ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 15
From जैनकोष
पंचदशं पर्व
अनंतर पूर्ण यौवन अवस्था होने पर भगवान् का शरीर बहुत ही मनोहर हो गया था सो ठीक है क्योंकि चंद्रमा स्वभाव से ही सुंदर होता है यदि शरद्ऋतु का आगमन हो जाये तो फिर कहना ही क्या है ।।1।। उनका रूप बहुत ही सुंदर और असाधारण हो गया था, वह तपाये हुए सुवर्ण के समान कांति वाला था, पसीना से रहित था, धूलि और मल से रहित था, दूध के समान सफेद रुधिर, समचतुरस्र नामक सुंदर संस्थान और वज्रवृषभनाराचसंहनन से सहित था, सुंदरता और सुगंधि की परम सीमा धारण कर रहा था, एक हजार आठ लक्षणों से अलंकृत था, अप्रमेय था, महाशक्तिशाली था, और प्रिय तथा हितकारी वचन धारण करता था ।।2-4।। काले-काले केशों से युक्त तथा मुकुट से अलंकृत उनका शिर ऐसा सुशोभित होता था मानों नीलमणियों से मनोहर मेरु पर्वत का शिखर ही हो ।।5।। उनके मस्तक पर पड़ी हुई कल्पवृक्ष के पुष्पों की माला ऐसी अच्छी मालूम होती थी मानो हिमगिरि के शिखर को घेरकर ऊपर से पड़ी हुई आकाशगंगा ही हो ।।6।। उनके चौड़े ललालपट्ट पर की भारी शोभा ऐसी मालूम होती थी मानो सरस्वती देवी के सुंदर उपवन अथवा क्रीड़ा करने के स्थल की शोभा ही बढ़ा रही हो ।।7।। ललाटरूपी पर्वत के तट पर आश्रय लेने वाली भगवान् की दोनों भौंहरूपी लताएँ ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो कामदेवरूपी मृग को रोकने के लिए दो पाश ही बनाये हों ।।8।। काली पुतलियों से सुशोभित भगवान् के नेत्ररूपी कमलों की कांति, जिन पर भ्रमर बैठे हुए है ऐसे कमलों की पाँखुरी के समान थी ।।9।। मणियों के बने हुए कुंडलरूपी आभूषणों से उनके दोनों कान ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो चंद्रमा और सूर्य से अलंकृत आकाश के दो किनारे ही हों ।।10।। भगवान् के मुखरूपी चंद्रमा में जो कांति थी वह तीन लोक में किसी भी दूसरी जगह नहीं थी सो ठीक ही है अमृत में जो संतोष होता है वह क्या किसी दूसरी जगह दिखाई देता है ? ।11।। उनका मुख मंदहास से मनोहर था, और लाल-लाल अधर से सहित था इसलिए फेनसहित पाँखुरी से युक्त कमल की शोभा धारण कर रहा था ।।12।। भगवान् की लंबी और ऊँची नाक सरस्वती देवी के अवतरण के लिए बनायी गयी प्रणाली के समान शोभायमान हो रही थी ।।13।। उनका कंठ मनोहर रेखाएँ धारण कर रहा था । वह उनसे ऐसा मालूम होता था मानो विधाता ने मुखरूपी घर के लिए उकेर कर एक सुवर्ण का स्तंभ ही बनाया हो ।।14।। वे भगवान् अपने वक्षःस्थल पर महानायक अर्थात् बीच में लगे हुए श्रेष्ठ मणि से युक्त जिस हारयष्टि को धारण कर रहे थे वह महानायक अर्थात् श्रेष्ठ सेनापति से युक्त, गुणरूपी क्षत्रियों की सुसंगठित सेना के समान शोभायमान हो रही थी ।।15।। जिस प्रकार सुमेरु पर्वत अपने शिखर पर पड़ते हुए झरने धारण करता है उसी प्रकार भगवान् वृषभदेव अपने वक्षःस्थल पर अतिशय दैदीप्यमान इंद्रच्छद नामक हार को धारण कर रहे थे ।।16।। उस मनोहर हार से भगवान् का वक्ष:स्थल गंगा नदी के प्रवाह से युक्त हिमालय पर्वत के तट के समान शोभा को प्राप्त हो रहा था ।।17।। भगवान् का वक्षःस्थल सरोवर के समान सुंदर था । वह हार की किरणरूपी जल से भरा हुआ था और उस पर दिव्य लक्ष्मीरूपी कलहंसी चिरकाल तक क्रीड़ा करती थी ।।18।। भगवान् का वक्षःस्थल लक्ष्मी के रहने का घर था, उसके दोनों ओर ऊँचे उठे हुए उनके दोनों कंधे ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो जयलक्ष्मी के रहने की दो ऊँची अटारी ही हों ।।19।। बाजूबंद के संघट्टन से जिनके कंधे स्निग्ध हो रहे हैं और जो शोभारूपी लता से सहित हैं ऐसी जिन भुजाओं को भगवान् धारण कर रहे थे वे अभीष्टफल देने वाले कल्पवृक्षों के समान सुशोभित हो रही थीं । ।।20।। सुख देने वाले प्रकाश से युक्त तथा सीधी अँगुलियों के आश्रित भगवान् के हाथों के नखों को मैं समझता हूँ कि वे उनके महाबल आदि दस अवतारों में भोगी हुई लक्ष्मी के विलास-दर्पण ही थे ।।21।। महाराज नाभिराज के पुत्र भगवान् वृषभदेव अपने शरीर के मध्यभाग में जिस नाभि को धारण किये हुए थे वह लक्ष्मीरूपी हंसी से सेवित तथा आवर्त से सहित सरस के समान सुशोभित हो रही थी ।।22।। करधनी और वस्त्र से सहित भगवान का जघनभाग ऐसी शोभा धारण कर रहा था मानो बिजली और शरद्ऋतु के बादलों से सहित किसी पर्वत का नितंब मध्यभाग ही हो ।।23।। धीर-वीर भगवान् सुवर्ण के समान दैदीप्यमान जिन दो ऊरुओं (घुटनों से ऊपर का भाग) को धारण कर रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो लक्ष्मी देवी के झूला के दो ऊँचे स्तंभ ही हों ।।24।। कामदेवरूपी हाथी के उल्लंघन न करने योग्य अर्गलों के समान शोभायमान भगवान् की दोनों जंघाएँ इस प्रकार उत्कृष्ट कांति को प्राप्त हो रही थीं मानो लक्ष्मीदेवी ने स्वयं उबटन कर उन्हें उज्ज्वल किया हो ।।25।। भगवान् के दोनों ही चरणकमल तीनों लोकों की लक्ष्मी के आलिंगन से उत्पन्न हुए सौभाग्य के गर्व से बहुत ही शोभायमान हो रहे थे, संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं जिसके कि साथ उनकी उपमा दी जा सके ।।26।। इस प्रकार पैरों के नख के अग्रभाग से लेकर शिर के बालों के अग्रभाग तक भगवान के शरीर की कांति प्रकट हो रही थी और ऐसी मालूम होती थी मानो उसे किसी दूसरी जगह अपनी इच्छानुसार स्थान प्राप्त नहीं हुआ था इसलिए वह अनन्य गति होकर भगवान के शरीर में आ प्रकट हुई हो ।।27।। भगवान् का शरीर स्वभाव से ही सुंदर था, वज्रमय हड्डियों के बंधन से सहित था, विष शस्त्र आदि से अभेद्य था और इसीलिए वह मेरु पर्वत की कांति को प्राप्त हो रहा था ।।28।। जिस संहनन में वज्रमयी हड्डियाँ वज्रों से वेष्टित होती हैं और वज्रमयी कीलों से कीलित होती हैं, भगवान वृषभदेव का वही वज्रवृषभनाराचसंहनन था ।।29।। वात, पित्त और कफ इन तीन दोषों से उत्पन्न हुई व्याधियाँ भगवान् के शरीर में स्थान नहीं कर सकी थीं सो ठीक ही है वृक्ष अथवा अन्य पर्वतों को हिलाने वाली वायु मेरु पर्वत पर अपना असर नहीं दिखा सकती ।।30।। उनके शरीर में न कभी बुढ़ापा आता था, न कभी उन्हें खेद होता था और न कभी उनका उपघात (असमय में मृत्यु) ही हो सकता था । वे केवल सुख के अधीन होकर पृथ्वीरूपी शय्या पर पूजित होते थे ।।31।। जो महाभ्युदयरूप मोक्ष का मूल कारण था ऐसा भगवान् का परमौदारिक शरीर अत्यंत शोभायमान हो रहा था ।।32।। भगवान् के शरीर का आकार, लंबाई-चौड़ाई और ऊँचाई आदि सब ओर हीनाधिकता से रहित था, उनका समचतुरस्रसंस्थान था ।।33।।
