ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 40.6 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
मिच्छत्ता अण्णाणं अविरदिभावो य भावावरणा ।
णेयं पडुच्च काले तह दुण्णय दुप्पमाणं च ॥47॥
अर्थ:
मिथ्यात्व के कारण भाव आवरण से ज्ञान और विरतिभाव मिथ्यात्वरूप हो जाते हैं; ज्ञेयों को जानते समय (सभी नय) दुर्नय तथा (सभी से प्रमाण) दुष्प्रमाण कहलाते हैं ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब तीन अज्ञानों को कहते हैं --
[मिच्छत्ता अण्णाणं] द्रव्य मिथ्यात्व के उदय से होता है इसप्रकार यहाँ यह क्रिया अध्याहार है (ऊपर से लगा लेना)। उससे क्या हो जाता है ? [अण्णाणं अविरदिभावो य] ज्ञान भी अज्ञान हो जाता है । यहाँ अज्ञान शब्द से कुमति आदि तीन ग्रहण करना चाहिए । मात्र अज्ञान ही नहीं होता है; अपितु अविरतिभाव अव्रत परिणामी हो जाता है । कैसे मिथ्यात्व के उदय से अज्ञान और अविरतिभाव होते हैं ? [भावावरणा] तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षणरूप भाव अर्थात् भाव सम्यक्त्व उसका आवरण झंपन भावावरण है, उस भावावरण से भाव मिथ्यात्व से सहित मिथ्यात्व-कर्म के उदय से अज्ञान और अविरति-भाव होते हैं ऐसा अर्थ है । उस मिथ्यात्व से और क्या होता है ? [तह दुण्णय दुप्पमाणं च] जिसप्रकार अज्ञान और अविरतिभाव होता है; उसीप्रकार सुनय दुर्नय हो जाते हैं तथा प्रमाण दुष्प्रमाण हो जाते हैं । ये ऐसे कब हो जाते हैं ? [काले] तत्त्वविचार के समय हो जाते हैं । क्या कर हो जाते हैं ? [पडुच्च] आश्रय लेकर हो जाते हैं । किसका आश्रय लेकर हो जाते हैं ? [णेयं] ज्ञेयभूत जीवादि वस्तुओं का आश्रय कर हो जाते हैं ।
यहाँ मिथ्यात्व से विपरीत तत्त्वार्थ श्रद्धान-रूप निश्चय-सम्यक्त्व का कारणभूत व्यवहार-सम्यक्त्व और उसका फल-भूत निर्विकार शुद्धात्मानुभूति लक्षण निश्चय-सम्यक्त्व ही उपादेय है -- यह भावार्थ है ॥४७॥