ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 48 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
ण हि सो समवायादो अत्थंतरिदो दु णाणी । (48)
अण्णाणित्ति य वयणं एयत्तपसाधगं होदि ॥55॥
अर्थ:
ज्ञान से अर्थान्तरभूत वह समवाय से भी ज्ञानी नहीं हो सकता । 'अज्ञानी' ऐसा वचन ही उनके एकत्व को सिद्ध करता है ।
समय-व्याख्या:
ज्ञानज्ञानिनो: । समवायसंबंधनिरासोऽयम् । न खलुज्ञानादर्थान्तरभूत: पुरुषो ज्ञानसमवायात् ज्ञानी भवतीत्युपपन्नम् । स खलु ज्ञानसमवायात्पूर्वं किं ज्ञानी किमज्ञानी ? यदि ज्ञानी तदा ज्ञानसमवायो निष्फल: । यथाज्ञानी तदा किमज्ञानसमवायात्, किमज्ञानेन सहैकत्वात् ? न तावदज्ञानसमवायात्; अज्ञानिनो ह्यज्ञानसमवायो निष्फल:, ज्ञानित्वं तु ज्ञानसमवायाभावान्नास्त्येव । ततोऽज्ञानीति वचनमज्ञानेन सहैकत्वमवश्यं साधयत्वेन । सिद्धे चैवमज्ञानेन सहैकत्वे ज्ञानेनापि सहैकत्वमवश्यं सिध्यतीति ॥४८॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, ज्ञान और ज्ञानी को समवाय सम्बन्ध होने का निराकरण (खण्डन) है ।
ज्ञान से अर्थान्तर-भूत आत्मा ज्ञान के समवाय से ज्ञानी होता है ऐसा मानना वास्तव में योग्य नहीं है । (आत्मा को ज्ञान के समवाय से ज्ञानी होना माना जाये तो हम पूछते हैं कि) वह (आत्मा) ज्ञान का समवाय होने से पहले वास्तव में ज्ञानी है कि अज्ञानी ? यदि ज्ञानी है (ऐसा कहा जाए) तो ज्ञान का समवाय निष्फल है । अब यदि अज्ञानी है (ऐसा कहा जाए) तो (पूछते हैं कि) अज्ञान के समवाय से अज्ञानी है कि अज्ञान के साथ एकत्व से अज्ञानी है ? प्रथम, अज्ञान के समवाय से अज्ञानी हो नहीं सकता; क्योंकि अज्ञानी को अज्ञान का समवाय निष्फल है और ज्ञानी-पना तो ज्ञान के समवाय का अभाव होने से है ही नहीं । इसलिए 'अज्ञानी' ऐसा वचन अज्ञान के साथ एकत्व को अवश्य सिद्ध करता ही है । और इस प्रकार अज्ञान के साथ एकत्व सिद्ध होने से ज्ञान के साथ भी एकत्व अवश्य सिद्ध होता है ॥४८॥