भगवान् वृषभदेव की जैसी रूप-संपत्ति प्रसिद्ध थी वैसी ही उनकी भोगोपभोग की सामग्री भी प्रसिद्ध थी, सो ठीक ही है क्योंकि कल्पवृक्षों की उत्पत्ति आभरणों से दैदीप्यमान हुए बिना नहीं रहती ।।34।। जिस प्रकार सुमेरु पर्वत के मणिमय तट को पाकर ज्योतिषी देवों के मंडल अतिशय शोभायमान होने लगते हैं उसी प्रकार भगवान् के निर्मल शरीर को पाकर सामुद्रिक शास्त्र में कहे हुए लक्षण अतिशय शोभायमान होने लगे थे ।।35।। अथवा अनेक आभूषणों से उज्ज्वल भगवान् कल्पवृक्ष की शोभा धारण कर रहे थे और अनेक शुभ लक्षण उस पर लगे हुए फूलों के समान सुशोभित हो रहे थे ।।36।। श्रीवृक्ष, शंख, कमल, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चमर, सफेद छत्र, सिंहासन, पताका, दो मीन, दो कुंभ, कच्छप, चक्र, समुद्र, सरोवर, विमान, भवन, हाथी, मनुष्य, स्त्रियाँ, सिंह, बाण, धनुष, मेरु, इंद्र, देवगंगा, पुर, गोपुर, चंद्रमा, सूर्य, उत्तम घोड़ा, तालवृंत-पंखा, बाँसुरी, वीणा, मृदंग, मालाएँ, रेशमी वस्तु, दूकान, कुंडल को आदि लेकर चमकते हुए चित्र-विचित्र आभूषण, फलसहित उपवन, पके हुए वृक्षों से सुशोभित खेत, रत्नद्वीप, वज्र, पृथ्वी, लक्ष्मी, सरस्वती, कामधेनु, वृषभ, चूड़ामणि, महानिधियाँ, कल्पलता, सुवर्ण, जंबूद्वीप, गरुड़, नक्षत्र, तारे, राजमहल, सूर्यादिक ग्रह, सिद्धार्थ वृक्ष, आठ प्रातिहार्य, और आठ मंगलद्रव्य, इन्हें आदि लेकर एक सौ आठ लक्षण और मसूरिका आदि नौ सौ व्यंजन भगवान् के शरीर में विद्यमान थे ।।37-44।। इन मनोहर और श्रेष्ठ लक्षणों से व्याप्त हुआ भगवान का शरीर ज्योतिषी देवों से भरे हुए आकाशरूपी आँगन की तरह शोभायमान हो रहा था ।।45।। चूँकि उन लक्षणों को भगवान् का निर्मल शरीर स्पर्श करने के लिए प्राप्त हुआ था इसलिए जान पड़ता है कि उन लक्षणों के अंतर्लक्षण कुछ शुभ अवश्य थे ।।46।। रागद्वेषरहित जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव के अतिशय कठिन मनरूपी घर में लक्ष्मी जिस प्रकार―बड़ी कठिनाई से अवकाश पा सकी थी । भावार्थ―भगवान् स्वभाव से ही वीतराग थे, राज्यलक्ष्मी को प्राप्त करना अच्छा नहीं समझते थे ।।47।। भगवान् को दो स्त्रियां ही अत्यंत प्रिय थीं―एक तो सरस्वती और दूसरी कल्पांतकाल तक स्थिर रहने वाली कीर्ति । लक्ष्मी विद्युत्लता के समान चंचल होती है इसलिए भगवान् उस पर बहुत थोड़ा प्रेम रखते थे ।।48।। भगवान के रूप-लावण्य, यौवन आदि गुणरूपी पुष्पों से आकृष्ट हुए मनुष्यों के नेत्ररूपी भौंरे दूसरी जगह कहीं भी रमण नहीं करते थे―आनंद नहीं पाते थे ।।49।। किसी एक दिन महाराज नाभिराज भगवान् की यौवन अवस्था का प्रारंभ देखकर अपने मन में उनके विवाह करने की चिंता इस प्रकार करने लगे ।।50।। कि यह देव अतिशय सुंदर शरीर के धारक हैं, इनके चित्त को हरण करने वाली कौन-सी सुंदर स्त्री हो सकती है ? कदाचित् इनका चित्त हरण करने वाली सुंदर स्त्री मिल भी सकती है, परंतु इनका विषयराग अत्यंत मंद है इसलिए इनके विवाह का प्रारंभ करना ही कठिन कार्य है ।।51।। और दूसरी बात यह है कि इनका धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने में भारी उद्योग है इसलिए ये नियम से सब परिग्रह छोड़कर मत्त हस्ती की नाईं वन में प्रवेश करेंगे अर्थात् वन में जाकर दीक्षा धारण करेंगे ।।52।। तथापि तपस्या करने के लिए जब तक इनकी काललब्धि आती है तब तक इनके लिए लोकव्यवहार के अनुरोध से योग्य स्त्री का विचार करना चाहिए ।।53।। इसलिए जिस प्रकार हंसी निष्पंक अर्थात् कीचड़रहित मानस (मानसरोवर) में निवास करती है उसी प्रकार कोई योग्य और कुलीन स्त्री इनके निष्पंक अर्थात् निर्मल मानस मन में निवास करे ।।54।। यह निश्चय कर लक्ष्मीमान् महाराज नाभिराज बड़े ही आदर और हर्ष के साथ भगवान् के पास जाकर वक्ताओं में श्रेष्ठ भगवान् से शांतिपूर्वक इस प्रकार कहने लगे कि ।।55।। हे देव, मैं आप से कुछ कहना चाहता हूँ इसलिए आप सावधान होकर सुनिए । आप जगत् के अधिपति हैं इसलिए आपको जगत् का उपकार करना चाहिए ।।56।। हे देव, आप जगत् की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा हैं तथा स्वयंभू हैं अर्थात् अपने आप ही उत्पन्न हुए हैं । क्योंकि आपकी उत्पत्ति में अपने-आपको पिता मानने वाले हम लोग छल मात्र हैं ।।57।। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने में उदयाचल निमित्त मात्र है क्योंकि सूर्य स्वयं ही उदित होता है उसी प्रकार आपकी उत्पत्ति होने में हम निमित्त मात्र हैं क्योंकि आप स्वयं ही उत्पन्न हुए हैं ।।58।। आप माता के पवित्र गर्भगृह में कमलरूपी दिव्य आसन पर अपनी उत्कृष्ट शक्ति स्थापन कर उत्पन्न हुए हैं इसलिए आप वास्तव में शरीररहित हैं ।।59।। हे देव, यद्यपि मैं आपका यथार्थ में पिता नहीं हूँ, निमित्त मात्र से ही पिता कहलाता हूँ तथापि मैं आप से एक अभ्यर्थना करता हूँ आप इस समय संसार की सृष्टि की ओर भी अपनी बुद्धि लगाइए ।।60।। आप आदिपुरुष हैं इसलिए आपको देखकर अन्य लोग भी ऐसी ही प्रवृत्ति करेंगे क्योंकि जिनके उत्तम संतान होने वाली है ऐसी यह प्रजा महापुरुषों के ही मार्ग का अनुगमन करती है ।।61।। इसलिए है ज्ञानियों में श्रेष्ठ, आप इस संसार में किसी इष्ट कन्या के साथ विवाह करने के लिए मन कीजिए क्योंकि ऐसा करने से प्रजा की संतति का उच्छेद नहीं होगा ।।62।। प्रजा की संतति का उच्छेद नहीं होने पर धर्म की संतति बढ़ती रहेगी इसलिए हे देव, मनुष्यों के इस अविनाशीक विवाहरूपी धर्म को अवश्य ही स्वीकार कीजिए ।।63।। दे देव, आप इस विवाह कार्य को गृहस्थों का एक धर्म समझिए क्योंकि गृहस्थों को संतान की रक्षा में प्रयत्न अवश्य ही करना चाहिए ।।64।। यदि आप मुझे किसी भी तरह गुरु मानते हैं तो आपको मेरे वचनों का किसी भी कारण से उल्लंघन नहीं करना चाहिए क्योंकि गुरुओं के वचनों का उल्लंघन करना इष्ट नहीं है ।।