ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 53 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
एवं सदो विणासो असदो जीवस्स हवदि उप्पादो । (53)
इदि जिणवरेहिं भणियं अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्धं ॥60॥
अर्थ:
इसप्रकार जीव के सत का विनाश और असत का उत्पाद होता है; ऐसा परस्पर विरुद्ध होने पर भी अविरुद्ध स्वरूप जिनवरों ने कहा है ।
समय-व्याख्या:
जीवस्य भाववशात्सादिसनिधनत्वेऽ*द्यनिधनत्वे च विरोधपरिहारोऽयम् । एवं हि पंचभिर्भावै: स्वयं परिणममानस्यास्य जीवस्य कदाचिदौदयिकेनैकेन मनुष्यत्वादिलक्षणेन भावेन सतो विनाशस्तथापरेणौदयिकेनैव देवत्वादिलक्षणेन भावेन असत उत्पादो भवत्येव । एतच्च 'सतो विनाशो नासत उत्पाद' इति पूर्वोक्तसूत्रेण सह विरुद्धमपि न विरुद्धम्; यतो जीवस्य द्रव्यार्थिकनयादेशेन न सत्प्रणाशो नासदुत्पा:, तस्यैव पर्यायार्थकनयादेशेन सत्प्रणाशोऽसदुत्पादश्च । न चैतदनुपपन्नम्, नित्ये जले कल्लोलानामनित्यत्वदर्शनादिति ॥५३॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, जीव को भाव-वशात् (औदयिक आदि भावों के कारण) सादि-सांतपना और अनादि-अनन्तपना होने में विरोध का परिहार है ।
इस प्रकार वास्तव में पाँच भावरूप से स्वयं परिणमित होनेवाले इस जीव को कदाचित् औदायिक ऐसे एक मनुष्यत्वादि-स्वरूप भाव की अपेक्षा से सत् का विनाश और औदयिक ही ऐसे दूसरे देवत्वादि-स्वरूप भाव की अपेक्षा से असत् का उत्पाद होता ही है । और यह (कथन) 'सत् का विनाश नहीं है तथा असत् का उत्पाद नहीं है' ऐसे पुर्वोक्त सूत्र के (१९वीं गाथा के) साथ विरोधवाला होने पर भी (वास्तव में) विरोधवाला नहीं है; क्योंकि जीव को द्रव्यार्थिक-नय के कथन से सत् का नाश नहीं है और असत् का उत्पाद नहीं है तथा उसी को पर्यायार्थिक-नय के कथन से सत् का नाश है और असत् का उत्पाद है । और यह १अनुपपन्न नहीं है, क्योंकि नित्य ऐसे जल में कल्लोलों का अनित्य-पना दिखाई देता है ॥५३॥
१अनुपपन्न = अयुक्त; असंगत; अघटित; न हो सके ऐसा