ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 54 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
णेरइयतिरियमणुआ देवा इदि णामसंजुदा पयडी । (54)
कुव्वंति सदो णासं असदो भावस्स उप्पत्ती ॥61॥
अर्थ:
नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव-इन नामों से संयुक्त (नामकर्म की) प्रकृतियाँ सत भाव का नाश और असत भाव का उत्पाद करती हैं।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[णेरइयतिरियमणुआदेवा इदि णाम संजुदा] नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव-इन नाम से संयुक्त [पयडी] नाम-कर्म की प्रकृतियाँ रूपी कर्ता [कुव्वंति] करती हैं । वे क्या करती हैं ? [सदोणासं] विद्यमान भाव रूप पर्याय का नाश [असदो भावस्स उप्पादं] असत भाव रूप पर्याय का उत्पाद करती हैं ।
वह इसप्रकार -- जैसे समुद्र रूप से अविनश्वर / स्थायी समुद्र में भी लहरें उत्पाद-व्यय दोनों करती हैं; उसीप्रकार सहजानन्द, एक, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक-स्वभाव से नित्य होने पर भी व्यवहार से अनादि कर्मोदय के वश निर्विकार शुद्धात्मोपलब्धि से च्युत जीव के नरक गति आदि कर्म प्रकृतियाँ उत्पाद और व्यय करती हैं । वैसा ही कहा भी है 'जल में जलकल्लोलो के समान, अनादि-निधन द्रव्य में अपनी पर्यायें प्रति समय उत्पन्न होती हैं, नष्ट होती हैं ।' आलाप पद्धति, पद्य ॥१॥
यहाँ शुद्ध निश्चय-नय से मूलोत्तर प्रकृति रहित, वीतराग, परमाह्लाद एकरूप चैतन्य प्रकाश सहित जो शुद्ध जीवास्ति-काय का स्वरूप है, वह ही उपादेय है -- ऐसा भावार्थ है ॥६१॥
इसप्रकार कर्म-कर्तृत्व आदि तीन पीठिका के व्याख्यानरूप से तीन गाथा द्वारा प्रथम अन्तर-स्थल पूर्ण हुआ ।