65।। इस प्रकार वचन कहकर धीर-वीर महाराज नाभिराज चुप हो रहे और भगवान् ने हँसते हुए ओम कहकर उनके वचन स्वीकार कर लिये अर्थात् विवाह कराना स्वीकृत कर लिया ।।66।। इंद्रियों को वश में करने वाले भगवान ने जो विवाह कराने की स्वीकृति दी थी वह क्या उनके पिता की चतुराई थी, अथवा प्रजा का उपकार करने की इच्छा थी अथवा वैसा कोई कर्मों का नियोग ही था ।।67।। तदनंतर भगवान की अनुमति जानकर नाभिराज ने निःशंक होकर बड़े हर्ष के साथ विवाह का बड़ा भारी उत्सव किया ।।68।। महाराज नाभिराज ने इंद्र की अनुमति से सुशील, सुंदर लक्षणों वाली, सती और मनोहर आकार वाली ही कन्या की याचना की ।।69।। वे दोनों कन्याएँ कच्छ महाकच्छ की बहनें थीं, बड़ी ही शांत और यौवनवती थीं; यशस्वी और सुनंदा उनका नाम था । उन्हीं दोनों कन्याओं के साथ नाभिराज ने भगवान् का विवाह कर दिया ।।70।। श्रेष्ठ गुणों को धारण करने वाले भगवान् वृषभदेव विवाह कर रहे हैं इस हर्ष से देवों ने प्रसन्न होकर अनेक उत्तम-उत्तम उत्सव किये थे ।।71। महाराज नाभिराज अपने परिवार के लोगों के साथ, दोनों पुत्रवधुओं को देखकर भारी संतुष्ट हुए सो ठीक ही है क्योंकि संसारी जनों को विवाह आदि लौकिक धर्म ही प्रिय होता है ।।72।। भगवान् वृषभदेव के विवाहोत्सव में मरुदेवी बहुत ही संतुष्ट हुई थी सो ठीक ही है, पुत्र के विवाहोत्सव में स्त्रियों को अधिक प्रेम होता ही है ।।73।। जिस प्रकार चंद्रमा की कला से लहरों की माला से भरी हुई समुद्र की बेला बढ़ने लगती है उसी प्रकार भाग्योदय से प्राप्त होने वाली पुत्र की विवाहोत्सवरूप संपदा से मरुदेवी बढ़ने लगी थीं ।।74।। भगवान् के विवाहोत्सव में सभी लोग आनंद को प्राप्त हुए थे सो ठीक ही है । मनुष्य स्वयं ही भोगों की तृष्णा रखते हैं इसलिए वे स्वामी को भोग स्वीकार करते देखकर उन्हीं का अनुसरण करने लगते हैं ।।75।। भगवान् का वह विवाहोत्सव केवल मनुष्यलोक की प्रीति के लिए ही नहीं हुआ था, किंतु उसने स्वर्गलोक में भी भारी प्रीति को विस्तृत किया था ।।76।। भगवान् वृषभदेव की दोनों महादेवियाँ उत्कृष्ट ऊरुओं, सुंदर जंघाओं और कोमल चरण-कमलों से सहित थीं । यद्यपि उनका सुंदर कटिभाग अधर अर्थात नीचा था (पक्ष में नाभि से नीचे रहने वाला था) तथापि उससे संयुक्त शरीर के द्वारा उन्होंने समस्त संसार को जीत लिया था ।।77।। वे दोनों ही देवियाँ अत्यंत सुंदर थीं, उनका उदर कृश था और उस कृश उदर पर वे जिस पतली रोम-राजि को धारण कर रही थी वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कामदेवरूपी मदोन्मत्त हाथी के मद की अग्रधारा ही हो ।।78।। वे देवियाँ जिस नाभि को धारण कर रही थी वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कामरूपी रस की कूपिका ही हो अथवा रोमराजिरूपी लता के मूल में चारों ओर से बँधी हुई पाल ही हो ।।79।। जिस प्रकार कमलिनी कमलपुष्प की बोड़ियों को धारण करती है उसी प्रकार वे देवियाँ स्तनरूपी कमल की बोड़ियों को धारण कर रही थीं, कमलिनियों के कमल जिस प्रकार एक नाल से सहित होते हैं उसी प्रकार उनके स्तनरूपी कमल भी रोमराजिरूपी एक नाल से सहित थे और कमलों पर जिस प्रकार भौंरे बैठते हैं उसी प्रकार उनके स्तनरूपी कमलों पर भी चूचुकरूपी भौंरे बैठे हुए थे । इस प्रकार वे दोनों ही देवियाँ ठीक कमलिनियों के समान सुशोभित हो रही थीं ।।80।। उनके गले में जो मुक्ताहार अर्थात् मोतियों के हार पड़े हुए थे, मालूम होता है कि उन्होंने अवश्य ही अपने नाम के अनुसार (मुक्त+आहार) आहार-त्याग अर्थात् उपवासरूप तप तपा था और इसीलिए उन मुक्ताहारों ने अपने उक्त तप के फलस्वरूप उन देवियों के कंठ और कुच के स्पर्श से उत्पन्न हुए सुखरूपी अमृत को प्राप्त किया था ।।81।।
गले में पड़े हुए एकावली अर्थात् एकल के हार से वे दोनों ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो किसी सखी के संबंध से ही शोभायमान हो रही हों; क्योंकि जिस प्रकार सखी स्तनों के समीपवर्ती भाग का स्पर्श करती है उसी प्रकार वह एकावली भी उनके स्तनों के समीपवर्ती भाग का स्पर्श कर रही थी, सखी जिस प्रकार कंठ से संसर्ग रखती है अर्थात् कंठालिंगन करती है उसी प्रकार वह एकावली भी उनके कंठ से संसर्ग रखती थी अर्थात् कंठ में पड़ी हुई थी, सखी जिस प्रकार स्वच्छ अर्थात् कपटरहित―निर्मल हृदय होती है उसी प्रकार वह एकावली भी स्वच्छ―निर्मल थी और सखी जिस प्रकार स्निग्धमुक्ता होती है अर्थात् स्नेही पति के द्वारा छोड़ी―भेजी जाती हैं, उसी प्रकार वह एकावली भी स्निग्धमुक्ता थी अर्थात् चिकने मोतियों से सहित थी ।।82।। वे देवियाँ अपने स्तनों के बीच में लटकते हुए जिस नक्षत्रमाला अर्थात् सत्ताईस मोतियों के हार को धारण किये हुई थीं वह अपनी किरणों से ऐसा मालूम होता था मानो स्तनों का स्पर्श कर आनंद से हँस ही रहा हो ।।83।। वे देवियाँ नखों की किरणोंरूपी पुष्पों के विकास से हास्य की शोभा को धारण करने वाली कोमल, सुंदर और सुसंगठित भुजलताओं को धारण कर रही थीं ।।84।। उन दोनों के मुखरूपी चंद्रमा भारी कांति को धारण कर रहे थे, वे अपने सुंदर मंद हास्य की किरणों के द्वारा चाँदनी की शोभा बढ़ा रहे थे, और देखने में संसार को बहुत ही सुंदर जान पड़ते थे ।।85।। उत्तम बरौनी और चिकनी अथवा स्नेहयुक्त तारों से सहित उनके नेत्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनके केश पर भ्रमर आ लगे हैं ऐसे फूले हुए कमल ही हों ।।86।। सुंदर भौंहों वाली उन देवियों की दोनों भौंहें नामकर्म के द्वारा इतनी सुंदर बनी थीं कि कामदेव की धनुषलता भी उनकी बराबरी नहीं कर सकती थीं ।।87।। उन महादेवियों के कान नीलकमलरूपी कर्ण-भूषणों से ऐसी शोभा धारण कर रहें थे मानो नेत्ररूपी कमलों की अतिशय लंबाई को परस्पर में नापना ही चाहते थे ।।88।। वे देवियाँ अपने ललाट-तट पर लटकते हुए जिन अलकों को धारण कर रही थीं वे सुवर्णपट्टक के किनारे पर जड़े हुए इंद्रनील मणियों के समान अत्यंत सुशोभित हो रहे थे ।।89।। जिन पर की पुष्प मालाएँ ढीली होकर नीचे की ओर लटक रही थीं ऐसे उन देवियों के केशपाशों के विषय में लोग ऐसी उत्प्रेक्षा करते थे कि मानो कोई काले साँप सफेद साँप को निगलकर फिर से उगल रहे हों ।।