ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 166 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
धरिदुं जस्स ण सक्को चित्तंभामो बिणा दु अप्पाणं । (166)
रोधो तस्स ण विज्जदि सुहासुहकदस्स कम्मस्स ॥176॥
अर्थ:
जो चित्त के भ्रमण से रहित आत्मा को धारण करने में / रखने में समर्थ नहीं है, उसके शुभाशुभ कर्मों का निरोध नहीं होता है ।
समय-व्याख्या:
रागलवमूलदोषपरम्पराख्यानमेतत् ।
इह खल्वर्हदादिभक्तिरपि न रागानुवृत्तिमन्तरेण भवति । रागाद्यनुवृत्तौ चसत्यां बुद्धिप्रसरमन्तरेणात्मा न तं कथञ्चनापि धारयितुं शक्यते । बुद्धिप्रसरे चसति शुभस्याशुभस्य वा कर्मणो न निरोधोऽस्ति । ततो रागकलिविलासमूल एवायमनर्थसन्तानइति ॥१६६॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, रागलव-मूलक दोष-परम्परा का निरूपण है (अर्थात् अल्प राग जिसका मूल है ऐसी दोषों की संतति का यही कथन है) ।
यहाँ (इस लोक में) वास्तव में अर्हंतादि के ओर की भक्ति भी राग-परिणति के बिना नहीं होती । रागादि परिणति होने पर, आत्मा १बुद्धिप्रसार रहित (चित्त के भ्रमण से रहित) अपने को किसी प्रकार नहीं रख सकता; और बुद्धिप्रसार होने पर (चित्त का भ्रमण होने पर), शुभ तथा अशुभ कर्म का निरोध नहीं होता । इसलिए, इस अनर्थ-संतति का मूल राग-रूप क्लेश का विलास ही है ॥१६६॥
१बुद्धिप्रसार = विकल्पों का विस्तार; चित का भ्रमण; मन का भटकना; मन की चंचलता ।