ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 137 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
चरिया पमादबहुला कालुस्सं लोलदा य विसयेसु । (137)
परपरितावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि ॥147॥
अर्थ:
प्रमाद की बहुलता युक्त चर्या, कलुषता और विषयों में लोलुपता तथा पर को परिताप देना और पर का अपवाद करना पाप का आस्रव करता है ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[चरिया पमादबहुला] निष्प्रमाद चैतन्य चमत्कारमय परिणति की प्रतिबंधिनी प्रमाद की बहुलता-वाली चर्या, परिणति, चारित्र की परिणति; कालुस्सं अकलुष चैतन्य चमत्कार मात्र से विपरीत कलुषता-रूप परिणति, [लोलदा य विसयेसु] विषयातीत आत्म-सुख-संवित्ति से प्रतिकूल विषयों में लोलुपता-रूप परिणति, [परपरिदाव] पर परिताप से रहित शुद्धात्मा की अनुभूति से विलक्षण पर परिताप (दूसरों को कष्ट देने) रूप परिणति, [अपवादो] तथा निरपवाद स्व-संवित्ति से विपरीत पर का अपवाद करनेरूप परिणति, [पापस्स य आसवं कुणदि] यह पाँच प्रकार की परिणति द्रव्य पापास्रव की कारण-भूत भाव पापास्रव कहलाती है; भाव पापास्रव के निमित्तभूत मन, वचन, काय रूप योग द्वार से आए हुए द्रव्य-कर्म द्रव्य-पापास्रव हैं, ऐसा सूत्रार्थ है ॥१४७॥