ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 160 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जो चरदि णादि पेच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं । (160)
सो चारित्तं णाणं दंसणमिदि णिच्छिदो होदि ॥170॥
अर्थ:
जो अनन्यमय आत्मा का आत्मा द्वारा आचरण करता है, उसे जानता है, देखता है; वह चारित्र ज्ञान-दर्शनमय है ऐसा निश्चित है ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[हवदि] है । [सो] कर्तारूप वह है । वह क्या है ? [चारित्तं णाणं दंसणमिदि] चारित्र-ज्ञान-दर्शन तीनों की एकतामय है ऐसा [णिच्छिदो] निश्चित है । इन रूप वह कौन है ? जो कर्तारूप जो; वह क्या करता है? [चरदि णादि पेच्छदि] आचरण करता है, स्व-सम्वित्ति रूप से अनुभव करता है; जानता है, निर्विकार स्वसम्वेदन-ज्ञान द्वारा रागादि से भिन्न जानता है; देखता है, निर्विकल्प-रूप सत्तावलोकन दर्शन द्वारा अवलोकन करता है अथवा विपरीत अभिनिवेश रहित शुद्धात्मा की रुचिरूप परिणाम द्वारा श्रद्धान करता है । यह सब किसका करता है ? [अप्पाणं] यह सब अपने शुद्धात्मा का करता है । यह सब किसके द्वारा करता है ? [अप्पणा] वीतराग स्वसंवेदन-ज्ञान परिणति लक्षणमय अन्तरात्मा द्वारा करता है । कैसे आत्मा का करता है ? [अणण्णमय] अन्यमय नहीं, वह अनन्यमय है, मिथ्यात्व-रागादिमय नहीं है; अथवा जो अनन्यमय, अभिन्न है, ऐसे आत्मा का करता है । वह किनसे अभिन्न है ? केवल-ज्ञान आदि अनन्त गुणों से अभिन्न है ।
यहाँ सूत्र में जिस कारण अभेद विवक्षा से आत्मा ही दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीन-मय है; उससे ज्ञात होता है कि द्राक्षा आदि के पानक समान (दाख आदि के मिश्रण से बनाए गए शरबत के समान) अनेक होने पर भी अभेद विवक्षा में एक निश्चय-रत्नत्रय लक्षण जीव-स्वभाव में नियत चारित्र मोक्ष-मार्ग है, ऐसा भावार्थ है । वैसा ही आत्माश्रित निश्चयरत्नत्रय का लक्षण कहा गया है 'आत्मा (के सम्बन्ध) में निश्चय दर्शन और उसका बोध ज्ञान स्वीकार किया गया है । उसमें ही स्थिति चारित्र है; इसप्रकार तीनों का योग शिवाश्रय / मोक्ष का मार्ग है।' ॥१७०॥
इसप्रकार मोक्षमार्ग के विवरण की मुख्यता से दो गाथायें पूर्ण हुईं ।