ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 67 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
तम्हा कम्मं कत्ता भावेण हि संजुदोध जीवस्स । (67)
भोत्ता दु हवदि जीवो चिदगभावेण कम्मफलं ॥74॥
अर्थ:
इसलिए जीव के भाव से संयुक्त कर्म कर्ता है तथा जीव चेतकभाव द्वारा कर्मफल का भोक्ता है।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[तम्हा] जिस कारण पूर्वोक्त नय-विभाग से जीव और कर्मों के परस्पर उपादान कर्तृत्व नहीं है, उस कारण [कम्मं कत्ता] कर्म कर्ता है । वह किनका कर्ता है ? निश्चय से अपने भावों का, व्यवहार से रागादि जीव भावों का कर्ता है; जीव भी व्यवहार से द्रव्य-कर्म-भावों का और निश्चय से अपने चेतक-भावों का कर्ता है । कैसा होता हुआ कर्म अपने भावों का कर्ता है ? [संजुदा] संयुक्त होता हुआ कर्ता है । [अधो] अब । किससे संयुक्त होता हुआ करता है ? [भावेण] मिथ्यात्व-रागादि भाव से, परिणाम से [जीवस्स] जीव के भाव से संयुक्त होता हुआ अपने भावों का कर्ता है । जीव भी कर्म-भाव से संयुक्त होता हुआ कर्ता है । [भोत्तादु] और भोक्ता भी, [हवदि] है । वह कौन है ? [जीवो] निर्विकार चिदानन्द एक अनुभूति से रहित जीव भोक्ता है । वह किसके द्वारा भोक्ता है ? [चिदगभावेण] परम चैतन्य-प्रकाश से विपरीत अशुद्ध चेतक-भाव द्वारा वह भोगता है । वह किसे भोगता है ? [कम्मफलं] शुद्ध-बुद्ध एक-स्वभावी परमात्म-तत्त्व की भावना से उत्पन्न जो सहज शुद्ध परम-सुख का अनुभवन-रूप फल है, उससे विपरीत सांसारिक सुख-दु:ख के अनुभवन-रूप शुभाशुभ कर्म-फल को भोगता है -- ऐसा भावार्थ है ॥७४॥
इस प्रकार पूर्व गाथा कर्मों के भोक्तृत्व की मुख्यता से और यह गाथा कर्म-सम्बन्धी कर्तृत्व-भोक्तृत्व के उपसंहार की मुख्यता से इस प्रकार दो गाथायें पूर्ण हुईं ।