ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 65 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
जह पोग्गलदव्वाणं बहुप्पयारेहिं खंधणिव्वत्ती । (65)
अकदा परेहिं दिट्ठा तह कम्माणं वियाणाहि ॥72॥
अर्थ:
जैसे पुद्गल-द्रव्यों सम्बन्धी अनेक प्रकार की स्कन्ध-रचना पर से अकृत (दूसरे से किए बिना / स्वत:) दिखाई देती है; उसी प्रकार कर्मों का जानना चाहिए।
समय-व्याख्या:
अनन्यकृतत्वं कर्मणां वैचित्र्यस्यात्रोक्तम् ।
यथा हि स्वयोग्यचन्द्रार्क प्रभोपलम्भे सन्ध्याभ्रेन्द्रचापपरिवेषप्रभृतिभिर्बहुभिः प्रकारैःपुद्गलस्क न्धविकल्पाः कर्त्रन्तरनिरपेक्षा एवोत्पद्यन्ते, तथा स्वयोग्यजीवपरिणामोपलम्भे ज्ञानावरणप्रभृतिभिर्बहुभिः प्रकारैः कर्माण्यपि कर्त्रन्तरनिरपेक्षाण्येवोत्पद्यन्ते इति ॥६५॥
समय-व्याख्या हिंदी :
कर्मों की विचित्रता (बहु-प्रकारता) अन्य द्वारा नहीं की जाती ऐसा यहाँ कहा है ।
जिस प्रकार अपने को योग्य चन्द्र-सूर्य के प्रकाश की उपलब्धि होने पर, संध्या, बादल, इन्द्र-धनुष, प्रभा-मण्डल इत्यादि अनेक प्रकार से पुद्गल-स्कन्ध-भेद अन्य करता की अपेक्षा बिना ही होते हैं, उसी प्रकार अपने को योग्य जीव-परिणाम की उपलब्धि होने पर, ज्ञानावरणादि अनेक प्रकार के कर्म भी अन्य करता की अपेक्षा के बिना ही उत्पन्न होते हैं ॥६५॥