ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 10 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं ।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ॥10॥
अर्थ:
जो सत लक्षणवाला है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य संयुक्त है अथवा गुण-पर्यायों का आश्रय है, उसे सर्वज्ञ भगवान द्रव्य कहते हैं।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब तीन प्रकार के द्रव्य-लक्षण का उपदेश करते हैं --
[दव्वं सल्लक्खणयं] द्रव्य द्रव्यार्थिकनय से सत्ता लक्षणवाला है, यह बौद्ध के प्रति कहा है । (बौद्धों को लक्षितकर द्रव्य का लक्षण कहा गया है)। [उप्पादव्ययधुवत्तसंजुत्तं] पर्यायार्थिक-नय की अपेक्षा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से संयुक्त है । [गुणपज्जयासयं वा] अथवा गुण-पर्यायों का आधार-भूत है; यह सांख्य और नैयायिक के प्रति कहा गया है। [जं तं भण्णंति सव्वण्हू] जो इन तीन लक्षणों से सहित है वह द्रव्य है, ऐसा सर्वज्ञ भगवान कहते हैं -- यह वार्तिक है।
वह इसप्रकार -- सत्ता-लक्षण, ऐसा कहने पर उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण और गुण-पर्यायत्व लक्षण नियम से प्राप्त होता है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त, ऐसा कहने पर सत्ता लक्षण और गुण-पर्यायत्व लक्षण नियम से प्राप्त होता है । गुण-पर्यायवाला है, ऐसा कहने पर उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षणत्व और सत्ता-लक्षण नियम से प्राप्त हो जाते हैं । एक लक्षण कहने पर अन्य दो लक्षण कैसे प्राप्त हो जाते हैं? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- तीनों लक्षणों के परस्पर अविनाभावित्व होने के कारण वे प्राप्त हो जाते हैं ।
यहाँ मिथ्यात्व-रागादि से रहित होने के कारण शुद्ध सत्ता लक्षण, अगुरुलघुत्व की षड्गुणी हानि वृद्धिरूप से शुद्ध उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण, अकृत ज्ञानादि अनंत गुण लक्षण और सहज शुद्ध सिद्ध पर्याय लक्षण शुद्ध जीवास्तिकाय नामक शुद्ध जीवद्रव्य उपादेय है -- ऐसा भावार्थ है। मतान्तरों के व्याख्यान काल में क्षणिक एकान्तरूप बौद्ध मत, नित्य एकान्तरूप सांख्यमत, उभय एकान्तरूप नैयायिक और मीमांसक मत को सर्वत्र जान लेना चाहिए ।
प्रश्न - क्षणिक एकान्त में क्या दोष है?
उत्तर - जिसने घटादि क्रिया प्रारंभ की, वह उसी क्षण नष्ट हो गया -- इसप्रकार क्रिया की निष्पत्ति / उत्पत्ति नहीं बनती इत्यादि दोष हैं । नित्य एकान्त में जो वह है, वह वही है; सुखी सुखी ही है, दुखी दुखी ही है इत्यादि टंकोत्कीर्ण नित्यतारूप में पर्यायान्तर घटित नहीं होता परस्पर निरपेक्ष द्रव्य पर्याय उभय के एकान्त में भी पूर्वोक्त दोनों ही दूषण प्राप्त होते हैं । जैन मत में परस्पर सापेक्ष द्रव्य-पर्यायत्व होने के कारण दोष नहीं है ॥१०॥
इसप्रकार तीसरे स्थल में द्रव्य के सत्ता आदि तीन लक्षणों सम्बन्धी सूचना की मुख्यता से गाथा पूर्ण हुई ।