ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 40.2 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
सुदणाणं पुण णाणी भणंति लद्धी य भावणा चेव ।
उवओगणयवियप्पम णाणेण य वत्थु अत्थस्स ॥43॥
अर्थ:
लब्धि और भावना रूप जानने की अपेक्षा सम्पूर्ण वस्तु को जानने वाले उपयोग या प्रमाणरूप और वस्तु के एकदेश को जानने वाले नय विकल्परूप ज्ञान को ज्ञानी श्रुतज्ञान कहते हैं ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[सुदणाणं पुण णाणी भणंति] वही पूर्वोक्त आत्मा श्रुत-ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम होने पर जिस ज्ञान से मूर्त-अमूर्त वस्तु को परोक्ष रूप में जानता है; ज्ञानी उसे श्रुत-ज्ञान कहते हैं । वह कैसा है? [लद्धी या भावणा चेव] वह लब्धिरूप और भावनारूप ही है । वह और किस विशेषता वाला है ? [उवओगणयवियप्पम] वह उपयोग विकल्प और नय विकल्परूप है । यहाँ उपयोग शब्द से (सम्पूर्ण) वस्तु को जानने वाला प्रमाण कहा गया है तथा नय शब्द से वस्तु के एकदेश को जाननेवाला ज्ञाता का अभिप्राय रूप विकल्प कहा गया है । वैसा ही कहा भी है 'ज्ञाता का अभिप्राय नय है'
किस अपेक्षा (सम्पूर्ण) वस्तु को जानने वाला प्रमाण और वस्तु के एकदेश को जानने वाला नय है ? [णाणेण य] जानने वाले की अपेक्षा, परिच्छेदक की अपेक्षा, ग्राहक की अपेक्षा वह प्रमाण-नय है । [वत्थु अत्थस्स] सम्पूर्ण वस्तु को जानने वाला होने से प्रमाण कहलाता है और अर्थ / वस्तु के एकदेश को जानने वाला होने से नय कहलाता है । कैसे अर्थ को जानने से नय है ? गुण-पर्याय रूप अर्थ को जानने से नय है ।
यहाँ विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी शुद्धात्म-तत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, अनुचरण रूप अभेद रत्नत्रयात्मक जो भावश्रुत है, वही उपादेयभूत परमात्मतत्त्व का साधक होने के कारण निश्चय से उपादेय है; उसके साधक बहिरंग साधन व्यवहार से उपादेय हैं -- यह तात्पर्य है ॥४३॥