary
    • Literature
    • Kaavya Kosh
    • Study Material
    • Audio
    • Video
    • Online Classes
    • Games
  • Share
    • Home
    • Dictionary
    • Literature
    • Kaavya Kosh
    • Study Material
    • Audio
    • Video
    • Online Classes
    • Games
  • Login

जैन शब्दों का अर्थ जानने के लिए किसी भी शब्द को नीचे दिए गए स्थान पर हिंदी में लिखें एवं सर्च करें

गणित I.4

From जैनकोष

 Share 



  1. अक्षर व अंकक्रम की अपेक्षा सहनानियाँ
    1. अक्षरक्रम की अपेक्षा सहनानियाँ
      (पूर्वोक्त सर्व सहनानियों के आधार पर)
      संकेत—अ.छे=अर्धच्छेद राशि: व.श=वर्गशलाका राशि प्र=प्रथम; द्वि=द्वितीय;ज=जघन्य;उ=उत्कृष्ट

अ को को         

: अंत: कोटाकोटी          

ज प्र    

: जगत्प्रतर     

अ        

: असंज्ञी           

ना       

: नानागुणहानि

उ         

: उत्कृष्ट, अनंतभाग, अपकर्षण भागाहार      

प         

: पल्य 

ए         

: एकेंद्रिय       

प्र         

: प्रतरांगुल       

के  

: केवलज्ञान, उत्कृष्टअनंतानंत

बा        

: बादर 

के मू1

: ‘के’ का प्र. वर्गमूल      

मू        

: मूल   

के मू2

: ‘के’ का द्वि. वर्गमूल  

मू1

: प्रथम मूल      

को       

: कोटि (क्रोड़)   

मू2

: द्वितीय मूल  

को. को.

: कोटाकोटी      

ल        

: लक्ष   

ख        

: अनंत          

ल को   

: लक्ष कोटि      

ख ख ख           

: अनंतानंत अलोकाकाश

लो       

: लोक  

घ        

: घन, घनांगुल 

लो प्र    

: लोक प्रतर      

घ मू

: घनमूल          

व         

: वर्ग, जघन्य वर्गणा, पल्य की वर्ग श.

घ लो   

: घनलोक        

व21‒

: प्रतरांगुल की व.श.

छे        

: अर्द्धच्छेद तथा पल्य की अ.छे. राशि 

व2

: घनांगुल की व.श.

छे छे    

: सूच्यंगुल की अ.छे.

: सूच्यंगुल की व.श. जगश्रेणी की व.श.

छे छे2

: प्रतरांगुल की अ.छे.

 

: जगत्प्रतर की व.श.

छे छे3

: घनांगुल की अ.छे.

: घनलोक की व.श.

: जगश्रेणी की अ.छे.

व.मू.

: वर्गमूल          

: जगत्प्रतर की अ.छे.

व.मू.1

: प्रथम वर्गमूल 

 

: घनलोक की अ.छे.

व.मू.2

: द्वितीय वर्गमूल        

        

: जघन्य, जगश्रेणी       

वि       

: विरलन राशि 

ज        

: साधिक जघन्य          

सं        

: संज्ञी  

ज=

: जघन्य को आदि लेकर अन्य भी

स∂       

: समय प्रबद्ध    

ज जु अ           

: ज. युक्तानंत           

स 32

:उत्कृष्ट समयप्रबद्ध    

 

: उ. परीतानंत           

सा       

: सागर

ज जु अ व        

: ज. युक्तानंत का वर्ग, ज. अनंतानंत

सू        

: सूक्ष्म, सूच्यंगुल        

 

: उत्कृष्ट युक्तानंत

सू2

: (सूच्यंगुल)2 प्रतरांगुल

ज.ज्ञा.

: जघन्य ज्ञान  

सू3

: (सूच्यंगुल)3, घनांगुल

    1. अंकक्रम की अपेक्षा सहनानियाँ
      (पूर्वोक्त सर्व सहनानियों के आधार पर)‒

1

: गृहीत पुद्गल प्रचय    

2

: जघन्य संख्यात, जघन्य असंख्यात, जघन्य युक्तासंख्यात, सूच्यंगुल, आवली        

2Q

: अंतर्मुहूर्त, संख्य.आव.

 

: उत्कृष्ट परीतासंख्या.