90।। इस प्रकार स्वभाव से मधुर और आभूषणों से उज्जवल आकृति को धारण करने वाली वे देवियाँ कांतिमती कल्पलताओं की शोभा धारण कर रही थीं ।।91।। इन दोनों के उस सुंदर रूप को देखकर लोगों की यही बुद्धि होती थी कि वास्तव में इन्होंने अपने आपको स्त्री मानने वाली देवांगनाओं को जीत लिया है ।।92।। वरों में उत्तम भगवान् वृषभदेव उन देवियों से ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो कीर्ति और लक्ष्मी से ही शोभायमान हो रहे हों और वे दोनों भगवान् से इस प्रकार मिली थीं जिस प्रकार की महानदियां समुद्र से मिलती हैं ।।93।। वे देवियाँ बड़ी ही रूपवती थीं, कांतिमती थी, सुंदर थीं और समस्त जगत् को जीतने की इच्छा करने वाले कामदेव की पताका के समान थीं और इसीलिए ही उन्होंने भगवान् वृषभदेव का मन हरण कर लिया था ।।94।। जिस प्रकार बीच में लगा हुआ कांतिमां पद्मरागमणि हारयष्टियों के मध्यभाग को अनुरंजित अर्थात् लाल वर्ण कर देता है उसी प्रकार उत्कृष्ट कांति या इच्छा से युक्त भगवान् वृषभदेव ने भी उन देवियों के मन को अनुरंजित―प्रसन्न कर दिया था ।।95।। यद्यपि कामदेव भगवान् वृषभदेव के सामने अनेक बार अपमानित हो चुका था तथापि वह गुप्त रूप से अपना संचार करता ही रहता था । विद्वानों को इसका कारण स्वयं विचार लेना चाहिए ।।96।। मालूम होता है कि कामदेव स्पष्टरूप से भगवान् को बाधा देने के लिए समर्थ नहीं था इसलिए वह उस समय शरीररहित अवस्था को प्राप्त हो गया था सो ठीक ही है क्योंकि विजय की इच्छा करने वाले पुरुष अनेक उपायों से सहित होते हैं―कोई-न-कोई उपाय अवश्य करते हैं ।।97।। अथवा कामदेव शरीररहित होने के कारण इन देवियों के शरीर में प्रविष्ट हो गया था और वहाँ किले के समान स्थित होकर अपने बाणों के द्वारा भगवान् को घायल करता था ।।98।। इस प्रकार उन देवियों के साथ भोगों को भोगते हुए जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव का बड़ा भारी समय निरंतर होने वाले उत्सवों से क्षण-भर के समान बीत गया था ।।99।।
अथानंतर किसी समय यशस्वती महादेवी राजमहल में सो रही थी । सोते समय उसने स्वप्न में ग्रसी हुई पृथ्वी, सुमेरु पर्वत, चंद्रमासहित सूर्य, हंससहित सरोवर तथा चंचल लहरों वाला समुद्र देखा, स्वप्न देखने के बाद मंगल-पाठ पढ़ते हुए बंदीजनों के शब्द सुनकर वह जाग पड़ी ।।100-101।। उस समय बंदीजन इस प्रकार मंगल-पाठ पढ़ रहे थे कि हे दूसरों का कल्याण करने वाली और स्वयं सैकड़ों कल्याणों को प्राप्त होने वाली देवि, अब तू जाग; क्योंकि तू कमलिनी के समान शोभा धारण करने वाली है―इसलिए यह तेरा जागने का समय है । भावार्थ―जिस प्रकार यह समय कमलिनी के जागृत―विकसित होने का हैं उसी प्रकार तुम्हारे जागृत होने का भी है ।।102।। हे मात, पृथ्वी, मेरु, समुद्र, सूर्य, चंद्रमा और सरोवर आदि जो अनेक मंगल करने वाले शुभ स्वप्न देखे हैं वे तुम्हारे उरानंद के लिए हों ।।103।। हे देवि, यह चंद्रमारूपी हंस चिरकाल तक आकाशरूपी सरोवर में अंधकाररूपी शैवाल को खोजकर अब खेदखिन्न होने से ही मानो अस्ताचलरूपी वृक्ष का आश्रय ले रहा है अर्थात् अस्त हो रहा है ।।104।। ये तारारूपी हंसियां आकाशरूपी सरोवर में चिरकाल तक तैरकर अब मानो निवास करने के लिए ही अस्ताचल के शिखरों का आश्रय ले रही हैं―अस्त हो रही हैं ।।105।। हे देवि, यह चंद्रमा कांतिरहित हो गया है, ऐसा मालूम होता है कि रात्रि के समय चकवियों ने निद्रा के कारण लाल वर्ण हुए नेत्रों से इसे ईर्ष्या के साथ देखा है इसलिए मानो उनकी दृष्टि के दोष से ही दूषित होकर यह कांतिरहित हो गया है ।।106।। हे देवि, अब यह रात्रि भी अपने नक्षत्ररूपी वन को चाँदनीरूपी वस्त्र में लपेटकर भागी जा रही है, ऐसा मालूम होता है मानो वह आगे गये हुए (बीते हुए) प्रहरों के पीछे ही जाना चाहती हो ।।107।। इस ओर यह चंद्रमा अस्त हो रहा है और इस ओर सूर्य का उदय हो रहा है, ऐसा जान पड़ता है मानो ये संसार की विचित्रता का उपदेश देने के लिए ही उद्यत हुए हों ।।108।। हे देवि, आकाशरूपी समुद्र में मोतियों के समान शोभायमान रहनेवाले ये तारे सूर्यरूपी बड़वानल के द्वारा कांतिरहित होकर विलीन होते जा रहे हैं ।।109।। रात-भर विरह से व्याकुल हुआ यह चकवा नदी के बालू के टीले पर स्थित होकर रोता-रोता ही अपनी प्यारी सी चकवी को ढूँढ रहा है ।।110।। हे सति, इधर यह जवान हंस चोंच में दबाये हुए मृणाल-खंड से शरीर को खुजलाता हुआ हंसी के साथ शयन करना चाहता है ।।111।। हे देवि, इधर यह कमलिनी अपने विकसित कमलरूपी मुख को धारण कर रही है और इधर यह कुमुदिनी मुरझाकर नम्रमुख हो रही है अर्थात् मुरझाये हुए कुमुद को नीचा कर रही हैं ।।112।। इधर तालाब के किनारों पर ये कुरर पक्षियों की स्त्रियाँ तुम्हारे नूपुर के समान उच्च और मधुर शब्द कर रही हैं ।।113।। इस समय ये पक्षी कोलाहल करते हुए अपने-अपने घोंसलों से उड़ रहे हैं और ऐसे जान पड़ते हैं मानो प्रात:काल का मंगल-पाठ ही पढ़ रहे हों ।।114।। इधर प्रातःकाल का समय पाकर ये दीपक कंचुकियों (राजाओं के अंतःपुर में रहने वाले वृद्ध या नपुंसक पहरेदारों) के साथ-साथ ही मंदता को प्राप्त हो रहे हैं क्योंकि जिस प्रकार कंचुकी स्त्रियों के संस्कार से रहित होते हैं उसी प्रकार दीपक भी प्रातःकाल होने पर स्त्रियों के द्वारा की हुई सजावट से रहित हो रहे हैं और कंचुकी जिस प्रकार परिक्षीण दशा अर्थात् वृद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार दीपक भी परिक्षीण दशा अर्थात् क्षीण बत्ती वाले हो रहे हैं ।।115।। हे देवि, इधर तुम्हारे घर में तुम्हारा मंगल करने की इच्छा से यह कुब्जक तथा वामन आदि का परिवार तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है ।।116।। इसलिए जिस प्रकार मानसरोवर पर रहने वाली, राजहंस पक्षी की प्रिय वल्लभा―हंसी नदी का किनारा छोड़ देती है उसी प्रकार भगवान् वृषभदेव के मन में रहने वाली और उनकी प्रिय वल्लभा तू भी शय्या छोड़ ।।117।। इस प्रकार जब बंदीजनों के समूह जोर-जोर मंगल-पाठ पढ़ रहे थे तब वह यशस्वती महादेवी जगाने वाले दुंदुभियों के शब्दों से धीरे-धीरे निद्रारहित हुई―जाग उठी ।।