ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 152 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
जीवसहाओ णाणं अप्पडिहददंसणं अणण्णमयं । (152)
चरियं च तेसु णियदं अत्थित्तमणिंदियं भणियं ॥162॥
अर्थ:
अनन्य-मय, अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन जीव का स्वभाव है, तथा उनमें नियत अस्तित्व-मय अनिंदित चारित्र कहलाता है ।
समय-व्याख्या:
अथ मोक्षमार्गप्रपञ्चसूचिका चूलिका ।
मोक्षमार्गस्वरूपाख्यानमेतत् ।
जीवस्वभावनियतं चरितं मोक्षमार्गः । जीवस्वभावो हि ज्ञानदर्शने अनन्य-मयत्वात् । अनन्यमयत्वं च तयोर्विशेषसामान्यचैतन्यस्वभावजीवनिर्वृत्तत्वात् । अथतयोर्जीवस्वरूपभूतयोर्ज्ञानदर्शनयोर्यन्नियतमवस्थितमुत्पादव्ययध्रौव्यरूपवृत्तिमयमस्तित्वं रागादि-परिणत्यभावादनिन्दितं तच्चरितं; तदेव मोक्षमार्ग इति । द्विविधं हि किलसंसारिषु चरितं — स्वचरितं परचरितं च; स्वसमयपरसमयावित्यर्थः । तत्र स्वभावाव-स्थितास्तित्वस्वरूपं स्वचरितं, परभावावस्थितास्तित्वस्वरूपं परचरितम् । तत्र यत्स्वभावा-वस्थितास्तित्वरूपं परभावावस्थितास्तित्वव्यावृत्तत्वेनात्यन्तमनिन्दितं तदत्र साक्षान्मोक्ष-मार्गत्वेनावधारणीयमिति ॥१५२॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, मोक्षमार्ग के स्वरूप का कथन है ।
जीव-स्वभाव में नियत चारित्र वह मोक्ष-मार्ग है । जीव-स्वभाव वास्तव में ज्ञान-दर्शन है क्योंकि वे (जीव से) अनन्य-मय हैं । ज्ञान-दर्शन का (जीव से) अनन्य-मय-पना होने का कारण यह है कि १विशेष-चैतन्य और सामान्य-चैतन्य जिसका स्वभाव है ऐसे जीव से वे निष्पन्न हैं (अर्थात् जीव द्वारा ज्ञानदर्शन रचे गये हैं) । अब जीव के स्वरूप-भूत ऐसे उन ज्ञान-दर्शनमें २नियत-अवस्थित ऐसा जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-रूप ३वृत्ति-मय अस्तित्व, जो कि रागादि-परिणाम के अभाव के कारण अनिंदित है -- वह चारित्र है; वही मोक्षमार्ग है ।
संसारीयों में चारित्र वास्तव में दो प्रकार का है :- (१) स्वचारित्र और (२) परचारित्र; (१) स्वसमय और (२) परसमय ऐसा अर्थ है । वहाँ, स्वभाव में अवस्थित अस्तित्व-स्वरूप (चारित्र) वह स्व-चारित्र है और परभाव में अवस्थित अस्तित्त्व-स्वरूप (चारित्र) वह परचारित्र है । उसमें से (अर्थात् दो प्रकार के चारित्र में से), स्वभाव में अवस्थित अस्तित्व-रूप चारित्र, जो कि परभाव में अवस्थित अस्तित्व से भिन्न होने के कारण अत्यन्त अनिंदित है वह, यहाँ साक्षात् मोक्ष-मार्गरूप अवधारणा ।
यही चारित्र 'परमार्थ' शब्द से वाच्य ऐसे मोक्ष का कारण है, अन्य नहीं -- ऐसा न जानकर, मोक्ष से भिन्न ऐसे असार संसार के कारणभूत मिथ्यात्त्व-रागादि में लीन वर्तते हुए अपना अनन्त काल गया; ऐसा जानकर उसी जीव-स्वभाव-नियत चारित्र की, जो कि मोक्ष के कारण-भूत है उसकी -- निरन्तर भावना करना योग्य है । इस प्रकार सूत्रतात्पर्य है ॥१५२॥
१विशेष-चैतन्य वह ज्ञान है और सामान्य-चैतन्य वह दर्शन है ।
२नियत = अवस्थित; स्थित; स्थिर; दृढरूप स्थित ।
३वृत्ति = वर्तना; होना । (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप वृत्ति वह अस्तित्व है ।)