3

: सिद्धजीव राशि           

4

: असंख्यात भाग जघन्य असंख्यातासंख्य. एक स्पर्धक विषै वर्गणा, प्रतरांगुल प्रतरावली।    

5

: संख्यात भाग 

6

: संख्यात गुण, घनांगुल           

7

: असंख्यात गुण          

: रज्जू 

: रज्जूप्रतर     

: रज्जूघन       

8

: अनंतगुण, एक गुणहानि, घनावली   

9

: एक गुणहानि विषै स्पर्धक, स्पर्धकशलाका     

12

: ड्योढ़ गुणहानि           

13

: संसारीजीव राशि        

15

: उत्कृष्ट असंख्य,      

16

: जघन्य अनंत, संपूर्ण जीवराशि, दोगुणहानि, निषेकाहार     

16ख    

: पुद्गल राशि  

16ख ख

: काल समय राशि        

16खखख         

: आकाशप्रदेश  

18

: एकट्ठी          

42

: बादाल           

: रजत प्रतर     

65

: पणट्ठी          

: रज्जूघन       

: जघन्य परीतानंत   

256

: उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात

: ध्रुव राशि

    1. आँकड़ों की अपेक्षा सहनानियाँ
      (पूर्वोक्त सर्व सहनानियों के आधार पर)
      नोट—यहाँ ‘x’ को सहनानी का अंग न समझना। केवल आँकड़ों का अवस्थान दर्शाने को ग्रहण किया है।

: संकलन (जोड़़ना)       

x‒

: किंचिदून        

 

: व्यकलन (घटाना)      

 

: एक घाट        

: किंचिदधिक   

꠰,꠰꠰,꠰꠰꠰

: संकलन में एक, दो, तीन आदि राशियाँ

o

: अगृहीत वर्गणा           

x

: मिश्र वर्गणा    

 

: उत्कृष्ट परीतासंख्या.

  

: उत्कृष्ट युक्तासंख्य.

 

: उ.संख्यातासंख्य.

Q

: संख्यात        

∂

: असंख्यात     

 

: सागर की अर्धच्छेद रा.

: जगश्रेणी की अर्धच्छेद रा.

: जगत्प्रतर की अर्धच्छेद रा.

         

: उत्कृष्ट युक्तानंत     

        

: साधिक जघन्य         

व21‒  

: सूच्यंगुल की वर्गशलाका        

 

: जगत्प्रतर की वर्गशलाका      

—

: जगश्रेणी        

=

: जगत्प्रतर     

: घनलोक        

: रज्जू 

: रज्जू प्रतर    

: रज्जू घन

: घनलोक की अर्धच्छेद

∂12–

: किंचिदून द्वयर्ध गुणहानि गुणित समयप्रबद्ध  

2ǫ

: अंतर्मुहूर्त, संख्यात आवली

    1. कर्मों की स्थिति व अनुभाग की अपेक्षा सहनानियाँ
      ( लब्धिसार की अर्थ संदृष्टि)
      । : अचलावली या आबाधा काल
      : क्रमिक हानिगत निषेक, उदयावली, उच्छिष्टावली
      कर्म स्थिति (आबाधावली के ऊपर निषेक रचना) आबाधा काल+उदयावली+उपरितन स्थिति+उच्छिष्टावली
      अनुभाग विषै अविभागीप्रतिच्छेदनिके प्रमाण की समानता लिये एक एक वर्ग वर्गणा विषै पाइये तिस वर्गणा की संदृष्टि वर्गनि का प्रमाण वर्गणाविषै क्रमतै हानिरूप होय।
      कर्मानुभाग


पूर्व पृष्ठ

अगला पृष्ठ

Retrieved from "http://www.jainkosh.org/w/index.php?title=गणित_I.4&oldid=93688"
Categories:
  • ग
  • करणानुयोग
JainKosh

जैनकोष याने जैन आगम का डिजिटल ख़जाना ।

यहाँ जैन धर्म के आगम, नोट्स, शब्दकोष, ऑडियो, विडियो, पाठ, स्तोत्र, भक्तियाँ आदि सब कुछ डिजिटली उपलब्ध हैं |

Quick Links

  • Home
  • Dictionary
  • Literature
  • Kaavya Kosh
  • Study Material
  • Audio
  • Video
  • Online Classes
  • Games

Other Links

  • This page was last edited on 23 August 2022, at 16:46.
  • Privacy policy
  • About जैनकोष
  • Disclaimers
© Copyright Jainkosh. All Rights Reserved
Powered by MediaWiki