ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 107 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं । (107)
संवरणिज्जरबंधो मोक्खो य हवन्ति ते अट्ठा ॥116॥
अर्थ:
जीव-अजीव (मूल) भाव हैं; उनके पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष -- ये अर्थ / पदार्थ होते हैं ।
समय-व्याख्या:
पदार्थानां नामस्वरूपाभिधानमेतत् ।जीवः, अजीवः, पुण्यं, पापं, आस्रवः, संवरः, निर्जरा, बन्धः, मोक्ष इतिनवपदार्थानां नामानि । तत्र चैतन्यलक्षणो जीवास्तिक एवेह जीवः । चैतन्याभाव-लक्षणोऽजीवः । स पञ्चधा पूर्वोक्त एव — पुद्गलास्तिकः, धर्मास्तिकः, अधर्मास्तिकः,आकाशास्तिकः, कालद्रव्यञ्चेति । इमौ हि जीवाजीवौ पृथग्भूतास्तित्वनिर्वृत्तत्वेन भिन्नस्वभावभूतौ मूलपदार्थौ । जीवपुद्गलसंयोगपरिणामनिर्वृत्ताः सप्तान्ये पदार्थाः ।शुभपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुद्गलानाञ्च पुण्यम् । अशुभ-परिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुद्गलानाञ्च पापम् । मोहरागद्वेष-परिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानाञ्चास्रवः । मोहरागद्वेषपरिणामनिरोधो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामनिरोधो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानाञ्च संवरः । कर्मवीर्यशातनसमर्थो बहिरङ्गान्तरङ्गतपोभिर्बृंहितशुद्धोप-योगो जीवस्य, तदनुभावनीरसीभूतानामेकदेशसंक्षयः समुपात्तकर्मपुद्गलानाञ्च निर्जरा ।मोहरागद्वेषस्निग्धपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तेन कर्मत्वपरिणतानां जीवेन सहान्योन्य-सम्मूर्च्छनं पुद्गलानाञ्च बन्धः । अत्यन्तशुद्धात्मोपलम्भो जीवस्य, जीवेन सहात्यन्तविश्लेषः कर्मपुद्गलानां च मोक्ष इति ॥१०७॥
अथ जीवपदार्थव्याख्यानं प्रपञ्चयति ।
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, पदार्थों के नाम और स्वरूप का कथन है।
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष- इस प्रकार नव पदार्थों के नाम हैं ।
उनमें चैतन्य जिसका लक्षण है ऐसा जीवास्तिक ही (-जीवास्तिकाय ही) यहाँ जीव है । चैतन्य का अभाव जिसका लक्षण है वह अजीव है, वह (अजीव) पाँच प्रकार से पहले कहा ही है -- पुद्गलास्तिक, धर्मास्तिक, अधर्मास्तिक, आकाशास्तिक और काल द्रव्य । यह जीव और अजीव (दोनों) पृथक अस्तित्त्व द्वारा निष्पन्न होने से भिन्न जिनके स्वभाव हैं ऐसे (दो) मूल पदार्थ हैं ।
जीव और पुद्गल के संयोग परिणाम से उत्पन्न सात अन्य पदार्थ हैं । (उनका संक्षिप्त स्वरूप निम्नानुसार है:-) जीव के शुभ परिणाम (वह पुण्य हैं) तथा वे (शुभ परिणाम) जिसका निमित्त हैं ऐसे पुद्गलों के कर्मपरिणाम (शुभ-कर्म-रूप परिणाम) वह पुण्य हैं। जीव के अशुभ परिणाम (वह पाप हैं) तथा वे (अशुभ परिणाम) जिसका निमित्त हैं ऐसे पुद्गलों के कर्मपरिणाम (अशुभ-कर्म-रूप परिणाम) वह पाप हैं । जीव के मोह-राग-द्वेष-रूप परिणाम (वह आश्रव हैं) तथा वे (मोह-राग-द्वेष-रूप परिणाम) जिसका निमित्त हैं ऐसा जो योग द्वारा प्रविष्ट होने वाले पुद्गलों के कर्म-परिणाम वह आश्रव हैं । जीव के मोह-राग-द्वेष-रूप परिणाम का निरोध (वह संवर हैं) तथा वे (मोह-राग-द्वेष-रूप परिणाम का निरोध) जिसका निमित्त हैं ऐसा जो योग द्वारा प्रविष्ट होने वाले पुद्गलों के कर्म-परिणाम का निरोध वह संवर हैं । कर्म के वीर्य का (कर्म की शक्ति का) १शातन करने में समर्थ ऐसा जो बहिरंग और अंतरंग (बारह प्रकार के) तपों द्वारा वृद्धि को प्राप्त जीव का शुद्धोपयोग (वह निर्जरा है) तथा उसके प्रभाव से (वृद्धि को प्राप्त शुद्धोपयोग के निमित्त से) नीरस हुए ऐसे उपार्जित कर्म-पुद्गलों का एकदेश २संक्षय वह निर्जरा है । जीव के मोह-राग-द्वेष द्वारा स्निग्ध परिणाम (वह बन्ध है) तथा उसके (स्निग्ध परिणाम के) निमित्त से कर्म-रूप परिणत पुद्गलों का जीव के साथ अन्योन्य अवगाहन (-विशिष्ट शक्ति सहित एक-क्षेत्रावगाह सम्बन्ध) वह बन्ध है । जीव की अत्यंत शुद्ध आत्मोपलब्धि (वह मोक्ष है) तथा कर्म-पुद्गलों का जीव से अत्यन्त विश्लेष (वियोग) वह मोक्ष है ॥१०७॥
अब जीव पदार्थ का व्याख्यान विस्तार-पूर्वक किया जाता है ।
१शातन करना= पतला करना, हीन करना, क्षीण करना, नष्ट करना ।
२संक्षय = सम्यक् प्रकार से क्षय ।