118।। और शय्या छोड़कर प्रातःकाल का मंगलस्नान कर प्रीति से रोमांचित शरीर हो अपने देखे हुए स्वप्नों का यथार्थ फल पूछने के लिए संसार के प्राणियों के हृदयवर्ती अंधकार को दूर करने वाले अतिशय प्रकाशमान और सबके स्वामी भगवान् वृषभदेव के समीप उस प्रकार पहुंची जिस प्रकार कमलिनी संसार के मध्यवर्ती अंधकार को नष्ट करने वाले और अतिशय प्रकाशमान सूर्य के सम्मुख पहुंचती है ।।119-120।। भगवान् के समीप जाकर वह महादेवी अपने योग्य सिंहासन पर सुखपूर्वक बैठ गयी । उस समय महादेवी साक्षात् लक्ष्मी के समान सुशोभित हो रही थी ।।121।। तदनंतर उसने रात्रि के समय देखे हुए समस्त स्वप्न भगवान् से निवेदन किये और अवधि-ज्ञानरूपी दिव्य नेत्र धारण करने वाले भगवान् ने भी नीचे लिखे अनुसार उन स्वप्नों का फल कहा कि ।।122।। हे देवि, स्वप्नों में जो तूने सुमेरु पर्वत देखा है उससे मालूम होता है कि तेरे चक्रवर्ती पुत्र होगा । सूर्य उसके प्रताप को और चंद्रमा उसकी कांतिरूपी संपदा को सूचित कर रहा है ।।123।। हे कमलनयने, सरोवर के देखने से तेरा पुत्र अनेक पवित्र लक्षणों से चिह्नित शरीर होकर अपने विस्तृत वक्षःस्थल पर कमलवासिनी―लक्ष्मी को धारण करने वाला होगा ।।124।। हे देवि, पृथ्वी का ग्रसा जाना देखने से मालूम होता है कि तुम्हारा वह पुत्र चक्रवर्ती होकर समुद्ररूपी वस्त्र को धारण करने वाली समस्त पृथ्वी का पालन करेगा ।।125।। और समुद्र देखने से प्रकट होता है कि वह चरमशरीरी होकर संसाररूपी समुद्र को पार करने वाला होगा । इसके सिवाय इक्ष्वाकु-वंश को आनंद देने वाला वह पुत्र तेरे सौ पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ पुत्र होगा ।।126।। इस प्रकार पति के वचन सुनकर उस समय वह देवी हर्ष के उदय से ऐसी वृद्धि को प्राप्त हुई थी जैसी कि चंद्रमा का उदय होनेपर समुद्र की बेला वृद्धि को प्राप्त होती है ।।127।।
तदनंतर राजा अतिगृद्ध का जीव जो पहले व्याघ्र था, फिर देव हुआ, फिर सुबाहु हुआ और फिर सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हुआ था, वहाँ से च्युत होकर यशस्वती महादेवी के गर्भ में आकर निवास करने लगा ।।128।। वह देवी भगवान् वृषभदेव के दिव्य प्रभाव से उत्पन्न हुए गर्भ को धारण कर रही थी । यही कारण था कि वह अपने ऊपर आकाश में चलते हुए सूर्य को भी सहन नहीं करती थी ।।129।। वीर पुत्र को पैदा करने वाली वह देवी अपने मुख की कांति तलवाररूपी दर्पण में देखती थी और अतिशय मान करने वाली वह उस तलवार में पड़ती हुई अपनी प्रतिकूल छाया को भी नहीं सहन कर सकती थी ।।130।। जिस प्रकार वर्षा का समय आने पर मयूर जल से भरी हुई मेघमाला को बड़ी ही उत्सुक दृष्टि से देखते हैं उसी प्रकार भगवान् वृषभदेव भी उस गर्भिणी यशस्वती देवी को बड़ी ही उत्सुक दृष्टि से देखते थे ।।131।। वह यशस्वती देवी, जिसके गर्भ में रत्न भरे हुए हैं ऐसी भूमि के समान, जिसके मध्य में फल लगे हुए हैं ऐसी बेल के समान, अथवा जिसके मध्य में सूर्यरूपी तेज छिपा हुआ है ऐसी पूर्व दिशा के समान अत्यंत शोभा को प्राप्त हो रही थी ।।132।। वह रत्नखचित पृथ्वी पर हंसी की तरह नुपूरों के उदार शब्दों से मनोहर शब्द करती हुई मंद-मंद गमन करती थी ।।133।। मणियों से जड़ी हुई जमीन पर स्थिरतापूर्वक पैर रखकर मंदगति से चलती हुई वह यशस्वती ऐसी जान पड़ती थी मानो पृथ्वी हमारे ही भोग के लिए है ऐसा मानकर उस पर मुहर ही लगाती जाती थी ।।134।। उसके उदर पर गर्भावस्था से पहले की तरह ही गर्भावस्था में भी वलीभंग अर्थात् नाभि से नीचे पड़ने वाली रेखाओं का भंग नहीं दिखाई देता था और उससे मानो यही सूचित होता था कि उसका पुत्र अभंग नाशरहित दिग्विजय प्राप्त करेगा (यद्यपि स्त्रियों के गर्भावस्था में उदर की वृद्धि होने से वलीभंग हो जाता है परंतु विशिष्ट स्त्री होने के कारण यशस्वती के वह चिह्न प्रकट नहीं हुआ था) ।।135।। गर्भधारण करने पर उसके स्तनों का अग्रभाग काला हो गया था और उससे यही सूचित होता था कि उसके गर्भ में स्थित रहने वाला बालक अन्य-शत्रुओं की उन्नति को अवश्य ही जला देगा―नष्ट कर देगा ।।136।। परम उत्कृष्ट दोहला उत्पन्न होना, आहार में रुचि का मंद पड़ जाना, आलस्यसहित गमन करना, शरीर को शिथिल कर जमीन पर सोना, मुख का गालों तक कुछ-कुछ सफेद हो जाना, आलस-भरे नेत्रों से देखना, अधरों का कुछ सफेद और लाल होना और मुख से मिट्टी-जैसी सुगंध आना । इस प्रकार यशस्वती के गर्भ के सब चिह्न भगवान् वृषभदेव के मन को अत्यंत प्रसन्न करते थे और शत्रुओं की शक्तियों को शीघ्र ही विजय करता हुआ वह गर्भ धीरे-धीरे बढ़ता जाता था ।।137-139।। जिसका मंडल दैदीप्यमान तेज से परिपूर्ण है और जिसका उदय बहुत ही बड़ा है ऐसे सूर्य को जिस प्रकार पूर्व दिशा उत्पन्न करती है उसी प्रकार नौ महीने व्यतीत होने पर उस यशस्वती महादेवी ने दैदीप्यमान तेज से परिपूर्ण और महापुण्यशाली पुत्र को उत्पन्न किया ।।140।। भगवान् वृषभदेव के जन्म समय में जो शुभ दिन, शुभ लग्न, शुभ योग, शुभ चंद्रमा और शुभ नक्षत्र आदि पड़े थे वे ही शुभ दिन आदि उस समय भी पड़े थे, अर्थात् उस समय, चैत्र कृष्ण नवमी का दिन, मीन लग्न, ब्रह्मयोग, धन राशि का चंद्रमा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र था । उसी दिन यशस्वती महादेवी ने सम्राट के शुभ लक्षणों से शोभायमान ज्येष्ठ पुत्र उत्पन्न किया था ।।141।। वह पुत्र अपनी दोनों भुजाओं से पृथ्वी का आलिंगन कर उत्पन्न हुआ था इसलिए निमित्त ज्ञानियों ने कहा था कि वह समस्त पृथ्वी का अधिपति―अर्थात् चक्रवर्ती होगा ।।142।। वह पुत्र चंद्रमा के समान सौम्य था इसलिए माता―यशस्वती उस पुत्ररूपी चंद्रमा से रात्रि के समान सुशोभित हुई थी, इसके सिवाय वह पुत्र प्रातःकाल के सूर्य के समान तेजस्वी था इसलिए पिता―भगवान् वृषभ उस बालकरूपी सूर्य से दिन के समान दैदीप्यमान हुए थे ।।143।। जिस प्रकार चंद्रमा का उदय होने पर अपनी वेलासहित समुद्र हर्ष को प्राप्त होता है उसी प्रकार पुत्र का जन्म होने पर उसके दादा और दादी अर्थात् महारानी मरुदेवी और महाराज नाभिराज दोनों ही परम हर्ष को प्राप्त हुए थे ।।