ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 52 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जीवा अणाइणिहणा संता णंता य जीवभावादो । (52)
सब्भावदो अणंता पंचग्गगुणप्पहाणा य ॥59॥
अर्थ:
जीव जीव-भाव की अपेक्षा अनादि, अनन्त, सांत और अनंत हैं । सद्भाव की अपेक्षा अनन्त और पाँच मुख्य गुणों की प्रधानता युक्त हैं ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
आगे जिन जीवों के कर्म का कर्तृत्व, भोक्तृत्व, संयुक्तत्व -- ये तीन कहे जायेंगे; पहले उनके स्वरूप और संख्या का प्रतिपादन करते हैं --
[जीवा अणाइणिहणा] जीव वास्तव में शुद्ध-पारिणामिक-परमभाव-ग्राहक शुद्ध-द्रव्यार्थिक-नय की अपेक्षा शुद्ध चैतन्यरूप से अनादि-अनिधन हैं । वे और कैसे हैं ? [संता] औदयिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक -- इन तीन भावों की अपेक्षा सादि-सनिधन हैं । और वे किस विशेषता वाले हैं ? [अणंता य] सादि-अनन्त हैं । इन रूप वे किस अपेक्षा से हैं । [जीवभावादो] जीव के भाव की अपेक्षा वे इस रूप हैं । क्षायिकभाव की अपेक्षा सादिपना होने से उनका अन्त भी होगा ? -- ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए; क्योंकि कर्म का क्षय होने पर केवलज्ञानादि-रूप से उत्पन्न होने वाला वह क्षायिक भाव, सिद्धभाव के समान, जीव का सद्भाव / स्वभावरूप ही है और स्वभाव का कभी विनाश नहीं होता है ।
अनादि-अनन्त सहज शुद्ध पारिणामिक एक-भावमय जीवों के सादि-सांत रूप औदयिक आदि अन्य भाव कैसे सम्भव हैं? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर देते हैं -- [पंचग्गगुणप्पहाणा य] यद्यपि वे स्वभाव से ही शुद्ध हैं; तथापि व्यवहार से अनादि कर्म-बंध के वश कीचड़-युक्त जल के समान औदयिक आदि भाव-रूप परिणत देखे जाते हैं -- इसप्रकार स्वरूप का व्याख्यान हुआ ।
अब संख्या कहते हैं -- [सब्भावदो अणंता] द्रव्य-स्वभाव गणना की अपेक्षा वे अनन्त हैं । सांत और अनंत शब्द का दूसरा व्याख्यान करते हैं -- अन्त के साथ अर्थात् संसार के विनाश से सहित हैं, वे सांत अर्थात् भव्य हैं; तथा जिनके अन्त अर्थात् संसार का विनाश नहीं है वे अनन्त अर्थात् अभव्य हैं । वे अभव्य भी अनन्त की संख्या में हैं, उनसे भी अनंतगुणी संख्यावाले भव्य हैं; उनसे भी अनंत गुणे अभव्य समान भव्य हैं ।
इस गाथा में अनादि-अनन्त ज्ञानादि गुणों का आधारभूत शुद्ध जीव ही सादि-सनिधन मिथ्यात्व-रागादि दोषों के परिहार-रूप से परिणत भव्यों को उपादेय है -- ऐसा तात्पर्यार्थ है ॥५९॥