ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 114 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
उद्दंमसयमक्खियमधुकरभमरा पतंगमादीया । (114)
रूपं रसं च गंधं फासं पुण ते वि जाणंति ॥124॥
अर्थ:
डाँस, मच्छर, मक्खी, मधुमक्खी, भँवरा, पतंगे आदि वे (चार इन्द्रिय जीव) रूप, रस, गंध, स्पर्श को जानते हैं ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
डाँस, मच्छर, मक्खी, मधुमक्खी, भँवरा, पतंग आदि रूप कर्ता क्योंकि स्पर्श, रस, गंध, वर्ण को जानते हैं; उस कारण चार इन्द्रिय हैं ।
वह इसप्रकार -- निर्विकार स्वसम्वेदन-ज्ञानमयी भावना से उत्पन्न सुख-रूपी सुधारस के पान से विमुख और स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु आदि विषय-सुखानुभव के सन्मुख बहिरात्माओं द्वारा जो उपार्जित चार इन्द्रिय जाति-नामकर्म, उसके विपाक / उदय के अधीन; उसीप्रकार वीर्यान्तराय, स्पर्शन-रसना-घ्राण-चक्षु इन्द्रियावरण के क्षयोपशम का लाभ होने से तथा कर्णेन्द्रियावरण का उदय और नो इन्द्रियावरण कर्म का उदय होने पर मन-रहित चार इन्द्रिय होते हैं, ऐसा अभिप्राय है ॥१२४॥
इसप्रकार विकलेन्द्रिय-व्याख्यान की मुख्यता-वाली तीन गाथाओं द्वारा तीसरा स्थल पूर्ण हुआ ।