ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 106 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं । (106)
चारित्तं समभावो विसयेसु विरूढ़मग्गाणं ॥115॥
अर्थ:
भावों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, उनका अधिगम ज्ञान है, विरुढ मार्गियों का विषयों में समभाव चारित्र है ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[सम्मत्तं] सम्यक्त्व है । कर्तारूप क्या सम्यक्त्व है ? [सद्दहणं] मिथ्यात्व के उदय से उत्पन्न विपरीत अभिनिवेश से रहित श्रद्धान सम्यक्त्व है । किनका श्रद्धान सम्यक्त्व है ? [भावाणं] पंचास्तिकाय, षट्द्रव्य के विकल्प-रूप जीव-अजीव दो तथा जीव-पुद्गल के संयोग-रूप परिणाम से उत्पन्न आस्रव आदि सात पदार्थ इस-प्रकार कहे गए लक्षण-वाले भावों का, जीवादि नव पदार्थों का श्रद्धान सम्यक्त्व है । नवपदार्थों का विषय-भूत यह व्यवहार-सम्यक्त्व है । यह किस विशेषता-वाला है ? छद्मस्थ अवस्था में शुद्ध जीवास्तिकाय की रुचि-रूप निश्चय सम्यक्त्व का, आत्म-विषयक स्व-संवेदन ज्ञान का परम्परा से बीज है । वह स्व-संवेदन ज्ञान भी केवल-ज्ञान का बीज है । [चारित्तं] चारित्र है । वह चारित्र क्या है ? [समभावो] समभाव चारित्र है । किनमें समभाव चारित्र है ? [विसयेसु] विषयों में, इन्द्रिय-मनोगत सुख-दु:ख की उत्पत्ति-रूप शुभाशुभ विषयों में समभाव चारित्र है । वह किनके होता है ? [विरूढ़मग्गाणं] पूर्वोक्त सम्यक्त्व-ज्ञान के बल से समस्त अन्य मार्गों से छूटकर विशेष-रूप से रूढ़-मार्गियों (मोक्षमार्ग में रूढ़ जीवों) को, परिज्ञात-मोक्ष-मार्गियों को होता है।
यह व्यवहार चारित्र बहिरंग साधक होने से वीतराग चारित्र-रूप भावना से उत्पन्न परमात्म-तृप्तिरूप निश्चय सुख का बीज है, और वह निश्चय सुख भी अक्षय-अनंत सुख का बीज है । यहाँ यद्यपि साध्य-साधक ज्ञापनार्थ / बताने के लिए निश्चय-व्यवहार दोनों का व्याख्यान किया है; तथापि नव पदार्थ विषय रूप व्यवहार-मोक्षमार्ग की ही मुख्यता है, ऐसा भावार्थ है ॥११५॥