ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 16 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
भावा जीवादीया जीवगुणा चेदणा य उवओगा ।
सुरणरणारयतिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा ॥16॥
अर्थ:
जीवादि भाव हैं। चेतना और उपयोग जीव के गुण हैं तथा देव, मनुष्य, नारकी, तिर्यंच आदि अनेक जीव की पर्यायें हैं।
समय-व्याख्या:
अत्र भावगुणपर्याया: प्रज्ञापिता: । भावा हि जीवादय: पट् पदार्था: । तेषां गुणा: पर्यायाश्च प्रसिद्धा: । तथापि जीवस्य वक्ष्यमाणोदाहरणप्रसिद्धयर्थमभिधीयन्ते । गुणा हि जीवस्य ज्ञानानुभूतिलक्षणा शुद्धचेतना, कार्यानुभूतिलक्षणा कर्मफलानुभूतिलक्षणा चाशुद्धचेतना, चैतन्यानुविधायिपरिणामलक्षण: सविकल्पनिर्विकल्परूप: शुद्धाशुद्धतया सकलविकलतां दधानो द्वेधोपयोगश्च । पर्यायास्त्वगुरुलघुगुणहानिवृद्धिनिर्वृत्ता: शुद्धा:, सूत्रोपात्तास्तु सुरनारकतिर्यङ᳭मनुष्यलक्षणा: परद्रव्यसंबन्धनिर्वृत्तत्वादशुद्धाश्चेति ॥१६॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यहाँ भावों, गुणों और पर्यायें बतलाते हैं ।
जीवादि छह पदार्थ वे 'भाव' हैं । उनके गुण और पर्यायें हैं, तथापि आगे (अगली गाथा में) जो उदाहरण देना है उसकी प्रसिद्धि के हेतु जीव के गुणों और पर्यायों का कथन किया जाता है --
जीव के गुणों, ज्ञानानुभूति-स्वरूप शुद्ध-चेतना तथा कार्यानुभूति-स्वरूप और कर्म-फलानुभूति-स्वरूप अशुद्ध-चेतना है और *चैतन्यानुविधायी--परिणाम-स्वरूप, सविकल्प-निर्विकल्प-रूप, शुद्धता-अशुद्धता के कारण सकलता-विकलता को धारण करने वाला, दो प्रकार का उपयोग है (अर्थात् जीव के गुणों शुद्ध-अशुद्ध चेतना तथा दो प्रकार के उपयोग हैं) ।
जीव की पर्यायें इसप्रकार है -- अगुरुलघु-गुण की हानि-वृद्धि से उत्पन्न पर्यायें शुद्ध पर्यायें हैं और सूत्र में (इस गाथा में) कही हुई, देव-नारक-तिर्यंच-मनुष्य रूप पर्यायें पर-द्रव्य के सम्बन्ध से उत्पन्न होती है, इसलिए अशुद्ध पर्यायें हैं ॥१६॥
*चैतन्य-अनुविधायी परिणाम अर्थात् चैतन्य का अनुसरण करने वाला परिणाम, वह उपयोग है । सविकल्प उपयोग को ज्ञान और निर्विकल्प उपयोग को दर्शन कहा जाता है । ज्ञानोपयोग के भेदों में से मात्र केवलज्ञान ही शुद्ध होने से सकल / अखंड / परिपूर्ण है और अन्य सब अशुद्ध होने से विकल / खंडित / अपूर्ण हैं; दर्शानोपयोग के भेदों में से मात्र केवलदर्शन ही शुद्ध होने से सकल है और अन्य सब अशुद्ध होने से विकल हैं ।