ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 24 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
समओ णिमिसो कट्ठा कलाय णाली तदो दिवारत्ती । (24)
मासोडु अयण संवच्छरोत्ति कालो परायत्तो ॥25॥
अर्थ:
[समयः] समय, [निमिषः] निमेष, [काष्ठा] काष्ठा, [कला च] कला, [नाली] घड़ी, [ततः दिवारात्रः] अहोरात्र, (दिवस), [मासर्त्वयनसंवत्सरम्] मास, ऋतु, अयन और वर्ष - [इति कालः] ऐसा जो काल (अर्थात् व्यवहारकाल) [परायत्तः] वह पराश्रित है ।
समय-व्याख्या:
अत्र व्यवहारकालस्य कथंचित्परायत्तत्वं द्योतितम् । परमाणुप्रचलनायत्त: समय: । नयनपुटघटनायत्तो निमिष: । तत्संख्याविशेषत: काष्ठा कला नाली च । गमनमणिगमनायत्तो दिवारात्र: । तत्संख्याविशेषत: मास:, ऋतु:, अयनं, संवत्सर: इति । एवंविधो हि व्यवहारकाल: केवलकालपर्यायमात्रत्वेनावधारयितुमशक्यत्वात् परायत्त इत्युपमीयत इति ॥२४॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यहाँ व्यवहार-काल का कथंचित पराश्रितपना दर्शाया है ।
परमाणु के गमन के आश्रित समय है; आँख के मिचने से आश्रित निमेष है; उसकी (निमेष की) अमुक संख्या काष्ठा, कला और घडी होती है; सूर्य के गमन के आश्रित अहोरात्र होता है, और उसकी (अहोरात्र की) अमुक संख्या से मास, ऋतु, अयन और वर्ष होते हैं । ऐसा व्यवहार-काल केवल काल की पर्याय-मात्र-रूप से अवधारणा अशक्य होने से (पर की अपेक्षा बिना -- परमाणु, आँख, सूर्य आदि पर पदार्थों की अपेक्षा बिना -- व्यवहार-काल का माप निश्चित करना अशक्य होने से) उसे 'पराश्रित' ऐसी उपमा दी जाती है ॥२४॥