144।। उस समय अधिक हर्षित हुई पतिपुत्रवती स्त्रियाँ ‘तू इसी प्रकार सैकड़ों पुत्र उत्पन्न कर’ इस प्रकार के पवित्र आशीर्वादों से उस यशस्वती देवी को बढ़ा रही थीं ।।145।। उस समय राजमंदिर में करोड़ों दंडों से ताड़ित हुए आनंद के बड़े-बड़े नगाड़े गरजते हुए मेघों के समान गंभीर शब्द कर रहे थे ।।146।। तुरही, दुंदुभि, झल्लरी, शहनाई, सितार, शंख, काहल और ताल आदि अनेक बाजे उस समय मानो हर्ष से ही शब्द कर रहे थे―बज रहे थे ।।147।। उस समय सुगंधित, विकसित, भ्रमण करते हुए भौंरों से सेवित और देवों के हाथ से छोड़ा हुआ फूलों का समूह आकाश से पड़ रहा था―बरस रहा था ।।148।। कल्पवृक्ष के पुष्पों के भारी पराग से भरा हुआ, धूलि को दूर करने वाला और जल के छींटों से शीतल हुआ सुकोमल वायु मंद-मंद बह रहा था ।।149।। उस समय आकाश में जय-जय इस प्रकार की देवों की वाणी बढ़ रही थी और देवियों के ‘चिरंजीव रहो’ इस प्रकार के शब्द समस्त दिशाओं में अतिशय रूप से विस्तार को प्राप्त हो रहे थे ।।150।। जिन्होंने अपने सौंदर्य से अप्सराओं को जीत लिया है और जिन्होंने अपनी नृत्यकला से देवों की नर्तकियों को अनायास ही पराजित कर दिया है ऐसी नृत्य करने वाली स्त्रियाँ बढ़ते हुए ताल के साथ नृत्य तथा संगीत प्रारंभ कर रही थी ।।151।। उस समय चंदन के जल से सींची गयी नगर की गलियाँ ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो अपनी सजावट के द्वारा स्वर्ग की शोभा की हंसी ही कर रही हो ।।152।। उस समय आकाश में इंद्रधनुष और बिजलीरूपी लता की सुंदरता को धारण करते हुए रत्ननिर्मित तोरणों की सुंदर रचनाएँ घर-घर शोभायमान हो रही थीं ।।153।। जहाँ रत्नों के चूर्ण से अनेक प्रकार के वेलबूटों की रचना की गयी है ऐसी भूमि पर बड़े-बड़े उदर वाले अनेक सुवर्णकलश रखे हुए थे । उन कलशों के मुख सुवर्ण कमलों से ढके हुए थे इसलिए वे बहुत ही शोभायमान हो रहे थे ।।154।। जिस प्रकार समुद्र की वृद्धि होने से उसके किनारे की नदी भी वृद्धि को प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार राजा के घर उत्सव होने से वह समस्त अयोध्यानगरी उत्सव से सहित हो रही थी ।।155।। उस समय भगवान् वृषभदेवरूपी हाथी समुद्र के जल के समान भारी दान की धारा (सुवर्ण आदि वस्तुओं के दान की परंपरा, पक्ष में―मदजल की धारा) बरसा रहे थे इसलिए वहाँ कोई भी दरिद्र नही रहा था ।।156।। इस प्रकार अंतःपुरसहित समस्त नगर में परम आनंद को उत्पन्न करता हुआ वह बालकरूपी चंद्रमा भगवान वृषभदेवरूपी उदयाचल से उदय हुआ था ।।157।। उस समय प्रेम से भरे हुए बंधुओं के समूह ने बड़े भारी हर्ष से, समस्त भरतक्षेत्र के अधिपति होने वाले उस पुत्र को भरत इस नाम से पुकारा था ।।158।। इतिहास के जानने वालों का कहना है कि जहाँ अनेक आर्य पुरुष रहते हैं ऐसा यह हिमवत् पर्वत से लेकर समुद्र पर्यंत का चक्रवर्तियों का क्षेत्र उसी ‘भरत’ पुत्र के नाम के कारण भारतवर्ष रूप से प्रसिद्ध हुआ है ।।159।। वह बालकरूपी चंद्रमा भाई-बंधुरूपी कुमुदों के समूह में आनंद को बढ़ाता हुआ और शत्रुओं के कुलरूपी अंधकार को नष्ट करता हुआ बढ़ रहा था ।।160।। माता यशस्वती के स्तन का पान करता हुआ वह भरत जब कभी दूध के कुरले को बार-बार उगलता था तब वह ऐसा दैदीप्यमान होता था मानो अपना यश ही दिशाओं में बाँट रहा हो ।।161।। वह बालक मंद मुसकान, मनोहर हास, मणिमयी भूमि पर चलना और अव्यक्त मधुर भाषण आदि लीलाओं से माता-पिता के परम हर्ष को उत्पन्न करता था ।।162।। जैसे-जैसे वह बालक बढ़ता जाता था वैसे-वैसे ही उसके साथ-साथ उत्पन्न हुए―स्वाभाविक गुण भी बढ़ते जाते थे, ऐसा मालूम होता था मानो वे गुण उसकी सुंदरता पर मोहित होने के कारण ही उसके साथ-साथ बढ़ रहे थे ।।163।। विधि को जानने वाले भगवान् वृषभदेव ने अनुक्रम से, अपने उस पुत्र के अन्नप्राशन (पहली वार अन्न खिलाना), चौल (मुंडन) और उपनयन (यज्ञोपवीत) आदि संस्कार स्वयं किये थे ।।164।। तदनंतर उस भरत ने क्रम-क्रम से होने वाली बालक और कुमार अवस्था के बीच के अनेक भेद व्यतीत कर नेत्रों को आनंद देने वाली युवावस्था प्राप्त
की ।।165।। इस भरत का अपने पिता भगवान् वृषभदेव के समान ही गमन था, उन्हीं के समान तीनों लोको का उल्लंघन करने वाला दैदीप्यमान शरीर था और उन्हीं के समान मंद हास्य था ।।166।। इस भरत की वाणी, कला, विद्या, द्युति, शील और विज्ञान आदि सब कुछ वही थे जो कि उसके पिता भगवान् वृषभदेव के थे ।।167।। इस प्रकार पिता के साथ तन्मयता को प्राप्त हुए भरत-पुत्र को देखकर उस समय प्रजा कहा करती थी कि पिता का आत्मा ही पुत्र नाम से कहा जाता है [आत्मा वै पुत्रनामासीद्] यह बात बिल्कुल सच है ।।168।। स्वयं पिता के द्वारा जिसके रूपादि गुणों की प्रशंसा की गयी है, जो साक्षात् कामदेव के समान है ऐसा वह भरत अपने मनोहर गुणों के द्वारा सज्जन पुरुषों को बहुत ही मान्य हुआ था ।।169।। वह भरत पंद्रहवें मनु भगवान् वृषभनाथ के मन को भी अपने प्रेम के अधीन कर लेता था इसलिए लोग कहा करते थे कि यह सोलहवाँ मनु ही उत्पन्न हुआ है और वह कामदेव के समान सुंदर आकार वाला था इसलिए समस्त प्रजा के मन में निवास किया करता था ।।170।। उसका शरीर कभी नष्ट नहीं होने वाली विजयलक्ष्मी से सदा दैदीप्यमान रहता था इसलिए ऐसा सुशोभित होता था मानो किसी एक जगह इकट्ठा किया हुआ क्षत्रियों का तेज ही हो ।।171।। ‘यह कोई अलौकिक पुरुष है’ [‘मनुष्य रूपधारी देव है’] इस बात को प्रकट करता हुआ भरत का बलिष्ठ शरीर ऐसा शोभायमान होता था मानो वह तेजरूप परमाणुओं से ही बना हुआ हो ।।172।। अत्यंत ऊँचे मुकुट में लगे हुए रत्नों की किरणों से शोभायमान उसका मस्तक चूलिका सहित मेरुपर्वत के शिखर के समान अतिशय शोभायमान होता था ।।173।। क्रम-क्रम से ऊँचा होता हुआ उसका गोल शिर ऐसा अच्छा शोभायमान होता था मानो विधाता ने [वक्षःस्थल पर रहने वाली] लक्ष्मी के लिए छत्र ही बनाया हो ।।174।। कुछ-कुछ टेढ़े, स्निग्ध, काले और एक साथ उत्पन्न हुए केशों से शोभायमान उसका मस्तक ऐसा जान पड़ता था मानो उस पर इंद्रनीलमणि की बनी हुई टोपी ही रखी हो ।।