ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 105 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
सम्मत्तणाणजुत्तं चारित्तं रागदोसपरिहीणं । (105)
मोक्खस्स हवदि मग्गो भव्वाणं लद्धबुद्धीणं ॥113॥
अर्थ:
सम्यग्दर्शन-ज्ञान से सहित, रागद्वेष से परिहीन चारित्र लब्ध-बुद्धी भव्यों के मोक्ष का मार्ग है ।
समय-व्याख्या:
मोक्षमार्गस्यैव तावत्सूचनेयम् ।
सम्यक्त्वज्ञानयुक्त मेव नासम्यक्त्वज्ञानयुक्तं , चारित्रमेव नाचारित्रं, रागद्वेषपरिहीणमेव नरागद्वेषापरिहीणम्, मोक्षस्यैव न भावतो बंधस्य, मार्ग एव नामार्गः, भव्यानामेव नाभव्यानां, लब्धबुद्धीनामेव नालब्धबुद्धीनां, क्षीणकषायत्वे भवत्येव न कषायसहितत्वे भवतीत्यष्टधा नियमोऽत्र द्रष्टव्यः ॥१०५॥
समय-व्याख्या हिंदी :
प्रथम, मोक्षमार्ग की ही यह सूचना है ।
- सम्यक्त्व और ज्ञान से युक्त ही, न कि असम्यक्त्व और अज्ञान से युक्त,
- चारित्र ही - न कि अचारित्र,
- राग-द्वेष-रहित हो ऐसा ही (चारित्र) - न कि रागद्वेष सहित होय ऐसा,
- मोक्ष का ही- १भावतः न कि बन्ध का,
- मार्ग ही, न कि अमार्ग,
- भव्यों को ही, न कि अभव्यों को,
- २लब्धबुद्धियों को ही, न कि अलब्धबुद्धियों को,
- ३क्षीण-कषाय-पने में ही होता है, न कि कषाय-सहित-पने में होता है ।
१भावत = भाव अनुसार, आशय अनुसार। ('मोक्ष का' कहते ही 'बन्ध का नहीं' ऐसा भाव अर्थात आशय स्पष्ट समझ में आता है।)
२लब्धबुद्धि = जिन्होंने बुद्धि प्राप्त की हो ऐसे।
३क्षीणकषायपने में ही = क्षीणकषायपना होते ही, क्षीणकषायपना हो तभी। (सम्यक्त्वज्ञान युक्त चारित्र - जो कि राग द्वेष रहित हो वह, लब्धबुद्धि भव्यजीवों को, क्षीणकषायपना होते ही, मोक्ष का मार्ग होता है ।)