175।। भरत अपने मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को बहुत ही सरल रखता था इसलिए जान पड़ता था कि उनकी कुटिलता उसके भ्रमर के समान काले केशों के अंत भाग में ही जाकर रहने लगी ।।176।। दांतों की किरणोंरूपी केशर से सहित और सुगंधित श्वासोच्छवास के पवन-द्वारा भ्रमरों का आह्वान करने वाला उसका प्रफुलित मुखकमल बहुत ही शोभायमान होता था ।।177।। अथवा उसका मुख पूर्ण चंद्रमंडल की शोभा धारण कर रहा था क्योंकि जिस प्रकार पूर्ण चंद्रमंडल के देखने से सुख होता है उसी प्रकार उसका मुख देखने से भी सबको सुख होता था जिस प्रकार पूर्ण चंद्रमंडल अखंड गोलाई से सहित होता है उसी प्रकार उसका मुख भी अखंड गोलाई से सहित था और जिस प्रकार पूर्ण चंद्रमंडल अखंड कांति से युक्त होता है उसी प्रकार उसका मुख भी अखंड कांति से युक्त था ।।178।। चारों ओर दाँतों की किरणोंरूपी चाँदनी को फैलाता हुआ उसका मुखरूपी चंद्रमा कर्णभूषण की दैदीप्यमान किरणों के गोल परिमंडल से बहुत ही शोभायमान होता था ।।179।। सूर्य में दीप्ति, चंद्रमा में कांति और कमल में विकास इस प्रकार ये सब गुण अलग-अलग रहते हैं परंतु भरत के मुख पर वे सब गुण सहयोगिता को प्राप्त हुए थे अर्थात् साथ-साथ विद्यमान रहते थे ।।180।। चंद्रमा क्षय से सहित है और कमल प्रत्येक रात्रि में संकोच को प्राप्त होता रहता है परंतु उसका मुख सदा विकसित रहता था और कभी संकोच को प्राप्त नहीं होता था―पूर्ण रहता था इसलिए उसकी उपमा किसके साथ दी जाये उसका मुख सर्वथा अनुपम था ।।181।। ऐसा मालूम होता है कि उसका मुखकमल सदा विकसित रहने वाली लक्ष्मी से मानो हार ही गया था अतएव वह वन अथवा जल में निवास करने के लिए प्रस्थान कर रहा था ।।182।। पट्टबंध के उचित और अतिशय कांतियुक्त उसके ललाट के बनने में अवश्य ही सूरज की किरणें सहायक सिद्ध हुई थीं ।।183।। शोभायमान कांति से युक्त उसके दोनों कपोल देखकर चंद्रमा अवश्य ही पराजित हो गया था और इसलिए ही मानो विरक्त होकर वह सकलंक अवस्था को प्राप्त हुआ था ।।184।। उसकी दोनों भौहरूपी सुंदर लताएं ऐसी अच्छी शोभा धारण कर रही थीं मानो जगत् को जीतने के समय कामदेव के द्वारा फहरायी हुई पताकाएं ही हो ।।185।। उसके नेत्ररूपी नीलकमलों का विकास मुखरूपी आंगन में पड़े हुए फूलों के उपहार के समान शोभायमान हो रहा था तथा समस्त दिशाओं को चित्र-विचित्र कर रहा था और इसीलिए वह आनंद को विस्तृत कर अतिशय प्रसिद्ध हो रहा था ।।186।। उसके चंचल कटाक्षों की आभा ने श्रवणक्रिया से युक्त (पक्ष में उत्तम-उत्तम शास्त्रों के ज्ञान से युक्त) उसके दोनों कानों का उल्लंघन कर दिया था सो ठीक ही है चंचल अथवा सतृष्ण हृदय वाले प्राय: किसका उल्लंघन नहीं करते? अर्थात् सभी का उल्लंघन करते हैं ।।187।। कामदेव के बाणों के समान उसके अर्धनेत्रों (कटाक्षों) के अवलोकन से हृदय में घायल हुई स्त्रियाँ शीघ्र ही अतिशय रक्त हो जाती थीं । भावार्थ―जिस प्रकार बाण से घायल हुई स्त्रियाँ अतिशय रक्त अर्थात् अत्यंत खून से लाल-लाल हो जाती हैं उसी प्रकार उसके आधे खुले हुए नेत्रों के अवलोकन से घायल हुई स्त्रियां अतिशय रक्त अर्थात् अत्यंत आसक्त हो जाती थीं ।।188।। वह गालों के समीप भाग तक लटकने वाले रत्नमयी कुंडलों के जोड़े से ऐसा शोभायमान होता था मानो शास्त्र और अर्थ की तुलना का प्रमाण ही करना चाहता हो ।।189।। कुछ नीचे की ओर झुकी हुई और तोते की चोंच के समान लालवर्ण उसकी सुंदर नाक ऐसी शोभायमान हो रही थी मानो कामदेवरूपी अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए फूंकने की नाली ही हो ।।190।। जिस प्रकार जल के कणों से व्याप्त हुआ मूंगा का अंकुर शोभायमान होता है उसी प्रकार मंद हास्य की किरणों से व्याप्त हुआ उसका अधरोष्ठ ऐसा शोभायमान होता था मानो अमृत से ही सींचा गया हो ।।191।। राजकुमार भरत के हाररूपी लता से सुंदर कंठ में कोई अनोखी ही शोभा थी । वह नवीन फूले हुए पुष्पों के समूह से सुशोभित शंख के कंठ को उपमा देने योग्य हो रही थी ।।192।। कंठाभरण में लगे हुए रत्नों की किरणों से भरा हुआ उसका वक्षस्थल हाररूपी वेल से घिरे हुए रत्नद्वीप की शोभा धारण कर रहा था ।।193।। वह अपनी भुजारूप खंभों के पर्यंत भाग में लटकती हुई जिस हाररूपी लता को धारण कर रहा था वह ऐसी मालूम होती थी मानो लक्ष्मीदेवी के झूला की लता (रस्सी) ही हो ।।194।। उसकी दोनों भुजाओं के कंधों पर बाजूबंद के संघट्टन से भट्टें पड़ी हुई थीं और इसलिए ही विजयलक्ष्मी ने प्रेमपूर्वक उसकी भुजाओं की अधीनता स्वीकृत की थी ।।195।। उसके बाहुदंड पृथिवी को नापने के दंड के समान बहुत ही लंबे थे और उन्हें कुलाचल समझकर उन पर रहने वाली लक्ष्मी परम धैर्य को विस्तृत करती थी ।।196।। जिस प्रकार अनेक नक्षत्रों से आकाश शोभायमान होता है उसी प्रकार शंख, चक्र, गदा, कूर्म और मीन आदि शुभ लक्षणों से उसका हस्त-तल शोभायमान था ।।197।। कंधे पर लटकते हुए यज्ञोपवीत से वह भरत ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि ऊपर बहती हुई गंगा नदी के प्रवाह से हिमालय सुशोभित रहता है ।।198।। उसके शरीर का ऊपरी भाग कड़े, अनंत, बाजूबंद और हार आदि अपने-अपने आभूषणों से ऐसा दैदीप्यमान हो रहा था मानो अपने अधोभाग की ओर हँस ही रहा हो ।।199।। राजकुमार भरत के शरीर के ऊपरी भाग का जैसा कुछ वर्णन किया गया है वैसा ही उसके नीचे के भाग का वर्णन समझ लेना चाहिए क्योंकि कल्पवृक्ष की शोभा जैसी ऊपर होती है वैसी ही उसके नीचे भी होती है ।।200।। यद्यपि ऊपर लिखे अनुसार उसके अधोभाग का वर्णन हो चुका है तथापि उद्देश के अनुसार पुनरुक्त रूप से उसका वर्णन फिर भी किया जाता है क्योंकि वर्णन करते-करते समूह में से किसी एक भाग का छोड़ देना भी बड़ा भारी दोष है ।।201।। लावण्यरूपी रस के प्रवाह को धारण करने वाली उसकी नाभिरूपी कूपिका ऐसी सुशोभित होती थी मानो आने वाले कामदेवरूपी मदोन्मत्त हाथी का मार्ग ही हो ।।202।। वह भरत श्रेष्ठ करधनी से सुशोभित सफेद धोती से युक्त जघन भाग को धारण कर रहा था जिससे ऐसा मालूम होता था मानो इंद्रधनुष से सहित शरद्ऋतु के बादलों से युक्त नितंबभाग (मध्यभाग) को धारण करने वाला मेरु पर्वत ही हो ।।203।। उसके दोनों ऊरू अत्यंत स्थूल और सुदृढ़ थे, उनकी लंबाई भी यथायोग्य थी, और उनका वर्ण भी सुवर्ण के समान पीला था इसलिए वे ऐसे मालूम होते थे मानो कामदेव ने अपने मंदिर में दो खंभे ही लगाये हो ।।204।। उस भरत की दोनों जंघाएँ भी अतिशय मनोहर आकार वाली और सुंदर कांति की धारक थीं तथा ऐसी मालूम होती थीं मानो कामदेव ने उन्हें हथियार से छीलकर गोल ही कर ली हो ।।205।। उसके दोनों चरण प्रकट होते हुए अंगुलिरूपी पत्तों से सहित कमल के समान सुशोभित होते थे और उनमें कभी नष्ट नहीं होने वाली लक्ष्मी भ्रमरी के समान सदा निवास करती थी ।।206।। उसके दोनों ही पैर ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो अपनी कांति से कमल की शोभा जीतकर अपने फैलते हुए नखों के प्रकाश से उसकी हँसी ही कर रहे हों ।।207।। उसके चरण-कमलों में चक्र, छत्र, तलवार, दंड आदि चौदह रत्नों के चिह्न बने हुए थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानो ये चौदह रत्न, लक्षणों के छल से भावी चक्रवर्ती की पहले से ही सेवा कर रहे हों ।।208।। केवल उसके चरणों का पराक्रम समस्त पृथ्वीमंडल पर आक्रमण करने वाला था, फिर भला उस अभिमानी भरत के संपूर्ण शरीर का पराक्रम कौन सहन कर सकता था ।।209।। उसके शरीरसंबंधी बल का वर्णन केवल इतने ही से हो जाता है कि वह चरम शरीरी था अर्थात् उसी शरीर से मोक्ष जाने वाला था और उसके आत्मा संबंधी बल का वर्णन दिग्विजय आदि बाह्य चिह्नों से हो जाता है ।।210।। चक्रवर्ती के क्षेत्र में रहने वाले समस्त मनुष्य और देवों में जितना बल होता है उससे कई गुना अधिक बल चक्रवर्ती की भुजाओं में था ।।211।। उस भरत के रूप के अनुरूप ही उसमें गुणरूपी संपदा विद्यमान थी सो ठीक ही है क्योंकि गुणों से वैसा सुंदर शरीर कभी नहीं छोड़ा जा सकता ।।212।। ‘जहाँ सुंदर आकार है वहीं गुण निवास करते हैं’ इस लोकोक्ति में कुछ भी संशय नहीं है क्योंकि गुणों ने भरत के उपमारहित―सुंदर शरीर को स्वयं आकर स्वीकृत किया था ।।213।। सत्य, शौच, क्षमा, त्याग, प्रज्ञा, उत्साह, दया, दम, प्रशम और विनय―ये गुण सदा उसकी आत्मा के साथ-साथ रहते थे ।।214।। शरीर की कांति, दीप्ति, लावण्य, प्रिय वचन बोलना और कलाओं में कुशलता ये उसके शरीर से संबंध रखने वाले गुण थे ।।215।। जिस प्रकार स्वभाव से ही सुंदर मणि संस्कार के योग से अत्यंत सुशोभित हो जाता है उसी प्रकार स्वभाव से ही सुंदर आकार वाला भरत ऊपर लिखे हुए गुणों से और भी अधिक सुशोभित हो गया था ।।216।। वह भरत एक दिव्य मनुष्य था, उसकी आकृति भी असाधारण थी, वह तेज का खजाना था और उसकी सब चेष्टाएँ आश्चर्य करने वाली थीं इसलिए वह लक्ष्मी के अतिशय ऊँचे पुंज के समान शोभायमान होता था ।।217।। दूसरी जगह नहीं पायी जाने वाली उसकी उत्कृष्ट रूपसंपदा देखकर लोग उसके पूर्वभव-संबंधी पुण्य संपदा की प्रशंसा करते थे ।।218।। सुंदर शरीर, नीरोगता, ऐश्वर्य, धन-संपत्ति,सुंदरता, बल, आयु, यश, बुद्धि, सर्वप्रिय वचन और चतुरता आदि इस संसार में जितना कुछ सुख का कारण पुरुषार्थ है वह सब अभ्युदय कहलाता है और वह सब संसारी जीवों को पुण्य के उदय से प्राप्त होता है ।।219-220।। पुण्य के बिना किसी भी बड़े अभ्युदय की प्राप्ति नहीं होती, इसलिए जो विद्वान् पुरुष अभ्युदय प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें पहले पुण्य का संचय करना चाहिए ।।221।। इस प्रकार वह भरत चंद्रमा के समान शोभायमान हो रहा था क्योंकि जिस प्रकार चंद्रमा अपने शीतलता, सुभगता आदि गुणों से सबके आनंद की परंपरा को बढ़ाता है उसी प्रकार वह भरत भी अपने दया, उदारता, नम्रता आदि गुणों से माता-पिता तथा भाईजनों के आनंद की परंपरा को प्रतिदिन बढ़ाता रहता था, चंद्रमा जिस प्रकार लोगों की दुःखमय परिस्थिति को शांत करता है उसी प्रकार वह भरत भी लोगों की दुःखमय परिस्थिति को शांत करता था, चंद्रमा जिस प्रकार समस्त पर्वतों को नीचा करने वाले पूर्वाचल से उदित होता है उसी प्रकार वह भरत भी समस्त राजाओं को नीचा दिखाने वाले भगवान् ऋषभदेवरूपी पूर्वाचल से उदित हुआ था और चंद्रमा जिस प्रकार समस्त भूलोक को प्रकाशित करता है उसी प्रकार भरत भी समस्त लोक को प्रकाशित करता था ।।222।। अथवा वह भरत, चक्ररूपी सूर्य को उदय करने वाले उदयाचल के समान सुशोभित होता था क्योंकि जिस प्रकार उदयाचल पर्वत सुवर्णमय शिलाओं से सांद्र अवयवों से शोभायमान होता है उसी प्रकार वह भरत भी सुवर्ण के समान सुंदर मजबूत शरीर से शोभायमान था, जिस प्रकार उदयाचल ऊँचा होता है उसी प्रकार वह भरत भी ऊंचा (उदार) था, उदयाचल जिस प्रकार स्वभाव से ही गुरु-भारी होता है उसी प्रकार वह भरत भी स्वभाव से ही गुरु (श्रेष्ठ) था, उदयाचल पर्वत ने जिस प्रकार अपने समीपवर्ती छोटे-छोटे पर्वतों से पृथ्वीतल पर आक्रमण कर लिया है उसी प्रकार भरत ने भी अपने पाद अर्थात् चरणों से दिग्विजय के समय समस्त पृथिवीतल पर आक्रमण किया था, उदयाचल जिस प्रकार पृथिवी के विशाल भार को धारण करने के लिए समर्थ है उसी प्रकार भरत भी पृथ्वी का विशाल भार धारण करने के लिए (व्यवस्था करने के लिए) समर्थ था, उदयाचल जिस प्रकार अपने तटभाग पर निर्झरनों की सुंदर कांति धारण करता है उसी प्रकार भरत भी तट के साथ स्पर्धा करने वाले अपने वक्षःस्थल पर हारों की सुंदर कांति धारण करता था, और उदयाचल पर्वत जिस प्रकार दैदीप्यमान शिखरों से सुशोभित रहता है उसी प्रकार वह भरत भी अपने प्रकाशमान मुकुट से सुशोभित रहता था ।।223।। जिन्हें अरहंत पद की लक्ष्मी प्राप्त होने वाली है ऐसे भगवान् वृषभदेव, नेत्रों को आनंद देने वाले, अत्यंत सुंदर और असाधारण भरत के मुख को देखते हुए, कानों को सुख देने वाले तथा विनयसहित कहे हुए उसके मधुर वचनों को सुनते हुए, प्रणाम करने के बाद उठे हुए भरत का बार-बार आलिंगन कर उसे अपनी गोद में बैठाते हुए परम संतोष को प्राप्त होते थे ।।224।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रह में
भगवान का कुमारकाल, यशस्वती और सुनंदा का विवाह तथा भरत की
उत्पत्ति का वर्णन करने वाला पंद्रहवां पर्व समाप्त हुआ ।।15।।